दिल्ली में फिर लोकतंत्र खत्म करने की तैयारी!

एन.के. सिंह

अगर 70 सदस्यीय विधान-सभा में एक नहीं दो-दो बार क्रमशः एक पार्टी  67 और 62 सीटें हासिल करती है, जिसका वोट शेयर असामान्य रूप से 50 फ़ीसदी से ज्यादा रहा हो उसकी सरकार केंद्र द्वारा नियुक्त अधिकारी के रहमोकरम पर रहे। क्या यह जनमत को नज़रअंदाज करना नहीं होगा और क्या यह केंद्र द्वारा सार्वजानिक मंचों से कहे गए सहकारी संघवाद (कोऑपरेटिव फ़ेडरलिज्म) के सिद्धांत के विपरीत आचरण नहीं होगा?

जीने भी नहीं देते, मरने भी नहीं देते! 

क्या तुमने मुहब्बत की, हर रस्म उठा डाली!!

                                  –फ़ानी बदायुनी    

इतने बड़े शायर के अलफ़ाज़ बदलने की जुर्रत न करते हुए यहाँ मैं पाठकों को केवल मुहब्बत को लोकतंत्र पढ़ने की सलाह देता हूँ बाकि फ़ानी साहेब खुद ही कह गए हैं। अगर किसी राज्य की चुनी हुई सरकार अच्छा करे और उसके आधार पर चुनाव-दर-चुनाव 55 फ़ीसदी वोट पा कर जीते, तो सरकार की परिभाषा बदल दी जाती है, अगर चुनाव में विपक्ष के बेहतर करने के आसार हैं तो सीबीआई, ईडी, आईटी और एजेंसियों के अमला को लुहा दिया जाता है (कमलनाथ और शरद पवार का उदाहरण याद करें) और अगर सरकार की निंदा होती है तो उसे टूलकिट का हिस्सा मान कर देशद्रोह की दफाओं से नवाजा जाता है।   

इस क्रम में ताज़ा है संसद में बहुमत के बूते पर संशोधन बिल पास करा कर केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त लेफ्टिनेंट गवर्नर (एलजी) को सरकार करार दिया जाना। उधर सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यीय संविधान पीठ अपने 2018 के फ़ैसले में चीख-चीख कर कह चुकी है कि नियुक्त संस्था –एलजी चुनी हुई सरकार के फ़ैसले मानने को बाध्य है। 

कोऑपरेटिव फ़ेडरलिज्म

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 में सत्ता में आने के तत्काल बाद कोऑपरेटिव फ़ेडरलिज्म (सहकारी संघवाद) का नया सिद्धांत प्रतिपादित किया था और वादा किया था कि अब गवर्नेंस इसी सिद्धांत पर चलेगा यानि राज्य की सरकारें फ़ैसलों में सहभागी ही नहीं होंगी, बल्कि उन्हीं की राय से फ़ैसले होंगें। लेकिन बाद में देखने में आया कि राज्य-सूची के विषयों पर भी धकमपेल करके केंद्र सरकार संसद में बहुमत के दम पर या कई बार ज़बरिया क़ानून बनाने लगी।

जिन राज्यों में ग़ैर-बीजेपी सरकारें थीं, उनको गिराने का सिलसिला चलने लगा और जब इससे भी तसल्ली नहीं हुई तो विरोधी दलों के नेताओं पर ऐन चुनाव के वक्त सीबीआइ, ईडी, इनकम टैक्स और अन्य केन्द्रीय एजेंसियों के छापे डलवाए जाने लगे। 

शायद सहकारिता का यह नया स्वरूप था जो पोलिटिकल साइंस की किताबों में नहीं, बल्कि नव-राष्ट्रवाद के स्कूल में पढ़ाया जाता है।   

डेमोक्रेसी रिपोर्ट

इन सबसे दूर जब कुछ विदेशी संस्थाओं ने भारत की स्थिति पर ऐसे रिपोर्ट्स दिए तो यह सब सरकार को नागवार गुज़रा। इनमें ताज़ा हैं स्वीडेन की वी-डेम और अमेरिकी एनजीओ फ्रीडम हाउस ने भारत में प्रजातंत्र की स्थिति पहले से ख़राब बताई। सत्ताधारी वर्ग यह नहीं समझता कि वर्तमान दौर में देश की हर ख़बर दुनिया भर में पहुँचती है, वैश्विक संस्थाएं उन पर प्रतिक्रिया देती हैं और नकारात्मक छवि देश में विदेशी पूँजी के निवेश को भी प्रभावित करता है।

फ्रीडम हाउस ने भारत की रैंकिंग पिछले एक साल में ‘स्वतंत्र’ से घटा कर ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ कर दी है। यह संस्था भारत के ख़िलाफ़ किसी तथाकथित टूलकिट का हिस्सा नहीं है, जैसा सरकार ने हाल ही में कुछ जाने-माने विदेश हस्तियों की नकारात्मक टिप्पणी के बाद कहा था।

इन्टरनेट शटडाउन 

इन्टरनेट शटडाउन सरकार की तरकश का नया तीर है। पिछले नौ वर्षों में केंद्र और राज्य की सरकारों द्वारा इसके इस्तेमाल की सालाना दर 45 गुना बढ़ी है। साल 2016 से भारत दुनिया में सबसे ज्यादा इस तीर का इस्तेमाल करने वाला देश है।

चलिए, ये दो तो स्वतंत्र संस्थाएं हैं। अगर संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ अपनी ताज़ा रिपोर्ट में कहती है कि दुनिया में अगर तीन बाल-बिवाह होते हैं तो एक भारत का होता है, अगर विश्व भूख सूचकांक में भारत पिछले दो वर्षों में कुछ खाने और नीचे आ जाता है या मानव विकास सूचकांक में भारत को तमाम छोटे-छोटे मुल्क पीछे कर बढ़ जाते हैं या देश भ्रष्टाचार सूचकांक में छहखाने और गिर जाता है तो क्या वह भी कोई अंतरराष्ट्रीय टूलकिट साजिश का हिस्सा है? 

