आंबेडकर और आरएसएस की कथित निकटता की पोल खोलता चुनाव आयोग का आंकड़ा – अरविन्द कुमार

आरएसएस के प्रचारक कई वर्षों से ऐसा दावा करते आए हैं कि आंबेडकर उनके संगठन के कार्यक्रम में शामिल हुए थे और उनका रुख इस संगठन के प्रति सकारात्मक था. लेकिन अपने दावे को साबित करने के लिए आरएसएस विचारकों ने कभी कोई भी तथ्य उपलब्ध नहीं कराए.

क्या डॉ. भीमराव आंबेडकर ने आरएसएस या उसके किसी अनुषंगी संगठन से कोई संवाद स्थापित किया था या कभी मिलकर काम किया था? आरएसएस के प्रचारक कई वर्षों से ऐसा दावा करते आए हैं कि आंबेडकर उनके संगठन के कार्यक्रम में शामिल हुए थे और उनका रुख इस संगठन के प्रति सकारात्मक था. लेकिन अपने दावे को साबित करने के लिए आरएसएस विचारकों ने कभी कोई भी तथ्य उपलब्ध नहीं कराए.

पिछले साल अक्टूबर महीने में यह सवाल फिर उठा कि ‘महात्मा गांधी और आंबेडकर ने संघ संस्थापक हेडगेवार के समकालीन होने के बावजूद उनके साथ बातचीत क्यों नहीं की’. इस बीच, 15 अप्रैल को आरएसएस से जुड़े इंद्रप्रस्थ विश्व संवाद केंद्र के सीईओ-अरुण आनंद ने एक वीडियो जारी कर डॉ. आंबेडकर के आरएसएस से जुड़ाव को लेकर छह प्रमुख दावे किये-

1. 1935 में आंबेडकर ने पुणे में आरएसएस की एक शाखा का भ्रमण किया था.

2. 1939 में आंबेडकर ने आरएसएस के पहले सरसंघचालक केशव बलिराम हेडगेवार के आधिकारिक आमंत्रण पर पुणे के उसके ट्रेनिंग कैम्प का अवलोकन किया था.

3. 1949 के सितम्बर महीने में आरएसएस के दूसरे सरसंचालक एमएस गोलवलकर कानून मंत्री डॉ आंबेडकर से मिलने दिल्ली आए थे, जिसके बाद उन्होंने महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबंध को हटवाने में मदद की.

4. 1952 के पहले आम चुनाव में आंबेडकर की शिड्यूल्ड कास्ट फ़ेडरेशन (एससीएफ) ने आरएसएस के अनुषंगी संगठन भारतीय जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी की पूर्ववर्ती पार्टी) के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन करके मध्य प्रदेश में चुनाव लड़ा था.

5. 1953 में मोरोपंत पिंगले के नेतृत्व में आरएसएस के वरिष्ठ नेता औरंगाबाद में आंबेडकर से मिले थे, जिसमें आंबेडकर ने उनको अपने काम में तेज़ी लाने के लिए कहा था.

6. 1954 में संघ के प्रचारक दत्तोपंत ठेंगडी को आंबेडकर ने भंडारा उपचुनाव में अपना इलेक्शन एजेंट बनाया था. इतना ही नहीं डॉ. आंबेडकर ने ठेंगड़ी को अपने संगठन- शिड्युल कास्ट फ़ेडरेशन का सेक्रेटरी भी बनाया था

चूंकि आरएसएस के इन दावों की तथ्यों के आलोक में काफी समीक्षा हो चुकी है, अरुण आनंद के इन दावों को बाबा साहेब के लेखों और भाषणों के सम्पादक प्रोफेसर हरी नारके ने यह कहते हुए खंडन किया है कि इन बातों का ज़िक्र कहीं भी आंबेडकर की लिखी किताबों, भाषणों और अख़बारों में नहीं मिलता है, बल्कि उनका लेखन निरंतर आरएसएस के विचारों को नकारता है. प्रोफेसर नारके के जवाब में आरएसएस, दिल्ली की कार्यकारिणी के सदस्य राजीव तुली ने यह कह कर संदेह पैदा करने की कोशिश की कि इतिहास में मौखिक बातों को भी तथ्य के तौर पर शामिल किया जाता है और आंबेडकर के बारे में जिन बातों का लिखित प्रमाण नहीं है, उनके बारे में ओरल हिस्ट्री मौजूद है.

