वक्त तो सितम ढहाए हुए है । इस कोविड 19 ने जैसे वक्त को रोक ही तो दिया है, हालांकि जिंदगी चल रही है । वैसे ही चल रही है जैसे सांस चलती है । बरसों पहले कागज़ के फूल फिल्म में वहीदा रहमान जब श्वेत- श्याम परदे पर गा रही थी वक्त ने किया क्या हंसी सितम.. तब किसने सोचा था कि ऐसे सितम वाले दिन भी आएंगे । गीता दत्त के उस गीत को सुनते -गुनगुनाते लोग उम्र की ढलान पर है । इस कोविड 19 के कारण घरों में बंद उन्हे श्याम टाकीज में देखी ये फिल्म याद आती ही होगी । अरपा के इस लाडले शहर की वो श्याम टाकीज! बरसों पहले बंद होने के बाद अभी भी बंद है । बिक रही है एक सौदागर से दूसरे के हाथों । उस खंडहर में गूंज रहे होंगे ऐसे ही कई गीत । गूंजती होगी पृथ्वीराज़ कपूर की भी रौबदार आवाज़ । अपना पृथ्वी थियेटर लेकर आए थे वे बिलासपुर और इसी टाकीज में नाटक खेला था उन्होंने । अपने शहर में आज तो सबकुछ बंद है । हालांकि वे दिन थे जब अपने शहर में (सभी शहरों में ) सबसे शानदार जगह टाकीजें ही हुआ करती थी । मनोहर , लक्ष्मी, श्याम,और प्रताप टाकीज । उन दिनों भी शुक्रवार को ही नई फिल्म रिलीज़ होती । लोग टूट पड़ते । फिर बिहारी टाकीज खुली और फिर शिव और सत्यम भी । कुछ बरस बाद सिद्धार्थ और बलराम बनी । सबसे आखिर में जीत टाकीज । भले ही सबसे आखिर में खुली पर सबसे अच्छी टाकीज यही कहलाई । मज़ाल है कि एक तिनका भी कहीं दिख जाए । इतनी साफ़ । छात्र नेता रहे मुंशीराम ने शुरू की थी जीत टाकीज । रौब तो था ही पर सफ़ाई का जुनून था। पर अपने बिलासपुर के अलमस्त लोग कहां मानते ? उधर मुंशीराम की तो धुन । एक दिन एक बड़े घर के बेटे ने(जो आज बहुत बड़ा है) पान की पीक थूक दी । चौकन्ने मुंशीराम की नज़र पड़ी । उस युवा रईसजादे की शर्ट उतरवाकर उसी से साफ़ करवाया । खूब चर्चा हुई पर मुंशीराम से कौन कहे ।आज उसे व और अन्य लोगों को भी घर में बंद रहते हुए याद आती ही होगी ।
कोविड 19 में इन दिनों सब घरों में बंद है । आज तक ऐसा नहीं हुआ कि एक माह तक घरों में ही रहना पड़े । पर रह रहे हैं क्योंकि और कोई विकल्प भी नहीं । बंद पड़ी मनोहर टाकीज भी अपने उन दिनों को याद करती ही होगी जब यहां रौनक हुआ करती थी । मालगुजार शेष परिवार की इस बिल्डिंग को शिवाजी जाधव चलाते थे । बबनराव शेष उन दिनों जनसंघ से पार्षद हुआ करते । तब वार्ड मेंबर भी कहा जाता । बबनराव जी की बड़ी प्रतिष्ठा थी । उनकी इस टाकीज को चलाते तो जाधव थे पर लोग ज्यादा जानते थे रमाशंकर तिवारी को । सांवले, ऊंचे पूरे तिवारी जी इस टाकीज के मैनेजर रहे । उन दिनों केऔर लोगों की तरह पान, तंबाकू के शौकीन तिवारी जी लंबे समय मनोहर टाकीज से जुड़े रहे । वे कांग्रेस से पार्षद भी बने । बेहद लोकप्रिय रहे रमाशंकर जी बिलासपुर के उन शुरुआती लोगों में से भी हैं जिन्हें शेयर मार्केट की जबरदस्त समझ थी । पिंकी यानी प्रियनाथ तिवारी के पिता रमाशंकर जी का उन दिनों बड़ा नाम था । मनोहर टाकीज के लिए भी लोग उन्हें ही तो ज्यादा जानते थे । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यालय इसी परिसर में है । बरसों हो गए मनोहर टाकीज को बंद हुए ।वहां कुछ दुकानें खुल गई है तो सामने खुली जगह में लोग गाड़ियां पार्क करते हैं । सौदागरों की नज़र में है ये भी । पास में ही थी श्याम टाकीज । छितानी मितानी दुबे परिवार की इस टाकीज को कई बरस तो नादम परिवार चलाते रहा ।