लक्षद्वीप में अमरीकी नौसेना: नौवहन की आज़ादी की आड़ में युद्धपोत कूटनीति

प्रबीर पुरकायस्थ

अमरीका मानता है कि उसके युद्धपोतों को जो नाभिकीय शस्त्रों से लैस होते हैं, तटवर्ती देशों की अनुमति के बिना ही, हर जगह अपने सैन्य अभ्यास करने का बेरोक-टोक अधिकार है।

दक्षिण चीन सागर में अमरीका के नौवहन की आजादी के दावों का अनुमोदन करने वाली भारत सरकार के लिए, यह झकझोर देने वाला मामला था। अमरीका के सातवें जहाजी बेड़े द्वारा अपनी वेबसाइट पर किए गए एक एलान से पता चला है कि अमरीका ने वैसा ही फ्रीडम ऑफ नेवीगेशन ऑपरेशन, लक्षद्वीप के गिर्द भारत के एक्सक्लूसिव इकॉनमिक जोन (ईईजैड) में भी चलाया था। यह आपरेशन, 7 अप्रैल को किया गया था। यह कार्रवाई, भारत से कोई पूर्वानुमति मांगे बिना ही की गयी थी। अमरीका ने भारत के साथ ऐसे अनेक ‘मतभेदों’ की निशानदेही की है और अतीत में भी इन क्षेत्रों में उसने फ्रीडम ऑफ नेवीगेशन ऑपरेशन (एफओएनओपी) चलाए हैं। वह हर साल अमरीकी कांग्रेस को अपनी फ्रीडम ऑफ नेवीगेशन कार्रवाइयों की रिपोर्ट देता है।

अमरीका मानता है कि उसके युद्धपोतों को जो नाभिकीय शस्त्रों से लैस होते हैं, तटवर्ती देशों की अनुमति के बिना ही, हर जगह अपने सैन्य अभ्यास करने का बेरोक-टोक अधिकार है। दूसरी ओर भारत का और दूसरे अनेक देशों का भी यह मानना है कि अंतरराष्ट्रीय कानून किसी भी देश को इस तरह का अधिकार नहीं देते हैं। भारत ने इस संंबंध में अलग से एक कानून ही बनाया है जिसका नाम है द टेरिटोरियल वाटर्स, कॉन्टिनेंटल शेल्फ, एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन एंड अदर मैरीटाइम जोन्स एक्ट, 1976 और यह कानून ठोस तरीके से भारत के हिसाब से उसके जो अधिकार हैं, उन्हें सूत्रबद्ध करता है। बहरहाल, अमरीका ने अपनी इस कार्रवाई के जरिए अभी-अभी यह दिखाया है कि उसे इसकी रत्तीभर परवाह नहीं है कि ऐसे किसी मामले में, भारत क्या सोचता है?

लेकिन मोदी सरकार के लिए, उसके पिछवाड़े में आकर अमरीका का ऐसी फ्रीडम आफ नेवीगेशन कार्रवाई करना, महज अमरीकी ‘कुप्रबंधन’ का ही मामला है! अनेकानेक अमरीका-मित्र ‘विशेषज्ञों’ द्वारा भी मीडिया में ऐसी ही लाइन ली गयी है। ये वही विशेषज्ञ हैं जो भारत के क्वॉड का हिस्सा बन जाने और चीन की नाकेबंदी करने की अमरीका की नीति का भागीदार बन जाने पर, खुशी से उछल रहे थे। उनकी नजरों में समस्या यह नहीं थी कि अमरीका, भारत के एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन में इस तरह का ऑपरेशन कर रहा था बल्कि समस्या यह थी उसने सारी दुनिया में अपने ऐसा करने का ढिंढोरा पीट दिया था। आखिरकार, भारतीय सागर क्षेत्र में और एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन में ऐसी कार्रवाइयां तो, अमरीका पहले भी करता ही आया था!

तटवर्ती देशों के अधिकारों के मामले में, अमरीका और उसके नाटो सहयोगी ही, सबसे अलग चलने वाले बने रहे हैं। दूसरी ओर दुनिया के अधिकांश देश तो तटवर्ती देश के नाते अपने अधिकारों की भारत की व्याख्या के ही ज्यादा नजदीक पाए जाएंगे। और यह मानने के मामले में तो अमरीका पूरी तरह से अकेला ही है कि उसे सैन्य ताकत के बल पर अपने नौवहन के अधिकारों को मनवाने का अधिकार है। अमरीकी युद्धपोतों के जरिए की गयी फ्रीडम ऑफ नेवीगेशन कार्रवाइयां, ठीक यही करती हैं।

भारत इस मामले में बुरी तरह से फंस गया है। उसने दक्षिण चीन सागर में नौवहन की आजादी की अमरीका की समझदारी का ही अनुमोदन नहीं किया है बल्कि उसे ‘वैश्विक शामलात’ भी करार दिया है। लेकिन, अपने पड़ोसी देशों–फिलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, इंडोनेशिया–के साथ चीन के मतभेदों का संबंध, दक्षिण चीन सागर में नौवहन ही आजादी से या उसके वैश्विक शामलात होने से नहीं है, जिसका दावा अमरीका करता है। तटवर्ती देशों के रूप में चीन और उसके इन पड़ोसी देशों के विवाद तो इस पर हैं कि दक्षिण चीन सागर पर, किस के क्या आर्थिक अधिकार–मछली पकड़ने, खनिज निकालने, ऊर्जा उत्पादन करने के अधिकार–हैं। इसमें और दक्षिण चीन सागर के वैश्विक शामलात होने में बहुत अंतर है।

यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन ऑन द लॉज़ आफ सीज़ (1982) या यूएनसीएलओएस ही सागरों के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून है। यूएनसीएलओएस पर दस्तखत करते हुए, भारत ने नौवहन के मुद्दे पर ऐलान किया था: ‘कि कन्वेंशन के प्रावधान अन्य देशों को इसके लिए अधिकृत नहीं करते हैं कि तटवर्ती देश की इजाजत के बिना एक्सक्लूसिव इकॉनमिक जोन में या कांटीनेंशनल शैल्फ पर सैन्य अभ्यास करें और खासतौर पर ऐसे अभ्यास करें जिनमें शस्त्रों का या विस्फोटकों का इस्तेमाल हो।’ यूएनसीएलओएस पर दस्तखत करते हुए ऐसी ही घोषणाएं चीन, वियतनाम तथा अन्य देशों द्वारा भी की गयी हैं। युद्धपोतों को लिए नौवहन की आजादी के मुद्दे पर चीन, भारत, इंडोनेशिया, वियतनाम आदि का रुख, अमरीका के रुख से बिल्कुल अलग है।

जहां 161 देशों ने यूएनसीएलओएस पर दस्तखत किए हैं, अमरीका इस मामले में महत्वपूर्ण अपवाद है। उसके यूएनसीएलओएस पर दस्तखत करने का कारण भी महत्वपूर्ण है। अमरीकी दक्षिणपंथी विपक्ष को यह मंजूर ही नहीं है कि सागरों पर नियंत्रण किसी अंतर्राष्ट्रीय निकाय के हाथों में हो। अमरीका के यूएनसीएलओएस पर दस्तखत नहीं करने के पक्ष में हेरिटेज फाउंडेशन के अभियान का पहला नुक्ता ही यह था कि, ‘कन्वेंशन की अमरीका की सदस्यता, उसे कोई नौवहन अधिकार या स्वतंत्रताएं नहीं देगी, जो उसे पहले ही हासिल नहीं हैं। अमरीका, इस कन्वेंशन पर दस्तखत करने के जरिए नहीं बल्कि एक मजबूत अमरीकी नौसेना बनाए रखने के जरिए,अपने अधिकारों की बेहतरीन तरीके से हिफाजत कर सकता है।’  यानी जिसकी लाठी उसकी भैंस की सही है, किसी और कानून की जरूरत नहीं है।

जहां अमरीका नौवहन की आजादी की दुहाई अंतरराष्ट्रीय कानून के नाम पर देता है, वह सावधानी से यह छुपा ही लेता है कि यह कानून क्या है? यूएनसीएलओएस (1982) से अमरीका को समस्या यह है कि यह कानून, किसी भी तटवर्ती देश के लिए 200 नॉटिकल मील (370 किलोमीटर) की दूरी तक का एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन स्वीकार करता है और उनके तटीय समुद्र की सीमा 3 से बढ़ाकर 12 नॉटिकल मील करता है। ज्यादातर देशों से तथा यूएनसीएलओएस से अमरीका का झगड़ा यह है कि वह यह मानता है कि उसकी नौवहन की आजादी में, किसी तटीय देश का कानून आड़े नहीं आ सकता है। दूसरी ओर यूएनसीएलओएस का और ज्यादातर देशों का यही मानना है कि तटीय देशों के कानून, नौवहन की ऐसी आजादी पर समुचित अंकुश ही लगाते हैं। और ज्यादातर देशों  तथा विशेषज्ञों के अनुसार, नौवहन के अधिकार का दावा पेश करने वाले देशों से, तटीय देशों का इसकी मांग करना समुचित अंकुश के ही दायरे में आता है कि सैन्य अभ्यास में युद्धपोतों के शामिल होने तथा उनके नाभिकीय शस्त्रों व अन्य खतरे वाली सामग्री से लैस होने पर, उन्हें पहले से सूचना दी जाए।

अमरीका के तथाकथित फ्रीडम ऑफ नेविगेशन कार्रवाइयां करने के संबंध में दूसरी समस्या यह है कि अमरीका को यह अधिकार किस ने दिया है कि वह नौवहन की आजादी की अपनी समझदारी को, सैन्य ताकत के बल पर सबसे मनवा सकता है? सीधे-सादे शब्दों में कहें तो अमरीका सिर्फ यही नहीं जता रहा है कि उसे अपनी मर्जी के हिसाब से अंतरराष्ट्रीय कानूनों की व्याख्या करने का अधिकार है बल्कि यह भी जता रहा है कि उसे अपनी इस समझदारी को, अपने युद्धपोतों के बल पर, दूसरों पर थोपने का भी अधिकार है।

जब मोदी सरकार ने नौवहन की आजादी की अमरीका की समझदारी का अनुमोदन किया था, उसने अंतर्निहित रूप से अमरीका की इस समझदारी का भी अनुमोदन किया था कि अंतर्राष्ट्रीय संधियां व संयुक्त राष्ट्र संघ नहीं, प्रभुत्वशाली का कानून ही अंतरराष्ट्रीय कानून है। पश्चिमी ताकतें इसी को ‘एक नियम आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था’ के रूप में पेश कर रही हैं यानी ऐसी व्यवस्था जहां उनका ही कानून चलेगा। यही तो पश्चिमी उपनिवेशवाद, सैटलर औपनिवेशिक राज्यों तथा उसके साम्राज्यों की ‘विरासत’ है। उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता है कि इन साम्राज्यों के साथ नरसंहार, दासता और लूट जुड़े हुए थे। 21वीं सदी का इसका संस्करण, नौवहन की स्वतंत्रता के वेश में युद्धपोत कूूटनीति का ही पुनर्जन्म है।

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https://www.newsclick.in/US-navy-lakshadweep-gunboat-diplomacy-masquerading-freedom-navigation

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