देश को पुलिस स्टेट में बदल रहा है सत्ता और पुलिस का गठजोड़

अनिल जैन

आज से क़रीब छह दशक पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट के ही न्यायाधीश आनंद नारायण ने अपने एक फ़ैसले में लिखा था कि भारतीय पुलिस अपराधियों का एक संगठित गिरोह है।

उत्तर प्रदेश में तमाम तरह के संगीन अपराधों में लगातार हो रही बढ़ोतरी के बावजूद सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अक्सर दावा करते रहते हैं कि उनकी सरकार ने उत्तर प्रदेश को अपराध मुक्त कर दिया है और अब अपराधियों की जगह या तो जेल में है या फिर वे उत्तर प्रदेश छोड़ कर जा चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी ऐसा ही मानना है और वे इसके लिए अक्सर योगी आदित्यनाथ की पीठ ठोकते हुए उन्हें यशस्वी मुख्यमंत्री का संबोधन देते हैं। योगी आदित्यनाथ यही दावा इन दिनों पश्चिम बंगाल में चुनावी रैलियों को संबोधित करते हुए भी कर रहे हैं और कह रहे हैं कि अगर बीजेपी यहाँ सत्ता में आई तो पश्चिम बंगाल को भी उत्तर प्रदेश जैसा बना दिया जाएगा। 

लेकिन अंग्रेज़ी अख़बार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की एक खोजपूर्ण रिपोर्ट न सिर्फ़ योगी आदित्यनाथ के दावे की पोल खोलती है, बल्कि यह भी साबित करती है कि उनकी सरकार और सूबे की पुलिस अपराधियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई के नाम पर आम लोगों के साथ ख़ुद अपराधियों जैसा बर्ताव कर रही है। सूबे में एनएसए यानी राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून का बेतहाशा दुरुपयोग कर बेकसूर लोगों को बिना मुक़दमा चलाए जेल में डाला जा रहा है।

‘इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट में यह बात भी निकलकर सामने आई है कि पिछले तीन साल के दौरान योगी आदित्यनाथ की सरकार ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ बड़ी संख्या में एनएसए का इस्तेमाल किया, जिनमें से अधिकतर मामलों में हाई कोर्ट ने मामले खारिज करते हुए आरोपी बनाए गए लोगों को रिहा किया है और सरकार तथा पुलिस के रवैये को फटकार के लायक पाया है।

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इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एनएसए के ऐसे 120 मामलों में दायर हैबियस कार्पस यानी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं पर 94 मामलों को खारिज करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को कड़ी फटकार लगाई है।

कोर्ट ने इन खारिज मामलों के आरोपियों को रिहा करने का आदेश देते हुए ऐसे मामले तैयार करने वाली पुलिस और उन ज़िला मजिस्ट्रेटों को भी ख़ूब सुनाई है जिन्होंने ऐसे मामलों को मंजूरी दी। हाई कोर्ट ने कहा कि ऐसा लगता है कि ज़िला मजिस्ट्रेटों ने ऐसे मामलों को मंजूरी देने में अपने दिमाग़ का इस्तेमाल नहीं किया है। अदालत ने यह खुले तौर पर पाया और कहा है कि सरकार ने आरोपियों के मामलों की सुनवाई में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई ताकि वे जेलों में सड़ते रहें, जबकि इनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में अफ़सरों ने असामान्य जल्दबाज़ी दिखाई थी। एनएसए के मामलों की समीक्षा के लिए बने सलाहकार बोर्ड के सामने भी इन मामलों को नहीं रखा गया।

तीन साल के दौरान बनाए गए ऐसे सभी मामलों की अलग-अलग चर्चा तो यहाँ करना मुमकिन नहीं है, लेकिन इस पूरे दौर में उत्तर प्रदेश से आने वाली ख़बरों से यह साफ़ दिखता ही था कि वहाँ सरकार, प्रशासनिक अफ़सरों और पुलिस का रवैया किस कदर सांप्रदायिक हो चुका है। राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून जैसा कि इसके नाम से ही जाहिर है कि राष्ट्रीय सुरक्षा को कोई ख़तरा होने पर इस्तेमाल के लिए यह क़ानून बनाया गया है। लेकिन देश भर में कई राज्य सरकारों और पुलिस ने इस क़ानून का मनमाना बेजा इस्तेमाल किया है। 

