रोजा लक्जमबर्ग ने मार्क्स के अध्ययन और पूंजीवादी व्यवस्था या उत्पादन पद्धति के उनके विश्लेषण के परिणामों पर लिखते हुए यह टिप्पणी की थी कि पूंजीवाद अपने चरम विकास की स्थिति में दो ही दिशाओं में जा सकता है : समाजवाद या बर्बरतावाद।
स्वयं मार्क्स ने कभी भी इतिहास और भविष्य को एक निश्चित अंतर्निहित दिशा में बढ़ते जाने की बात नहीं की है। यह एक भ्रम फैलाया गया कि मार्क्स यह कहते थे कि भविष्य में पूंजीवाद के स्थान पर समाजवाद आयेगा ही। और चूंकि भविष्य को एक निश्चित दिशा में गति करना है ऐसा उनके नाम पर घोषित कर दिया गया था और अब तक ऐसा नहीं हुआ, या जहां ऐसा प्रयास किया गया वहां भी वह असफल हो गया है इसलिए मार्क्स अप्रसांगिक हो गये हैं। यह और इस तरह की तमाम बातें मार्क्स को समझें बगैर ही कहीं जाती हैं और जानबूझ कर एक भ्रमात्मक प्रचार किया जाता है।
दर असल मार्क्स ने पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था और उस व्यवस्था में निहित अंतर्विरोधों का अध्ययन और विश्लेषण किया था। चूंकि पूंजीवादी व्यवस्था ऐतिहासिक विकास की एक प्रक्रिया में काल के एक निश्चित खंड में विकसित हुई थी। यह सामंतवादी उत्पादन पद्धति और उत्पादन के सामाजिक संबंधों के बीच बढ़ते हुए अंतर्विरोधों के कारण पैदा हुयी थी। वे ऐतिहासिक काल में अब तक विकसित हो चुकीं उत्पादन पद्धतियों का भी अध्ययन और विश्लेषण करते हैं और इस दौरान वे यह पाते हैं कि हर नई उत्पादन पद्धति अपने पूर्व में प्रचलित उत्पादन पद्धति में निहित अंतर्विरोधों के लगातार बढ़ते जाने से उपजी भौतिक-राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक दशाओं और इनके बीच से एक नये उत्पादक वर्ग के उभरने से ही पैदा होती है। यह निष्कर्ष उन्होंने सामंतवादी व्यवस्था के पतन और पूंजीवाद के उदय के संधिकाल की स्थितियों से निकाला था। इसीलिए उन्होंने शायद पहली बार यह कहा था कि पूंजीवादी व्यवस्था अपने उदयकाल में एक प्रगतिशील व्यवस्था थी। ऐसा इसलिए कि इसने सामंतवादी जड़ता को अनुत्पादक होती जा रही व्यवस्था के पतन का मार्ग प्रशस्त किया था।
अपने ऐतिहासिक विकासक्रम के अध्ययन के दौरान वे जिस द्वंद्वात्मक अंतर्विरोध और ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत को विकसित करते हैं, उसके आधार पर वे पूंजीवाद का भी अध्ययन और विश्लेषण करते हैं। यह विश्लेषण अब तक सबसे अचूक और सटीक विश्लेषण है। उन्होंने पूंजीवाद के अपने अध्ययन के दौरान यह पाया कि इस व्यवस्था में अनेक गहरे अंतर्विरोध उपस्थित हैं। इन अंतर्विरोधों के चलते यह व्यवस्था अंततः अपने अंतिम परिणाम तक पहुंचेगी। और जब यह अपनी अंतिम परिणति पर पहुंचेगी तो भविष्य क्या होगा? इस क्या होगा के जबाव में वे दो स्थितियों की संभावना पर विचार करते हैं - समाजवाद या बर्बरतावाद। अब तक यह कहा जाता रहा कि समाजवाद असंभव है। असफल है। पूंजीवाद ही अंतिम व्यवस्था है। इसका कोई विकल्प नहीं है।