निंदा देशज हो या वैश्विकृत अर्थ-व्यवस्था में विदेशी, इसे सकारात्मक भाव से सत्ता-पक्ष को लेना चाहिए और अगर ग़लती है तो उसे दुरुस्त करने की कोशिश करनी चाहिए। भारत में तो हर मंत्री उसे ग़लत ठहरा सकता है, लेकिन विश्व में छवि बनानी है और विदेशी पूंजी निवेश आकर्षित करना है तो चोंच को रेत में धसा देने का शुतुरमुर्गी भाव ख़त्म करना होगा। कोरोना से लड़ने में और टीकाकारण में दुनिया ने भारत सरकार की प्रशंसा की और इसे सरकार ने भी राजनीतिक मंचों पर भुनाया।

अगर यह रिपोर्ट भी है कि इस दौर में बेरोज़गारी और ग़रीबी-अमीरी की खाई भी बढ़ी, तो इसे भारत-विरोधी ताकतों का षड्यंत्र बताना सरकार की गंभीरता पर प्रश्न चिन्ह लगता है।

सरकार माने एलजी       

संसद में प्रस्तुत ताज़ा बिल में संविधान के अनुच्छेद 239 ‘ए’ ‘ए’ के तहत बने दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र शासन अधिनियम, 1991 में संशोधन कर केंद्र द्वारा नियुक्त दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर (एलजी) को और अधिक अधिकार देने की व्यवस्था है। यानी चुनी हुई सरकार का हर फ़ैसला एलजी की अनुमति का मोहताज होगा। यह सब कुछ तब जबकि सुप्रीम कोर्ट की पाँच –सदस्यीय संविधान पीठ ने 2018 में अपने फ़ैसले में स्पष्ट तौर पर कहा था कि लोक व्यवस्था, पुलिस और ज़मीन को छोड़ कर अन्य विषयों पर एलजी की सहमति बाध्यकारी नहीं है, बल्कि एलजी के लिए मंत्रिमंडल की सिफ़ारिशें बाध्यकारी हैं। 

केंद्र द्वारा लाये जा रहे संशोधन की और बड़ी गलती है कि उसने बगैर संविधान के प्रावधान 239 ‘ए’ ‘ए’ उप-बंध 6 को संशोधित किये सरकार की परिभाषा बदलने का प्रस्ताव रखा है। यह उपबंध मंत्रिपरिषद को विधानसभा के प्रति सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत पर आधारित है। अगर मंत्रिपरिषद विधानसभा के प्रति जवाबदेह है तो एलजी सरकार कैसे हो सकता है। किसी फ़ैसले पर अगर सरकार अल्पमत में आती है तो मंत्रिपरिषद हटेगा या एलजी? नया संशोधन विधेयक वर्तमान क़ानून के सेक्शन 21 में बदलाव करके कहता है कि सरकार के मायने होंगें एलजी। 

दिल्ली में हर पाँच साल पर विधानसभा के चुनाव का महंगा आडंबर ही क्यों करते हैं? अगर 70 सदस्यीय विधान-सभा में एक नहीं दो-दो बार क्रमशः एक पार्टी 67 और 62 सीटें हासिल करती है, जिसका वोट शेयर असामान्य रूप से 50 फ़ीसदी से ज्यादा रहा हो, उसकी सरकार केंद्र द्वारा नियुक्त अधिकारी के रहमोकरम पर रहे।

क्या यह जनमत को नज़रअंदाज करना नहीं होगा और क्या यह केंद्र द्वारा सार्वजानिक मंचों से कहे गए सहकारी संघवाद (कोऑपरेटिव फ़ेडरलिज्म) के सिद्धांत के विपरीत आचरण नहीं होगा? 

वैसे भी दिल्ली की पुलिस, लोक-व्यवस्था और भूमि तो केंद्र के पास हैं ही, तमाम निकाय भी केंद्र में सत्ताधारी दल द्वारा हीं संचालित होते हैं फिर ऐसे में दिल्ली की तथाकथित स्वायत्तता का क्या तात्पर्य है और क्यों जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा चुनाव के नाटक में या 70 विधायकों और तमाम सात मंत्रियों पर खर्च करने में लगाया जाये? 

संसद में सरकार बहुमत में है, लिहाज़ा संशोधन पारित भी हो जाएगा। लेकिन क्या यह न्यायिक समीक्षा की तराजू पर खरा उतरेगा? क्या राज्यों में गैर-भाजपा सरकारें केंद्र के इस रवैये को सहकारिता के भाव से लेंगीं?

एनके सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के पूर्व महासचिव हैं। ये उनके निजी विचार हैं। सौज- सत्यहिन्दी

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