हमें खाली-पीली ‘हैप्पी विमंस डे’ या महिला दिवस की बधाई सुनना अच्छा नहीं लगता

गायत्री आर्य

ऑफिस में क्रेच खोलिए, मांओं को छुट्टी देने में नाक-भौं न सिकोड़िए, महिलाओं पर अश्लील चुटकुले न बनाइए. कुछ भी ऐसा करिए और तब कहिए कि आप महिलाओं का सम्मान करते हो

प्रसव का दर्द और मातृत्व का सुख तब भी था जब भाषाएं और सभ्यताएं भी विकसित नहीं हुई थीं. यानी मातृत्व का इतिहास दुनिया की किसी भी सभ्यता के इतिहास से भी पुराना है. समय-समय पर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में स्त्रीवादी लेखिकाओं ने मातृत्व के बारे में अपने विचार रखे हैं. लेकिन अपने भारतीय समाज में तमाम स्त्रीवादी आंदोलनों, विचार-विमर्श, चर्चा और लेखन के बाद भी एक बड़ी हद तक मातृत्व का पुरुष-पाठ ही प्रचलित है.

मानव इतिहास के जन्म के समय से स्त्री मां बनती और मातृत्व को जीती आ रही है, लेकिन मातृत्व का स्त्री-पाठ लिखने की गुंजाइश आज शताब्दियों के बाद भी बनी हुई है. अफसोस कि हम सदियों से मातृत्व के पुरुष-पाठ को ही सदियों से पढ़ते, सुनते और गुनते आ रहे हैं. पुरुषों ने खुद को तो ‘लेबर रूम‘ से कोसों दूर रखा, लेकिन उनका मातृत्व-पाठ हमारी कोख से दिमाग तक को विषाक्त बनाए हुए है.

यह अफसोसजनक है कि पितृसत्ता ने बच्चा जनने जैसे निहायत स्त्रैण काम को भी खुद परिभाषित किया है. जो गर्भावस्था और प्रसव-दर्द का ककहरा भी नहीं जानते, उन्होंने मातृत्व का पूरा शब्दकोश लिख डाला है. 

यह अफसोसजनक है कि पितृसत्ता ने बच्चा जनने जैसे निहायत स्त्रैण काम को भी खुद परिभाषित किया है. जो गर्भावस्था और प्रसव-दर्द का ककहरा भी नहीं जानते, उन्होंने मातृत्व का पूरा शब्दकोश लिख डाला है. मातृत्व के महिमामंडन के दौरान यह बात हमेशा छिपाई गई कि मां बनने में सुख से पहले भयंकर दुख-दर्द भी है. ऐसा इसलिए किया गया ताकि हम प्रसव के घोर यातना-शिविर की चीखों और टीसों पर ध्यान न लगाकर, साल दर साल पितरों के वंशफूल खिलाती रहें.

हमें यह भी कभी नहीं बताया गया, कि मां बनना हमेशा ही सुखद नहीं है. आप कम उम्र में मां बनी लड़कियों, बेटियों की मांओं और अविवाहित मांओं से जान सकते हैं कि वे कितनी सुखी हैं. सुखी हैं भी या नहीं! असल में हमारा समाज ऐसी असंख्य लड़कियों (बालिका वधुओं) को जबरदस्ती प्रसव में धकेलता है जो मां बनने लायक ही नहीं. दूसरी तरफ जो मां बनने की प्रबल इच्छा रखती हैं (तलाकशुदा, परित्यक्ता, विधवा), उन्हें मातृत्व सुख से वंचित किया जाता है. हमारे देश में मांओं और मातृत्व का बेहद ऊंची आवाज में महिमामंडन तो किया गया है, लेकिन मांओं की बुनियादी जरूरतों और सुविधाओं को हद दर्जें तक अनदेखा किया गया है.

आज तक भी न देश की सारी प्रसूताओं को डाक्टर नसीब हुए हैं, न उनकी खून की कमी को पूरा किया जा सका है, न प्रसव की मौतों को न्यूनतम किया जा सका है, न पिताओं को आज तक मांओं को सहयोग करना आया है

आज तक भी न देश की सारी प्रसूताओं को डाक्टर नसीब हुए हैं, न उनकी खून की कमी को पूरा किया जा सका है और न ही प्रसव की मौतों को न्यूनतम किया जा सका है. न पिताओं को आज तक मांओं को सहयोग करना आया है और न ही सरकारी और प्राइवेट नौकरियों में गर्भवतियों और कामकाजी मांओं के लिए लचीली श्रम-नीतियां बनी हैं. यहां तक कि कानून बने होने के बावजूद आज तक सभी कार्यस्थलों पर बच्चों के क्रेच तक नहीं बने.

यह अजीब है लेकिन सच है कि मातृत्व सुख को बढ़ाने में इंसानों से ज्यादा निर्जीव चीजों ने सहयोग किया है. असल में गर्भ-निरोधकों और बच्चों के डाइपर्स ने मातृत्व सुख को बढ़ाने में दूसरी किसी भी चीज से ज्यादा सहयोग दिया है. जिन मांओं को साल-दर-साल प्रसव के दर्द में धकेला जाता था वे गर्भनिरोधकों के सहयोग से तुलनात्मक रूप से कुछ समय सांस ले सकती हैं. बारिश के समय, सर्दियों में, रातों में और सफर में बच्चों के डायपर्स ने मांओं को बड़ी राहत की सांस दी है.