समाजवाद जो कि पूंजीवाद के बाद की एक मानवीय परियोजना होनी चाहिए, जिसके लिए मार्क्स ने वर्ग संघर्ष की बात की और कहा कि यदि इस वर्ग संघर्ष में मजदूर या सर्वहारा वर्ग जीतता है तो वह समाजवाद की ओर बढ़ेगा और फिर जब समाजवाद ठीक से स्थापित हो जायेगा तो यही वर्ग साम्यवाद की वर्गहीन समाज व्यवस्था की ओर अग्रसर होगा। परंतु यही होगा ऐसा बिल्कुल नहीं है। यह एक संभावना है जिसकी अपेक्षा मार्क्स इसलिए करते हैं क्योंकि इस पूंजीवादी व्यवस्था का जो सबसे तीखा द्वंद्वात्मक अंतर्विरोध है वह श्रम और पूंजी के बीच ही है और हमेशा रहेगा। जब भी श्रम और पूंजी के बीच संघर्ष होगा और उसमें श्रम की विजय हुई तो समाजवाद और फिर साम्यवाद की कोशिश यह वर्ग करेगा। ऐसा वे इसलिए कह सके क्योंकि श्रमिक वर्ग व्यक्तिगत संपत्ति संबंधों के कारण शोषण के शिकार हैं और जब वे इसके खिलाफ संघर्ष करेंगे तो सबसे पहले वे इस मूल कारण यानि व्यक्तिगत संपत्ति संबंधों और उत्पादन के साधनों पर निजी
स्वामित्य के अधिकार का उन्मूलन करेंगे और जब ऐसा होगा तो जो व्यवस्था स्थापित होगी उसे समाजवाद नाम से अभिहित किया। समाजवाद कोई ऐतिहासिक नियतिवादी परिणति नहीं है। यह उस व्यवस्था का एक नामकरण है जो पूंजीवादी व्यवस्था को पतन की ओर ले जाने वाली ताकतों के स्वरूप में निहित है। मार्क्स उस स्थिति की परिणति तक पहुंचने का प्रयास करते हैं जहां तक पूंजीवाद के अंतर्विरोध उसे ले जा सकते हैं। यही कारण है कि उन्होंने समाजवादी समाज की कोई रूपरेखा प्रस्तुत नहीं की है। वे यह मानते थे कि उस रूपांतरण तक पहुंचने वाले लोग अपने समय और भौतिक परिस्थितियों और समाज के अनुकूल अपनी क्रांति को अपने तरीके से रूपायित करने में सक्षम होंगे। उनके लिए कोई बनी बनाई योजना प्रस्तुत कर देना उनकी क्षमताओं और संभावनाओं को प्रश्नांकित करना होगा। ऐसा मार्क्स कतई नहीं कर सकते थे। वे कभी भी बनी बनाई योजना को थोपने के पक्षधर नहीं थे। यह स्वतंत्रता के लोगों के अपने चयन के अधिकार के खिलाफ होगा।
अब तक संपूर्ण विश्व मार्क्स के निष्कर्ष के एक ही आयाम पर जोर देकर उसे असफल घोषित करते रहे हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि समाजवाद की संभावना समाप्त हो गई। पूंजीवादी व्यवस्था के अंतिम संस्कार को यदि संघर्ष पूर्ण तरीके से प्रतिस्थापित किया जायेगा तो जो परिणाम होगा वह समाजवाद के रूप में सामने आयेगा, परंतु यदि यह पूंजीवाद बिना वर्गसंघर्ष के अपनी अंतिम परिणति तक पहुंचने लगा तो इसकी दिशा होगी बर्बरतावाद की ओर। इस विकल्प को भी मार्क्स ने खुला रखा था। जैसा कि ‘भूमंडलीय पूंजीवाद के विरुद्ध आलोचनात्मक शिक्षा’ पाओला ओलमान की