कोरोना: मानसिक स्वास्थ्य को ले कर वैश्विक चिंता और भारत के हालात

शशि शेखर

हाल ही में लैंसेंट साइकियाट्री जर्नल में मानसिक स्वास्थ्य को ले कर एक रिपोर्ट छपी है. यूनिवर्सिटी के साइकियाट्री डिपार्टमेंट के हेड प्रोफेसर इड बुलमोर और उनकी टीम ने इंग्लैंड में कोविड-19 संक्रमण के बीच आयोजित एक सर्वे के आधार पर इस रिपोर्ट को तैयार किया है। बुलमोर कहते हैं कि सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यही है कि अभी और भविष्य में भी कोरोना महामारी का मानसिक स्वास्थ्य पर बड़ा और विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।

उनका सुझाव है कि आम लोगों, जोखिम समूहों और यहां तक कि हेल्थ केयर प्रोफेशनल्स के मानसिक स्वास्थ्य की रीयल टाइम मॉनिटरिंग किए जाने की सख्त जरूरत है। रिसर्च के मुताबिक, कोरोना महामारी के कारण बढती बेरोजगारी या रोजगार छिनने का डर, परिवार से दूर होना, अर्थव्यवस्था की खराब हालत, क्वरंटाइन या आइसोलेशन में रहने के कारण आम लोगों पर दीर्घकालिक नकारात्मक मानसिक असर होगा।

इसके लिए वैज्ञानिक पूर्व के कुछ उदाहरण बताते हैं। मसलन, 2003 में आए सार्स महामारी या सिएरा लियोन में इबोला वायरस से प्रभावित हुए लोगों में निराशा, चिंता या पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसॉर्डर (पीटीएसडी) के लक्षण पाए गए। यूनिवर्सिटी ऑफ ग्लास्गो के प्रोफेसर रोरी ऑ’कॉनर तो ये भी निष्कर्ष देते हैं कि सार्स महामारी के बाद 65 साल से ऊपर के लोगों में आत्महत्या की दर 30 प्रतिशत से भी अधिक बढ़ गई थी। इस टीम ने बताया कि उन नीतियों के प्रभाव की भी समीक्षा करने की जरूरत है जो कोरोना महामारी को रोकने के लिए बनाई गई हैं।

हाल ही में, न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में एक रिसर्च पेपर प्रकाशित हुआ है। यूनिवर्सिटी ऑफ ओक्लाहोमा के साइकियाट्री प्रोफेसर बेट्टी पेफरबॉम ने अपने रिसर्च पेपर में कुछ ऐसे कारकों की पहचान की हैं, जो लोगों में तनाव और निराशा बढाने का काम करते है। उन्होंने बताया कि महामारी की अनिश्चितता, परीक्षण और उपचार के संबंध में संसाधनों में आने वाली भारी कमी और इससे आम लोगों और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की सुरक्षा से खिलवाड़, ऐसे सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा उपायों का इस्तेमाल जो अब तक लोगों के लिए अपरिचित रहे हो (भारत के सन्दर्भ में क्वरंटाइन और सोशल डिस्टंसिंग जैसे शब्द) और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बाधित करते हो, लगातार होता वित्तीय नुकसान और सरकारी प्राधिकारों की तरफ से आने वाले परस्पर विरोधी बयान ऐसे ही तनाव पैदा करने वाले कारक हैं और ये निश्चित रूप से कोविड-19 संबधी भावनात्मक निराशा और मनोविकारों को तीव्र करने में योगदान देंगे। वो ये सुझाव भी देते हैं कि कोविड-19 मरीजों का उपचार करते वक्त हेल्थ केयर वर्कर्स को इन भावनात्मक पक्षों का भी निदान करना होगा, अन्यथा नतीजे बहुत भयावह हो सकते हैं।