तुली की ये बात सही है कि ओरल एविडेंस का इतिहास लेखन में महत्व है, लेकिन वे जानबूझकर ये नहीं बताते कि ओरल एविडेंस का महत्व सिर्फ उन स्थिति में है जहां लिखित और अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद न हों. जहां लिखित या पुरातात्विक साक्ष्य मौजूद हों और ओरल साक्ष्य उसके विपरीत दिशा में इंगित कर रहे हों तो लिखित साक्ष्य को ही प्राथमिकता मिलेगी.

आरएसएस बाबा साहेब के जीवनकाल के उस दौर (1935-1956) की बात कर रहा है, जब लिखित साक्ष्य के अभाव की बात करना हास्यास्पद है. राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस और पूना पैक्ट के बाद बाबा साहेब को राष्ट्रीय मीडिया भी कवर करने लगा था. बेशक वह उन्हें अक्सर नकारात्मक रोशनी में दिखाता था. लेकिन उनके जीवन की किसी बड़ी घटना के बारे में रिपोर्टिंग न हो, ये मुमकिन नहीं है. इसके अलावा भी उनके जीवन से जुड़े कई और तरह के लिखित साक्ष्य मौजूद हैं.

चुनाव साथ लड़ने का संघ का दावा

बहरहाल, प्रस्तुत लेख में संघ के सिर्फ इस एक दावे की पड़ताल की जाएगी कि क्या डॉ. आंबेडकर ने आरएसएस के संगी संगठन भारतीय जनसंघ के साथ मिलकर मध्य प्रदेश विधानसभा का चुनाव लड़ा था. चुनाव संबंधी आंकड़े मौजूद हैं और इस बारे में असत्य या अर्धसत्य बात कहने की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए. संघ की बाबा साहेब के बारे में पूरी स्थापना जिन बातों पर टिकी है, उनमें से साथ चुनाव लड़ने वाली बात सबसे महत्वपूर्ण है और अगर ये बात असत्य या तथ्यहीन साबित हो जाती है तो उसकी बाकी बातें अपने आप ही संदेह के दायरे में आ जाएंगी क्योंकि उनके लिए प्रमाण वैसे भी नहीं दिए गए हैं.

दार्शनिक कार्ल पॉपर ने इस विधि को फॉल्सीफिकेशन कहा है. उदाहरण के लिए अगर कोई कहे कि दुनिया के सारे हंस सफेद हैं तो इसे साबित करने के लिए दुनिया के हर हंस का रंग जांचने की जरूरत नहीं है. इसकी जगह एक ऐसा हंस खोजने की जरूरत है, जिसका रंग सफेद नहीं है. ऐसा हंस मिलते ही दुनिया के सारे हंसों के सफेद होने की बात गलत साबित हो जाती है.

मध्य प्रदेश विधानसभा के पहले चुनाव का डाटा

आरएसएस के विचारक कह रहे हैं कि इस चुनाव में शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन और भारतीय जनसंघ पार्टनर थे.यदि दो पार्टियां चुनाव के लिए आपस में गठबंधन करेंगी, तो इसका सबसे बड़ा प्रमाण ये होगा कि वे एक ही सीट पर एक दूसरे के मुकाबले नहीं लड़ रही होंगी.इस चुनाव के संबंध में ये बता देना आवश्यक है कि उस समय इस राज्य में वर्तमान छत्तीसगढ़ के अलावा विदर्भ के कुछ इलाके भी शामिल थे. चुनाव 1951 में घोषित हुए और मतदान 1952 में हुए.