पुस्तक के प्राक्कथन के पृष्ठ २५ पर लिखा है – “मार्क्स भली-भांति जानते थे कि पूंजीवाद के उत्तराधिकारी के रूप में बर्बरतावादका भी उसी तरह जन्म हो सकता है जिस तरह समाजवाद का।” यह बहुत आश्चर्यचकित करने वाली बात है मार्क्स की पूंजी की परियोजना के संबंध में, जो उपर्युक्त कथन से आगे उल्लिखित है-“वस्तुत: उनका तर्क है कि अगर मार्क्स को यह भय नहीं होता कि पूंजीवाद के उत्तराधिकारी के रूप में बर्बरतावाद के सूक्ष्म रूप आ सकते हैं तो वह अपनी विराट और विश्व को झकझोरने वाली बौद्धिक परियोजना को हाथ में लेने के लिए प्रेरित नहीं होते।” मुझे लगता है यह मार्क्स के गहरे और विशद अध्ययन के बिना कहना संभव नहीं है कि मार्क्स ने इतनी बड़ी जीवन को पूरी तरह खपा देने वाली परियोजना यानि ‘पूंजी’ के छह खंड लिखने की योजना (हालांकि वे तीन ही खंड लिख सके) बर्बरतावाद के उदय के डर के कारण बनाई। वे पूंजीवाद के अपने आलोचनात्मक विश्लेषण में उसके गहरे अमानवीय होते जाने वाले अंतर्विरोधों के अंतिम परिणति तक पहुंचने की संभावना से परेशान और विचलित थे कि यदि यह संभव हुआ तो मानवता का क्या होगा? ‘जग जीवन में रावण जय भय’ निराला की राम की शक्ति पूजा की यह पंक्ति मार्क्स के विचलन को भी रेखांकित कर रही है। उनके सामने सवाल समाजवाद का उतना नहीं था जितना बर्बरतावाद की स्थिति तक पूंजीवाद के विकास का था। इसीलिए मैं उनके इस दूसरे आयाम पर विचार करने की कोशिश कर रहा हूं।
मार्क्स अपने अध्ययन और विश्लेषण की तर्क पद्धति और सैद्धांतिकी में बिल्कुल स्पष्ट थे। वे उन तमाम संभावनाओं को देख सकते थे जो इस व्यवस्था के विकास की आखिरी मंजिल पर उदित हो सकती थीं।
अब हम रोजा लक्जमवर्ग के बताये गये दो रास्तों में दूसरे पर भी विचार कर सकते हैं। अर्थात क्या हम बर्बरतावाद की ओर बढ़ रहे हैं? यह पूंजीवाद की सहज विकास की दिशा है। समाजवाद की स्थापना के लिए सर्वहारा वर्ग को हिरावल दस्ते के रूप में आगे बढ़कर संघर्ष करना होगा। इस संघर्ष के बिना समाजवाद की स्थापना संभव नहीं है, परंतु बर्बरतावाद पूंजीवाद की अंतिम अवस्था के रूप में विकसित होने लगा है। हमें मार्क्स के निष्कर्ष के इस दूसरे आयाम पर भी विचार करना चाहिए। मानव सभ्यता के विकास की समाजवादी अवस्था से मार्क्स का क्या मतलब था? इसे उपर्युक्त पुस्तक के प्राक्कथन में इस तरह बताया गया है -” समाजवाद के भविष्य का तात्पर्य है पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया और संपत्ति के मूल्य रूप का उन्मूलन।” इसके विपक्ष यानि बर्बरतावाद की कोई परिभाषा मार्क्स ने नहीं दी है परंतु हम इस परिभाषा को उलट दें तो बर्बरतावाद की परिभाषा उभर सकती है। इस तरह बर्बरतावाद की परिभाषा कुछ इस तरह हो सकती है- उत्पादन के साधनों, प्रक्रिया और संपत्ति के मूल्य रूप पर कुछ पूंजीपतियों को पूर्ण वर्चस्व।”