हनुमंत नादम इसके मुखिया । कुछ साल अशोक राव(प्रथम महापौर) भी चलाए। फिर जबलपुर के दुबे जी ने ले लिया । दुबे जी अपना ज्यादा समय श्याम में ही बिताते । कोविड 19 में सब बंद है पर वे दिन भी क्या दिन थे । दिन तो लक्ष्मी टाकीज के भी थे । चंद्रकांत चावड़ा आए थे बिलासपुर । दो भाई खुद और महेश । इन्होंने शुरू की लक्ष्मी टाकीज । बरसों तक चलाते रहे । महेश पहले तो ये बाद में नागपुर चले गए । इधर अरपा के किनारे खुली प्रताप टाकीज । जमींदार प्रताप राव की इस टाकीज को जाजोदिया परिवार चलाते रहा । आज यह भी बंद है और इसमें एक अस्पताल चलता है । उन दिनों प्रताप टाकीज के ही गेट के पास साहित्य भंडार नाम की दूकान हुआ करती थी । और चार कदम पर ही बाजपेयी बाड़ा जिसमें अशोक राव , सत्यदेव दुबे जैसे दिग्गजों की नियमित बैठक हुआ करती । फिल्मों की अपार लोकप्रियता के दिन थे वे । इसीलिए और टाकीजें खुलीं । मदिरा व्यवसाय से धन नाम कमाए बिहारी लाल जायसवाल ने बिहारी टाकीज बनवाई । उन्हीं के रिश्तेदारों ने फिर बाजू में ही गंगाश्री टाकीज शुरू की । तब तक अशोक राव भी इस व्यवसाय को समझ चुके थे और उन्होंने लिंक रोड़ पर सत्यम टाकीज बनवाई । इस टाकीज के बनने के बाद वह चौक ही सत्यम चौक हो गया जो पहले चंद्रिका चौक (चंद्रिका होटल के कारण ) कहलाता । सत्यम में बाबा राव यानी ई. रमेन्द्र राव बैठते । दुनिया भर की तथ्य पूर्ण जानकारी रखने वाले बाबा राव के पास राजनीतिक और सामाजिक लोगों का जमावड़ा होने लगा । राम बाबू सोनथलिया, श्याम अग्रवाल, राधे भूत , अनिल टाह, अशोक अग्रवाल, फिरोज कुरैशी आदि अक्सर जुटते । शुरू में वीसी शुक्ल गुट तो फिर बाद में अर्जुन सिंह गुट का केंद्र हुआ करता ये । बाबा राव पार्षद टिकट नहीं पा सके पर आगे चलकर उनकी पत्नी वाणी राव महापौर बनीं । खैर ये सब फिर कभी । अभी तो सत्यम टाकीज की भी बात और इसके साथ ही शिव टाकीज की भी । ज्वेलर्स परिवार के दिनेश गुप्ता ने शिव टाकीज बनवाई । फिर बाजू में ही अपने बेटे सिद्धार्थ के नाम से सिद्धार्थ टाकीज । इसी शिव टाकीज में मुंशीराम मैनेजर रहे । हालांकि लोग उन्हें ही मालिक मानते थे । फिर इन्होने अपनी जीत टाकीज बनवाई । बलराम टाकीज की बात जरा अलग है जिसे महापौर और फिर विधायक रहे बलराम सिंह ने बनवाया । अपने नाम पर ही टाकीज का नाम रखा । इस टाकीज के खुलने के बाद हम एक मामले में रायपुर से आगे हो गए । रायपुर के कारण हमारा हमेशा ही नुकसान होते रहा और हर चीज़ को लड़कर लेना पड़ा । पर अब बिलासपुर में दस टाकीज हो गई । रायपुर में आठ ही । बलराम सिंह भी अपने नाम की टाकीज को ज्यादा नहीं चला पाए । शायद रूचि भी कम ही थी । आज इस टाकीज के बिलकुल बाजू में उनके बड़े बेटे आशीष और बहू रश्मि सिंह रहतीं है । जो तखतपुर से विधायक है ।संयोग ही है कि टाकीजों से जुड़े लोग राजनीतिक पदों तक भी पहुंचे । रमाशंकर तिवारी, बबनराव शेष, अशोक राव, बलराम सिंह,मुंशीराम, वाणी राव आदि ।
वे भी क्या दिन थे । कोविड 19 में सूनसान हुए शहर में लोग घरों में बैठ कर कभी इनकी बात भी कर ही रहे होंगे । हर टाकीज के पास अलग ही रौनक । मसें भीगते- भीगते हर युवा की पसंदीदा जगह भी । उन दिनों भी तो शुरूआती दिनों में कुछ ज्यादा ही धड़कते थे दिल । ऐसे दिल वालों और वालियों की पसंद की जगह ये टाकीजें । बात तो होती नहीं बस देखा- देखी हो जाती और फिर फिल्म की रीलों में पर्दे पर खुद को देखते हुए लौट जाते । परिवार सहित फिल्म जाने के दिन नहीं थे वे । अरपावासी तो बिलकुल इजाज़त नहीं देते । भाग कर यानी घर में बिना बताए फिल्म देखने के दिन । कभी-कभी तो दोनों या तीनों भाई भाग कर फिल्म देखने आते । इंटरवल में दिख ही जाते और चोर -चोर सगे भाई (मौसेरे नहीं ) बनकर फल्ली खाते हुए लौट जाते । ये राज़ कभी नहीं खुलता घर में । फिल्म छूटने के बाद वहीं फिल्मी गीतों की किताबें बिका करती दस पंद्रह पैसे में । साधारण कागज़ पर अभी देखी गई फिल्म के सभी गाने छपे होते । कई बार मुफ्त में भी बंट जाती । फिल्में जैसे जिंदगी का हिस्सा थीं ।