मध्य प्रदेश विधानसभा के 1952 के चुनाव परिणाम को देखने पर पता चलता है कि राज्य विधानसभा की दो सदस्यीय सीटों- वासिम, दरयापुर, अमरावती, रामटेक, नागपुर-IV, हरदा, सौसर, जबलपुर-1, खुराई, शंकरपुर सिंदेवाही और आरंग खोरा पर शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन और भारतीय जनसंघ दोनों के प्रत्याशी खड़े थे. दो सदस्यीय सीटों पर दोनों पार्टियों का चुनाव लड़ना इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि उनमें कोई गठबंधन नहीं था.

इस बात की पुष्टि एक सदस्यीय सीटों के चुनाव परिणाम से और साफ़ हो जाती है. उसी चुनाव में काटोल, ब्रह्मपुरी, हिंगना, कम्पति, नागपुर-1 और महासमुंद विधानसभा सीटों पर शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन और भारतीय जनसंघ दोनों ने ही एक दूसरे के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा. चुनाव आयोग का डाटा गठबंधन के दावे को ख़ारिज करता है, बशर्ते कोई यह दावा न शुरू कर दे कि गठबंधन केवल लोकसभा चुनाव के लिए रहा होगा, विधानसभा चुनाव के लिए नहीं, भले ही दोनों का वोट एक ही समय पर, एक ही दिन हुआ हो. लोकसभा चुनाव में भी दोनों दलों के बीच गठबंधन का कोई साक्ष्य नहीं है.

ठेंगड़ी के दावे के गलत होने का मतलब

चुनाव आयोग के डाटा के आधार पर यह बात साबित तो होती है कि शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन और भारतीय जनसंघ के बीच मध्य प्रदेश में चुनाव गठबंधन का ठेंगड़ी का दावा भ्रामक है. अब सवाल उठता है कि ठेंगड़ी ने ऐसा क्यों लिखा होगा? इसका एक जवाब यह है कि आरएसएस से जुड़े लेखकों के बारे में अक्सर यह आरोप लगता है कि वो ऐसे तथ्यों के आधार पर किसी बात का दावा करते हैं जो कि सेल्फ़-रेफ़रेंसिय हो. सेल्फ़-रेफ़रेंसियल का मतलब यह होता है कि किसी भी दावे के बारे में पहले खुद ही सूचना फैलाना, फिर उस पर किताब लिख देना, और अंत में उस किताब को ही स्रोत बनाना.

ठेंगड़ी ने जिस परिप्रेक्ष्य में लिखा है, उससे ऐसा नहीं लगता कि वह कोई सेल्फ़-रेफेरेंसियल साक्ष्य बनाने की कोशिश कर रहे थे. बल्कि इससे एक दूसरी बात की तरफ़ इशारा मिलता है. दरअसल 1980 के बाद जब डॉ. आंबेडकर के विचारों की लोकप्रियता बढ़ी तो कई लोग खुद को आंबेडकर का सहयोगी बताने लगे. इसका ज़िक्र मान्यवर कांशीराम ने 1979 से 1986 तक प्रकाशित अपने प्रकाशन ऑप्रेस्ड इंडियंस के सम्पादकीय लेखों में कई बार किया है. कांशीराम बताते हैं कि आंबेडकर के परिनिर्वाण के बाद उनका आंदोलन तेज़ी से बिखर गया. लेकिन जब से उसको फिर से संगठित करने की कोशिश की जा रही है, तब से ऐसे लोगों की संख्या बढ़ गयी है जो कि अपने को आंबेडकर का सहयोगी बताते हैं.मुमकिन है कि ठेंगड़ी भी उन लोगों में शामिल हों. ऐसे लोगों की किताब को साक्ष्य मानकर किसी तथ्य को ऐतिहासिक साबित नहीं किया जा सकता.

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.) -सौ दप्रिंट

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