जब सत्ता और पुलिस की मनमानी और गुंडागर्दी में साम्प्रदायिकता और जुड़ जाती है तो वह अल्पसंख्यकों को इस देश का नागरिक भी महसूस नहीं होने देती। 

हाल के वर्षों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जिनमें दस-बीस सालों से जेलों में बंद बेकसूर मुसलिमों को अदालत ने बाइज्जत बरी किया है। यह एक अलग बात है कि इस दौरान इनके परिवार तबाह हो चुके होते हैं और एक पूरी पीढ़ी उनके बिना या तो जवान हो चुकी होती है या मर चुकी रहती है।

देश में सरकार के साम्प्रदायिक रूख के मामले में उत्तर प्रदेश पिछले चार वर्षों से अव्वल बना हुआ है। वहाँ जानवरों की तस्करी करने, गोवंश को मारने, गोमांस खाने जैसे आरोप लगाकर किसी की भी मॉब लिंचिंग की जा सकती है और क़ानूनी कार्रवाई तो की ही जा सकती है, फिर चाहे उस कार्रवाई का हश्र वही हो जो कि अभी क़रीब 94 मामलों का हाई कोर्ट पहुँचने पर हुआ है। 

उत्तर प्रदेश में एनएसए के दुरुपयोग पर अदालत के फ़ैसले देश में व्यापक स्तर पर पुलिस सुधार की दरकार को रेखांकित करते हैं। 

पुलिस और राजनीति की यह माफिया भागीदारी किसी भी लोकतांत्रिक मान्यता या सिद्धांत से अछूती रहती है। यह हैरानी की बात है कि राजनीति और पुलिस की इस आपराधिक साझेदारी का देश के विभिन्न हाई कोर्ट तो आमतौर पर संज्ञान लेते रहते हैं लेकिन पिछले कुछ सालों से सुप्रीम कोर्ट इस मामले में उदासीन बना हुआ है।

उत्तर प्रदेश में एनएसए के दुरुपयोग की यह मिसाल तो वहाँ की सरकार और पुलिस के सांप्रदायिक चरित्र को उजागर करती ही है, लेकिन देश के बाक़ी प्रदेशों को भी यह सोचना चाहिए कि पुलिस का बेजा इस्तेमाल सत्ता के लिए सहूलियत का तो हो सकता है, लेकिन वह अपने प्रदेश के भीतर ही कई क़िस्म की नाइंसाफ़ी की खाइयाँ भी खोद देता है। 

केंद्र सरकार के मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस ने पिछले कुछ सालों के दौरान जेएनयू और जामिया से लेकर शाहीन बाग़ तक और दूसरे कई आंदोलनों में तथा कोरोना काल में तब्लीग़ी जमात के लोगों को कोरोना फैलाने का ज़िम्मेदार ठहराने के मामले में भी केंद्र सरकार की कठपुतली बनकर कार्रवाई की है। यही नहीं, इन सारे मौक़ों पर पुलिस की सांप्रदायिक और पक्षपातपूर्ण कार्रवाई का ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान की एक सभा में सार्वजनिक तौर पर बचाव किया और पुलिस को शाबासी दी। यह और बात है कि बाद में दिल्ली पुलिस को इन मामलों में अदालतों की फटकार सुननी पड़ी और नीचा देखना पड़ा।

अगर इस देश में पुलिस के बेजा इस्तेमाल पर रोक लगाने का संवैधानिक समाधान नहीं निकाला जाएगा, तो देश को पूरी तरह पुलिस स्टेट में तब्दील होने से नहीं रोका जा सकेगा और इंसाफ़ के सिलसिले की इस पहली कड़ी पर लोगों का ज़रा भी भरोसा नहीं रह जाएगा।

सौज- सत्यहिन्दी

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