पोतड़ों से लेकर डाइपर तक का सफर बहुत-बहुत लंबा, भारी और कष्टों से भरा रहा है. हालांकि आज भी डाइपर का आराम मुठ्ठी भर मांएं ही ले पा रही हैं. काश! वह दिन भी इस मुल्क में कभी आए, जब सारी लड़कियों को सैनिटरी नैपकिन और मांओं को बच्चों के लिए डाइपर नसीब हों! (डाइपर की खोज करने वालीं मैरिऑन डोनोवैन को दुनिया की सारी मांओं की तरफ से बेशुमार प्यार और दुआएं. उनका इस्तकबाल बुलंद हो!)

यह अजीब है लेकिन सच है कि मातृत्व सुख को बढ़ाने में इंसानों से ज्यादा निर्जीव चीजों ने सहयोग किया है. असल में गर्भ-निरोधकों और बच्चों के डाइपर्स ने मातृत्व सुख को बढ़ाने में दूसरी किसी भी चीज से ज्यादा सहयोग दिया है. 

सदियां बीत जाने के बाद भी मातृत्व से जुड़ी कुछ चीजें जस की तस बनी हैं. सारी पीढि़यों की स्त्रियों के लिए प्रसव के दर्द, बच्चे के साथ के रतजगों, दूध से भरी हुई छातियों के तनाव और बच्चे को सीने से लगा के दूध पीते देखने से मिलने वाले आनंद में भारी समानता है. बल्कि, जैसे पूरी दुनिया के इंसानों के आंसू का रंग एक है, हंसी की खनक एक है, खून का रंग एक है, वैसे ही पूरी दुनिया की मांओं के प्रसव का दर्द और मातृत्व-सुख भी एक ही है. कामवाली बाई से लेकर, इंदिरा गांधी, किरन बेदी, मैरी काॅम, और अरबों-खरबों की मालकिन टीना अंबानी तक, सबकी प्रसव-पीड़ा एक सी है. किसी भी एक चीज का सिक्का इस ‘प्रसव के यातना-शिविर‘ में नहीं चलता. चीखों से स्याह हुए ‘लेबर रूम‘ में सब की सब दर्द के एक ही कोड़े से पिटती हैं.

जैसे लेबर रूम से मांओं के सीधे तार जुड़े हैं, वैसे ही पिताओं के भी जुड़ने चाहिए. बल्कि मातृत्व के बरक्स पितृत्व की पूरी अवधारणा पर भी बात होनी चाहिए. (अपवादों का सम्मान करते हुए) मैं पिताओं से कहना चाहूंगी कि बड़प्पन ‘वीर्यदान‘ करने भर में नहीं. सांड भी वीर्यदान ही करते हैं. आप पिता हैं, बड़प्पन पितृत्व निभाने में है. जैसे पितृसत्ता द्वारा गलत व्याख्या के कारण मांएं मातृत्व का पूरा सुख नहीं ले पा रहीं वैसे ही ज्यादातर पिता भी पितृत्व सुख से कोसों दूर हैं. यहां अनपढ़ से लेकर पढ़े-लिखे और गांव से लेकर शहर तक के पिताओं की एक ही सोच है-ये औरतों का काम है वे ही जानें.

बड़प्पन ‘वीर्यदान‘ करने भर में नहीं. सांड भी वीर्यदान ही करते हैं. आप पिता हैं, बड़प्पन पितृत्व निभाने में है. जैसे पितृसत्ता द्वारा गलत व्याख्या के कारण मांएं मातृत्व का पूरा सुख नहीं ले पा रहीं वैसे ही ज्यादातर पिता भी पितृत्व सुख से कोसों दूर हैं. 

जी हां हम जान ही रही हैं, खूब समझ रही हैं धीरे-धीरे. हम जान रही हैं कि साल दर साल बेटा पैदा करने के इंतजार में हमारी देह झोला बन जाए, इसकी किसी को रत्ती भर भी चिंता कभी नहीं हुई. हम समझ रहीं है कि यह इत्तेफाक नहीं कि हम मरघट नहीं जातीं. हमें सृजन संभालना है. हम विनाश और मरण की नहीं, जीवन और सृजन की वाहक हैं. आपकी पुश्तों ने हमें बार-बार ‘नरक का द्वार‘ कहा, सदियों तक कहा. अब मैं कहती हूं और पलट-पलट कर कहूंगी कि ‘सृजन द्वार‘ की स्वामिनी हैं हम..और सिर्फ हम ही हैं! हम सृजन संभाल रही हैं, आप हमें संभाल लीजिए.

मांओं/स्त्रियों के जीवन को जरा सा सहज और सुखद बनाने के लिए व्यवहार में बहुत सारी चीजें की जा सकती हैं. पितृत्व निभाइए, आॅफिसों में क्रेच खोलिए, मांओं के काम के घंटे और कार्यशैली में लचीलापन लाइए, मांओं को छुट्टी देने में नाक-भौं न सिकोड़िए, गर्भवतियों को अजीब सी नजरों से न देखिए, सारी मांओं को प्रसव के समय डाक्टर उपलब्ध कराइए, उनकी खून की कमी को कम करिए, उन्हें गर्भपात का आदी न बनाइए, स्त्रियों के बारे में अश्लील चुटकुले मत बनाइए. कितनी चीजें हैं करने को.

कुछ भी-कुछ भी ऐसा करिए और हमें महसूस करवाइए कि आप सच में मांओं का, महिलाओं का सम्मान करते हैं. हमें खाली-पीली ‘हैप्पी विमंस डे‘ या ‘महिला दिवस की बधाई‘ सुनना जरा भी नहीं सुहाता.

सौज- सत्याग्रहः लिंक नीचे दी गई है-

https://satyagrah.scroll.in/article/100097/this-women-s-day-don-t-just-wish

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