आधुनिक भारतीय इतिहास के दो सबसे डरावने नारे— अच्छे दिन आयेंगे, आपदा में अवसर!

उर्मिलेश

मरने वाले लोगों की सर्वाधिक संख्या उनकी है, जो सिर्फ आॉक्सीजन या अस्पताल में बेड न मिलने के चलते मरे हैं या मर रहे हैं। इसलिए यह कहना गलत नहीं कि इन लोगों को कोरोना-वायरस ने नहीं, भाजपा की मोदी सरकार के कुशासन ने मारा है। 

यह वायरस नहीं जो इतनी बड़ी संख्या में भारत के लोगों को मार रहा है, यह भारत की व्यवस्था है जो उसके लोगों को मार रही है। जितने लोग अब तक मरे हैं, इनकी एक चौथाई से भी कम संख्या वायरस-संक्रमण के चलते मौत का शिकार होती अगर ये लोग किसी व्यवस्थित और जवाबदेह शासन वाले देश के नागरिक होते या अपने ही देश की व्यवस्था जागरूक, मानवीय और जवाबदेह होती! अपने जैसे घनी आबादी वाले, गरीबी और विषमता से भरे अव्यवस्थित देश में ऐसे वायरस से लोगों को संक्रमण से बचाना आसान काम नहीं पर लोगों को इतनी भारी संख्या में मरने से बचाना निश्चय ही मुश्किल नहीं था। मरने वाले लोगों की सर्वाधिक संख्या उनकी है, जो सिर्फ आॉक्सीजन या अस्पताल में बेड न मिलने के चलते मरे हैं या मर रहे हैं। इसलिए यह कहना गलत नहीं कि इन लोगों को कोरोना-वायरस ने नहीं, भाजपा की मोदी सरकार के कुशासन ने मारा है। सरकार का एक और कसूर बहुत खौफनाक है। उसने संक्रमण के दौरान आॉक्सीजन न मिल पाने या अस्पताल में जगह न मिलने के चलते मारे जाने वाले लोगों की संख्या में भी भारी घपलेबाजी और फरेब किया है। गांवों, कस्बों और छोटे-मझोले शहरों में मरने वालों की संख्या का सही रिकार्ड तक नहीं रखा जा रहा है। इसलिए दुनिया के सामने भारत में संक्रमित लोगों और कोरोना से मरने वालों की संख्या सम्बन्धी जो आंकड़े जा रहे हैं, वे सच से कोसों दूर हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ), तमाम स्वास्थ्य विशेषज्ञों और यहां तक कि दुनिया भर के देशों की सरकारों ने कोविड-19 संक्रमण के प्रकाश में आने के साथ सन् 2019 के अंत और सन् 2020 की शुरुआत में टेस्टट्रैक एंड ट्रीट का नारा दिया था। इसी रणनीति पर सभी जिम्मेदार देशों की सरकारों ने काम शुरू किया। भारत सरकार ने भी इस रणनीति के प्रति अपनी वचनबद्धता दोहराई। अचरज की बात कि कुछ ही दिनों के अंदर हमारी केंद्रीय और ज्यादातर प्रांतीय सरकारों ने इस रणनीति को अलविदा कह दिया। सिर्फ केरलमहाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों ने जितना संभव हो सका, इसका पालन किया। इसमें केरल और महाराष्ट्र का रिकार्ड अपेक्षाकृत बेहतर रहा।