इस परिभाषा को अंतिम नहीं माने तो भी यह परिभाषा बर्बरतावाद की एक रूपरेखा हमारे सामने प्रस्तुत कर रही है। और इसकी प्रामाणिकता को हम आंकड़ों के माध्यम से प्रमाणित कर सकते हैं। पूरे विश्व की संपत्ति का नब्बे प्रतिशत से अधिक हिस्सा कुल दो सौ से तीन सौ घरानों के पास है। अब हम कल्पना करें और मार्क्स की उस दूरदृष्टि को समझने का प्रयास करें कि वे बर्बरतावाद को किस तरह रूपांतरित होता देख रहे थे। क्या यह बर्बरतावाद का चरम नहीं है जब दुनिया के उत्पादन के साधनों और संपत्ति के मूल्य रूप पर चंद लोगों का कब्जा पूरी तरह से हो चुका है। संपत्ति पर वर्चस्व के आंकड़े समाचार पत्रों और नेट पर उपलब्ध हैं। मैं यहां उनके विस्तार में नहीं जाना चाहता पर संकेत रूप में बर्बरतावाद के हमारे जीवन में पूरी तरह पसर जाने को रेखांकित करना चाहता हूं।
दर असल पूंजीवाद की अंतिम परिणति जब बर्बरतावाद में दिखाई देने लगेगी तो हमारे पास क्या रास्ता बचेगा? इस संभावना पर विचार करना ही होगा। इसके संबंध में हमें इस व्यवस्था की संरचना के उन घटक तत्त्वों के बारे में सोचना होगा कि वे किस स्थिति में होंगे? बर्बरतावाद के अनेक भौतिक रूप हम अपने आसपास देखते हैं। पर संपत्ति का यह केन्द्रीकरण सबसे सघन रूप है। मार्क्स इसी बर्बरतावाद की परिणति के भय से सचेत थे।
पूंजीवाद की बर्बरतावादी परिणति में क्या होगा? क्या हम या वे लोग जो इस व्यवस्था से उत्पीड़ित हैं या उत्पीड़न की स्थितियों को महसूस करते हैं, इस स्थिति में बचे रहेंगे कि इसके खिलाफ संघर्ष कर सकें? यदि संघर्ष करने की स्थिति में रहेंगे तो वह दशा पूर्ण बर्बरता की नहीं होगी। पूर्ण बर्बरता की स्थिति का मतलब यही होगा कि कोई भी उसे बर्बर नहीं कह सकेगा। फिर हम लोग यह महसूस करने की मानसिकता में ही नहीं होंगे कि यह जो हो रहा है वह क्या हो रहा है? और क्यों हो रहा है? जैसे एक दो तीन साल की अबोध बालिका के साथ बलात्कार हो रहा हो तो वह समझ ही नहीं पाती कि उसके साथ यह क्या और क्यूं हो रहा है? इस बलात्कार को बर्बरतापूर्ण बलात्कार कहा जाता है। हम कल्पना करें कि क्या आज भी अधिसंख्यक लोग यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि वास्तव में उनके साथ यह हो क्या रहा है और क्यों हो रहा है?
जो हमारी देह और चेतना पर क्रूरता और अमानवीयता घटित हो रही है वह दर असल क्या है? क्यों हैं? जो दिखाई देता है वह एक इंसान का चेहरा होता है जैसे उस अबोध बालिका को एक इंसान ही दिख रहा होता है।
वह इंसान या घटना जो आंखों से दिखाई दे रही है वह इस पूंजीवादी व्यवस्था का एक उत्पाद है यह अधिकांश लोग नहीं देख पा रहे हैं। यह स्थिति बर्बरता की स्थिति नहीं है क्या? क्या हम मुगालते में तो नहीं है कि हम अभी बर्बरता के युग में नहीं पहुंचे हैं!