अभी चीन में कोविड-19 मरीजों का इलाज कर रहे हेल्थ केयर वर्कर्स पर भी अध्ययन किया और पाया कि इन वर्कर्स ने चिंता, निराशा, नींद न आने जैसे लक्षण की बात स्वीकारी है। अब भारत में हेल्थ केयर वर्कर्स को ले कर इस तरह का कोई अध्ययन हुआ हो, इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं है। लेकिन, वैश्विक महामारी के दौर में वैश्विक चिंताओं और समस्याओं से क्या हम अछूते रह सकते है? शायद नहीं।

हेल्थ सर्विस के साथ ही क्राइसिस काउंसेलर और मानसिक स्वास्थ्य सलाहकारों की व्यवस्था भी बड़े पैमाने पर किए जाने की जरूरत होगी। क्राइसिस काउंसलर और मानसिक स्वास्थ्य सलाहकारों की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है, इसे एक डेटा से समझा जा सकता है। लॉस एंजल्स टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, कैलिफोर्निया स्थित एक गैर-लाभकारी संस्था के क्राइसिस काउंसलर्स के पास मार्च महीने में 1800 कॉल्स आए, जबकि फरवरी महीने में ये संख्या महज 20 थी। अमेरिका में ट्रंप प्रशासन ने ये घोषणा की है कि मेडिकल इंश्योरेंस देने वाली कंपनियां मेंटल हेल्थ केयर भी कवर करेंगी। टेलीमेडिसिन के जरिये लोग इस स्वास्थ्य सुविधा का इस्तेमाल करेंगे।

भारत में आयुष्मान योजना आएगी काम?

अब यहां सवाल है कि क्या भारत में इस तरह के प्रयोग हो सकते है? अच्छी बात ये है कि आयुष्मान भारत योजना के तहत करोडों लोगों के पास स्वास्थ्य बीमा मौजूद है। तो क्या उस बीमा में मेंटल हेल्थ को कवर नहीं किया जा सकता है, खास कर इस वक्त जब देश महामारी की गिरफ्त में है। ये संभव है, बशर्ते इसके लिए कुछ नीतिगत निर्णय ले लिए जाए और एक खास अवधि के लिए गैर सरकारी संस्थाओं की सेवा लेने की कोशिश की जाए। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस मुद्दे को संबोधित करते हुए कुछ गाइडलाइंस जारी की हैं, जिनका पालन किया जा सकता है। मसलन, क्वरंटाइन में रखे गए लोगों के साथ किस तरह से पेश आना है या कोविड-19 मरीजों का इलाज करते वक्त किन बातों का ध्यान रखना चाहिए।

भारत के सन्दर्भ में यदि हम देखें तो लॉकडाउन के दौरान महानगरों से भारी संख्या में प्रवासी मजदूरों का पलायन हुआ। इसकी कई वजहें थी. लेकिन, मुख्य रूप से ये रोजगार छिनने का डर और परिवार से दूर होने या परिवार चलाने की आशंका के कारण भी थी। दूसरी तरफ, कृषि व्यवस्था पर निर्भर लोग भी उहापोह की स्थिति में हैं. सरकारें भले ही उनके लिए आर्थिक उपायों की घोषणा कर रही हैं, लेकिन इस सब के बीच, देश की तकरीबन आधी आबादी से भी अधिक (यदि इसमें गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों को शामिल कर ले) आर्थिक कारणों की वजह से एक नकारात्मक मानसिक स्वास्थ्य अवस्था में जा सकती हैं। तो सवाल है कि क्या कोरोना महामारी से सिर्फ आर्थिक-सामाजिक उपायों के जरिए ही लड़ा जा सकता है? लड़ा तो जा सकता है, लेकिन इसकी कीमत यदि खराब मेंटल हेल्थ हो तो फिर ये घाटे का सौदा बन जाएगा। इसलिए आवश्यक है कि इस मसले पर एक तत्काल एक राष्ट्रव्यापी नीति बनाई जाए. आज दुनिया अपनी अर्थव्यवस्था बचाने के जद्दोजहद में उलझी हुई है. लेकिन, मानसिक तौर पर एक कमजोर और निराश समाज के साथ हम अपनी अर्थव्यवस्था बचा भी ले तो अंतत:, हमारे हाथ कुछ आने को है नहीं।

सौ, ड़ॉउनटुअर्थ

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