यूपीबिहारमध्य प्रदेशओडिशाकर्नाटकगुजरात और झारखंड जैसे कई प्रदेशों में संभावित मरीजों की टेस्टिंग की प्रक्रिया बहुत दोषपूर्ण रही। इस वक्त भी जब भारत में लोगों की बेतहाशा मौतें हो रही हैं, यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात और ओडिशा जैसे प्रदेशों में किसी व्यक्ति का अपनी कोरोना टेस्टिंग कराना कड़ी परीक्षा को पास करने से ज्यादा कठिन है। देश के ज्यादातर प्रदेशों में अगर कोई व्यक्ति किसी तरह अपने संपर्क के बल पर कोरोना की टेस्टिंग करा भी लेता है तो उसे उसकी रिपोर्ट नहीं दी जाती। मौखिक रूप सूचना दे दी जाती है या फिर पांच-छह या सप्ताह-दो सप्ताह बाद एक नोटिस भेज दिया जाता है। अभी कुछ ही दिनों पहले दिल्ली के प्रमुख अखबार में काम करने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार ने बिहार में अपने दिवंगत पिता के ‘कोरोना-पाजिटिव’ होने के सरकारी नोटिस को सार्वजनिक किया, जो उनकी मौत के काफी बाद मिला। उनके पिता ने 19 अप्रैल को पटना में अपनी टेस्टिंग कराई। उनकी मौत के दो सप्ताह बाद उन्हें एक संदेश के जरिये बताया गया कि वे कोरोना पाजिटिव हैं और अविलंब अपने निकट के किसी डाक्टर या अस्पताल से संपर्क करें और कोरोना प्रोटोकॉल का पालन करें। ऐसे उदाहरण लाखों में होंगे। अंग्रेजी के बड़े अखबार के स्थानीय संपादक रहे मेरे एक अन्य मित्र के भाई-भाभी ओडिशा स्थित अपने पैतृक घर में बीमार पड़े। उन्होंने कोरोना टेस्ट कराने की बहुत कोशिश की क्योंकि उन दोनों के सारे लक्षण कोविड-19 संक्रमण जैसे थे। पर वे कामयाब नहीं हो सके। दिल्ली मे रहने वाले अपने पत्रकार-भाई को उन्होंने संपर्क किया। भाई ने जिले के कलक्टर सहित कुछ जिम्मेदार लोगों को जब इस बारे में कड़ी भाषा में ट्विट किया तब जाकर उनके भाई-भाभी का कोरोना-परीक्षण हो पाया। दोनों कोरोना पाजिटिव पाये गये। लेकिन उन्हें किसी तरह की लिखित रिपोर्ट नहीं दी गई। अपने भाई के चलते उन्हें ओडिशा स्थित अपने शहर के अस्पताल में जगह मिल गई। यह उनका सौभाग्य था। दोनों अब स्वस्थ हैं। पर देश में सभी लोग इतने सौभाग्यशाली नहीं। देश में हर रोज हजारों लोग सिर्फ अस्पताल, डाक्टर या आॉक्सीजन की अनुपलब्धता के चलते बेमौत मारे जा रहे हैं। अगर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ऐसी मौतों को जनसंहार की संज्ञा दी है तो यह बिल्कुल सही और सटीक है। दुनिया के कई देशों में इससे बहुत कम लापरवाही या कुव्य़वस्था के चलते वहां की सरकारों या कम से कम स्वास्थ्य मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा। पर भारत में इस ‘जनसंहार’ की जवाबदेही किसी की नहीं! 

कोविड-19 को जिस तरह हमारी सरकार ने शुरू से ही गैर-गंभीरता और आपराधिक-लापरवाही से लिया, उसकी आज दुनिया भर में निंदा हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के विशेषज्ञ वैज्ञानिक सहित कई बड़े संस्थान मान रहे हैं कि भारत में कोविड-19 से होने वाली मौतों और संक्रमित लोगों की संख्या का सरकारी आंकड़ा सच से बहुत कम है। इसकी वजह है, सरकारी एजेंसियां द्वारा संक्रमित लोगों की जांच न करना या जांच के बाद भी उन्हें रिकॉर्ड पर न डालना। मौतों के बारे में तो सरकारी एजेंसियों की तरफ से और भी आपराधिक-घपलेबाजी की जा रही है। गांवों-कस्बों और छोटे-मझोले शहरों की मौतों को बिल्कुल नजरंदाज किया जा रहा है। यह उस देश में हो रहा है, जहां की सत्ताधारी पार्टी ने बीते 21 फरवरी को ही बाकायदा प्रस्ताव पारित कर दावा किया कि प्रधानमंत्री मोदी की कुशल अगुवाई में भारत ने दुनिया के सामने कोविड-19 से निपटने का कामयाब मॉडल पेश किया है। भारत ने कोरोना से अपने संघर्ष में सफलता पाई है। लेकिन भारत का सच तो अब पूरी दुनिया के सामने है।

एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी का यह गौरव-गान, कोरोना को हराकर भारत को कोरोना से मुक्त कराने का उनकी पार्टी का दावा और दूसरी तरफ अप्रैल-मई की इन गर्मियों में भारत के गावों, कस्बों, शहरों और महानगरों में आॉक्सीजन और अस्पतालों में बेड की कमी से हर रोज मरते हुए हजारों लोग! इनमें स्वयं मोदी जी की अपनी पार्टी के अनेक सदस्य, उनके अपने राज्य-गुजरात और चुनाव क्षेत्र-वाराणसी के लोग भी शामिल हैं। गुजरात में बदइंतजामी का वही हाल है जो देश के अन्य हिस्सों में है। सन् 2013-14 में प्रधानमंत्री पद के अपने दावे को पुख्ता बताने के लिए मोदी जी ने पूरे देश के लिए गुजरात के शासन को मॉडल बताया था। उनका कथित गुजरात मॉडल पूरे देश में प्रचारित हुआ। सन् 2014 के संसदीय चुनाव में नरेंद्र मोदी का सबसे प्रमुख प्रमुख नारा था-अच्छे दिन आयेंगे । उन्होंने अपनी हर चुनाव सभा, रैली और रोड-शो में लोगों से कहा था कि वह प्रधानमंत्री बने तो भारत के लोगों के लिए अच्छे दिन आयेंगे  अब यह बताने की जरूरत नहीं कि उनके शासन के अब तक के 7 साल भारत की जनता के लिए कितने बुरे दिन साबित हुए! 

एक तरफ दुनिया के अनेक देशों की सरकारों ने कोविड-19 के संक्रमण से अपने लोगों को बचाने के लिए हर संभव कदम उठाये और पूरी संवेदनशीलता व जवाबदेही से काम किया। उन्हें अंततः कामयाबी भी मिली। इसमें न्यूजीलैंड, वियतनाम, क्यूबा, स्विट्जरलैंड, नार्वे, फिनलैंड, फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, जापान, सिंगापुर, श्रीलंका, भूटान, बांग्लादेश, दोनों कोरिया और चीन जैसे हर आकार के देश शामिल हैं। पर भारत की मौजूदा सरकार ने आपदा में संवेदनशीलता और जवाबदेही का व्यवहार नहीं किया। इस दौरान उसका सबसे प्रमुख नारा था-आपदा में अवसर । इस नारे को स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने एक संबोधन में लगाया था। कौन जाने बेतहाशा हो रही मौतों, राष्ट्रव्यापी मातम, करोड़ों लोगों की बेरोजगारी और बेबसी के बीच मोदी सरकार कैसा अवसर तलाश रही है? स्वतंत्र भारत में हमने महामारियों से निपटने के बारे में शायद ही कभी गंभीरतापूर्वक सोचा या रणनीति बनाई। अगर सोचा होता तो भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र का इस कदर निजीकरण नहीं होता, जिसे मोदी सरकार ने आज तकरीबन 87 फीसदी पहुंचा दिया है। हमारे समाज और सियासत में कभी मुखर आवाजें नहीं उठीं कि हमारी निर्वाचित सरकारें देश की समूची आबादी के स्वास्थ्य पर महज डेढ़ से दो फीसदी ही क्यों खर्च करती रही हैं? दूसरी तरफ दुनिया के विकसित और कई विकासशील देश भी स्वास्थ्य क्षेत्र पर अपने जीडीपी का 6 से 14 फीसदी खर्च करते रहे हैं। यही वे देश हैं, जिन्होंने कोरोना से अपने देशवासियों को अपेक्षाकृत सफलतापूर्वक बचाया है।

भारत का क्या होगा? क्या यह महामारी हमारी सरकार के किसी प्रयास के बगैर अपने आप चली जायेगी? कब तक यह मौत का तांडव मचाती रहेगी? आजाद भारत में महामारी का यह दंश सौ साल पहले के उस काले अध्याय को तो नहीं दोहरायेगा, जब ब्रिटिश-राज के दौरान आये स्पेनिश फ्लू के चलते पूरी दुनिया में सबसे अधिक लोग भारत में मरे थे! सरकार कोरोना के मोर्चे पर बिल्कुल किंकर्तव्यमूढ़ है। लेकिन बड़े नेताओं की ऐश बढ़ाने, अनुत्पादक खर्च करने और देश की परिसंपत्तियों के अंधाधुंध निजीकरण के मोर्चे पर दिन-रात काम कर रही है। मौत और मातम के मौजूदा दौर में भी सरकार 20 हजार करोड़ खर्च कर नये प्रधानमंत्री निवास, राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति के लिए नये आलीशान राजभवन, संसद की नयी बिल्डिंग और मंत्रालयों के लिए नये दफ्तर का पूरा सेंट्रल विस्ता बनवा रही है। देश के सार्वजनिक क्षेत्र के सभी प्रमुख उपक्रमों को अपने पसंदीदा उद्योगपति घरानों को बेच रही है और देश की बची-खुची अर्थव्यवस्था का सत्यानाश कर रही है। क्या यही है मोदी सरकार के आपदा में अवसर और अच्छे दिन आयेंगे जैसे दो नारों का सच?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार निजी हैं।)  सौज- न्यूजक्लिक

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