बर्बरता का कोई समाजशास्त्र नहीं होता। बर्बरतावाद को हम हमेशा ही गलत परिप्रेक्ष्य में देखते हैं या दिखाया जाता है। खुली हिंसा, क्रूर बलात्कार जैसी घटनाओं को ही हम बर्बरतापूर्ण गतिविधियों से जोड़ने के आदी बना दिये गये हैं। यह भी एक तरह की बर्बरता है कि अधिकांश जनता वास्तविक बर्बरता से अनजान बनी रहे। यह जो हिंसात्मक गतिविधियां हैं यह बर्बरतावाद के परिणाम हैं, यह हमें यह बताते हैं कि इनको अंजाम देने वाला शख्स अमानुषिक चेतना से भरा हुआ था। यहीं से सवाल उठता है कि वह अमानुषिक चेतना से भरा हुआ था इसलिए उसने इस हिंसात्मक और अमानवीय कार्य को अंजाम दिया। अमानवीय गतिविधि करने से उसकी चेतना बर्बर नहीं हुई। वह बर्बर थी इसलिए यह घटित हुआ। इसका मतलब है कि हमारी चेतना को बर्बरतावाद से संपूरित किया जा रहा है। इसका अर्थ है कि एक व्यवस्था है जो लगातार मानव को अमानुषिक चेतना में बदल रही है। इन गतिविधियों से तो उसकी उस चेतना की अभिव्यक्ति होती है।
हमें समझना यह है कि बर्बरतावाद हमारे सामाजिक संबंधों की रक्त शिराओं में प्रवाहित किया जा रहा है। उसका उभार अभी जनसंख्या के परिमाण की अपेक्षा में कम दिखाई देता है पर अनेक घटनाएं हमारे आसपास घटित होती हैं जब हम यह अनुमान करते हैं या शिद्दत से महसूस करते हैं कि बर्बरतावाद कितनी गहराई तक पसर चुका है।
मैं जो कहना चाह रहा हूं वह यह कि पूंजीवाद अपनी अंतिम परिणति की ओर बहुत तीव्रतम गति से बढ़ रहा है। इसके बर्बरतापूर्ण चरित्र और परिणतियों को समझने के लिए हमें इसके सुहावने, रंगीन और चकाचौंध भरे पर्दे को फाड़कर देखना होगा।
बर्बरतावाद कैसे हमारी चेतना में पसर चुका है? इसके रूप और स्थिति को कैसे समझा जाये?
हम अपने आसपास की घटनाओं पर नजर दौड़ाएं तो हमें पता चलेगा कि पूंजीवादी बर्बरतावाद कैसे काम करता है? अभी लाक डाउन में नब्बे करोड़ लोगों को खाना वितरण की बात चैनलों पर उठाई जा रही थी। इसका मतलब है कि देश की लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी के पास एक टाइम के खाने की व्यवस्था नहीं है वह सरकारी गैर सरकारी सहायता के बिना अपना पेट नहीं भर सकती। यह जानकारी हमारे पूंजीवादी विकास की उस बर्बरता को इंगित नहीं कर रही है जो विकास की दर को सात आठ फीसदी बताती है और पांच ट्रिलियन इकोनामि होने के सपने देख रही थी?
इस बीच एक विशिष्ट वर्ग के बच्चों को निकालने के लिए तत्काल बसों की व्यवस्था कर दी गई और लाखों मजदूर जो बेहाली में फंसे हैं या पैदल सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर रहे हैं उनके लिए व्यवस्था के डंडे चल रहे हैं।
उनके पास जीने का भी विकल्प नहीं है और सरकारें आनलाइन शापिंग की अनुमति दे रही हैं। यह आनलाइन शापिंग किस वर्ग के लिए है? यह बर्बरता नहीं है?
यह पूंजीवाद की बर्बरतावादी परिणति है कि सत्तर प्रतिशत जनता के पास जीवन को कोई विकल्प ही नहीं तब व्यवस्था सिर्फ बीस तीस प्रतिशत लोगों के लिए विकल्प खोलने की बात कर रही है और यह दिखाया जा रहा है कि सब कुछ ठीक-ठाक है। व्यवस्था मानवीय कल्याण के कार्यों में जुटी है।
पूंजीवाद के तमाम विकल्प उन लोगों के लिए होते हैं जिनके पास क्रयशक्ति होती है। उपलब्ध भौतिक साधनों और उन तक पहुंचने के विकल्प की भरमार का उनके लिए कोई अर्थ नहीं है जिनके पास खरीदने की न्यूनतम क्षमता भी नहीं है। इस तरह पूंजीवाद एक पूर्ण बर्बर समाज में बदल दिया गया है जिसमें सब कुछ आने टके की कीमत पर उपलब्ध है और आने टके का सबसे बड़ा हिस्सा चंद लोगों की तिजोरियों में कैद है।हम एक पूर्ण बर्बरतापूर्ण समाज के बीच जीने को विवश हैं। इसकी असली बर्बरता यह भी है कि एक मलाई दार वर्ग की आंखों में यह दिखाई ही नहीं देता है कि देश के नब्बे करोड़ लोग दो टाइम का भोजन भी बिना काम किये नहीं जुटा सकते हैं।
डॉ. संजीव जैन – संपर्क 9826458553
बहुत ही सामयिक एवं अर्थपूर्ण आलेख।
संजीव जैन को बधाई एवम शुभकामनायें।