टाकीजों में फिल्म शुरू होने से पहले आरती होती । श्याम टाकीज में ओम् जय जगदीश हरे तो बाकी में भी अलग-अलग । अब तो सब कुछ ऑनलाइन । उस समय लंबी-लंबी लाइन में लग कर टिकट लेना । कई बार तो एक साथ चार पांच लोग हाथ डाल देते खिड़की में और फिर टिकट व बाकी पैसे लेकर बंद मुट्ठी को पूरी ताकत से निकालते । टिकट ले लिया जैसे युद्ध जीत लिया । कुछ खास दर्शक भी होते जो लगातार टिप्पणियां करते रहते । और जब चलती फिल्म में लाइट गोल हो जाए तो ऐसा शोर मचता कि पूछो मत । इंटरवल में फल्ली खाना और फिर अंधेरा होते ही उस खाली कोन को जहाज़ बनाकर उड़ा देना । महिलाओं की सीटें अलग होती जो पीछे होती । किसी का जहाज़ वहां तक भी पहुँच जाता ।
आज के इस सूनसान शहर में पुलिस और पत्रकार साथी ही घूम रहे हैं । उन्हीं की गाड़ियों का शोर है । उन दिनों तो बहुत शोर हुआ करता था सड़कों पर । उसी के बीच एक रिक्शा गुज़रता जिसमें लाउडस्पीकर बंधा होता और फिल्म का एक छोटा सा बोर्ड लगा होता । रिक्शे में बैठा एक व्यक्ति हाथ में माइक लिए घोषणा करते रहता कि कौन सी फिल्म लगी है । कलाकारों यानी हीरो हीरोइन के नाम भी बोलता । कभी हेंडबिल भी बांटता । शहर की कुछ दीवारों पर फिल्म के पोस्टर चिपके होते । टाकीजों ने जैसे बिना कहे दीवारें बांट ली थी कोई दूसरे के पोस्टर नहीं निकालता । कई बार ऐसा हो भी जाता कि सत्यम का पोस्टर फाड़ कर शिव वाले ने उस पर अपनी फिल्म का पोस्टर चिपका दिया । स्वामिभक्ति उस समय भी थी और अति उत्साही कर्मचारी ऐसा करते रहते। टाकीजों में एक दो होटल और पान ठेले होते ही । फर्स्ट क्लास, सेकंड और थर्ड क्लास होती । महिला क्लास अलग और बालकनी भी । फिर कहीं कहीं बालकनी में ही बाॅक्स भी । प्रताप टाकीज में बालकनी में कुछ आराम कुर्सियाँ भी थी । फिर हटा दी गई ।सेकंड, थर्ड क्लास में कुर्सियां नहीं । लंबी-लंबी पटिया होती या कांक्रीट सीमेंट की लंबी बेंच । बड़े लोग बालकनी में जाते । हालांकि इंटरवल में वे भी वही फल्ली खाते ।
ये सब तो कोविड 19 के बहुत पहले से ही खत्म हो गया । बंद हो गई टाकीजों से गेटकीपर , टिकट क्लर्क, ऑपरेटर आदि सब बेरोजगार हो गए । लड़ने लगे जिंदगी की जंग । इसी बीच माॅल आ गए । इंटरवल इनमें भी होता है पर यहाँ लोग फल्ली नहीं खाते । दो रूपये की मूमफल्ली के बजाय दो सौ रुपये के भुट्टे के दाने लेते हैं । तीन चार लोग हुए तो पांच सौ वाला कार्न फ्लेक्स लेते हैं । कोई किसी से बात नहीं करता । यहां सभी अपने अपने में मस्त । कोविड 19 में ये भी बंद है हालांकि इसका खुले रहना भी किसी को खास पसंद तो आता नहीं । इसमें फिल्म देखने का वो रोमांच ही नहीं । भव्यता में संवेदनाएं जैसे ख़त्म ही तो हो गई । इस भयावह समय में जूझ रहे हैं सब जिंदगी से , जिंदगी के लिए । माॅल की तरह ही तो चमचमाते लेकिन संवेदनहीन हो चले हैं जैसे हम सब । अरपा में पानी आए तो शायद कुछ नमी आए हमारी आंखों में भी । बंद टाकीज में गूंज रहा है – वक्त ने किया क्या हंसी सितम …।
(लेखक प्रगतिशील लेखक संघ छत्तीसगढ़ के महासचिव एवं बिलासपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक इवनिंग टाइम्स के प्रधान संपादक हैं)