ख्याली पुलाव ही न पकाएं हकीकत भी देखिए- अरुण कुमार

अरुण कुमार

विस्तारित लॉकडाउन पर विचार अहम है। यह हर किसी के लिए अनकही दुश्वारियां लेकर आया है, खासकर हाशिए पर गुजर-बसर करने वाले वर्ग की तकलीफों की तो इंतहा हो गई है। जरूरी वस्तुओं को छोड़कर ज्यादातर उत्पादन ठप है, कारोबार घाटा झेल रहे हैं और इनमें अनेक तो शायद दोबारा खड़े भी न हो पाएं। अर्थव्यवस्था को नुकसान तो लंबे समय तक के लिए हो चुका है। इसलिए नीति- नियंताओं के सामने दुविधा है कि 3 मई के बाद क्या करें।

असलियत को ध्यान में रखकर बने योजना

नीतियां वास्तविकता को ध्यान में रखकर बनें, सिर्फ ख्याली पुलाव न पकाएं कि सब ठीक हो जाएगा। जमीनी हालात को देखकर ही योजनाएं बनाई जानी चाहिए। कोविड-19 महामारी नई है और इसके बारे में बहुत कम जानकारी है, इसलिए सटीक योजना बनाना मुश्किल है। दुनिया भर में चल रहे अनेक अनुसंधानों के बावजूद, आने वाले दिनों में क्या होगा, यह अभी स्पष्ट नहीं।

इस महामारी का जनक एक वायरस है जो म्युटेट (जैविक रासायनिक रूपांतरण के जरिए) होकर जानवरों से मनुष्य में आया है। अब यह एक से दूसरे व्यक्ति में संक्रमण फैला रहा है। अगर हम खुशकिस्मत हुए तो शायद उसमें फिर म्युटेशन हो और वह कम जानलेवा हो जाए। अभी तक यह पता है कि इस वायरस के तीन रूप हैं। लेकिन हम अपनी खुशकिस्मती के भरोसे नहीं रह सकते, क्योंकि वायरस म्युटेशन से और ज्यादा घातक भी हो सकता है। पहले अनुमान लगाया जा रहा था कि तापमान बढ़ने से वायरस नष्ट हो जाएगा, लेकिन अप्रैल में भारत में और इससे पहले उष्ण कटिबंधीय जलवायु वाले इलाकों में इसका संक्रमण लगातार बढ़ने से उम्मीदें कम हो गई हैं। हाइड्रोक्लोरोक्वीन को इस वायरस से बचाव की संभावित दवा माना जा रहा था, लेकिन अध्ययनों से पता चल रहा है कि इसका कोई असर नहीं हो रहा है, बल्कि इस दवा के साइड इफेक्ट से लोगों की मौत हो रही है। सो, फिलहाल न तो इसकी कोई दवा है, न कोई टीका।

कोई भी योजना बनाते समय निकट भविष्य को तो ध्यान में रखना ही है, दीर्घकालिक नतीजों की भी तैयारी करनी है। ऐसा न हो कि हम दूसरी बार भी निहत्थे पकड़े जाएं। इस बार तो हम ऐसे पकड़े गए हैं कि यह मालूम ही नहीं कि इस संकट से कैसे निपटें। एक ‘सतर्कता का सिद्धांत’ भी होता है कि सबसे बुरे का अनुमान लगाइए और उसी के मुताबिक योजनाएं बनाइए। जीवन सामान्य रूप में बचाए रखना तात्कालिक फायदों से ज्यादा जरूरी है, जो सौभाग्य से रोग का प्रकोप घटने से शायद मिल जाए।

लंबा लॉकडाउन क्यों?

लॉकडाउन से बीमारी फैलने की रफ्तार कम होती है और इससे चिकित्सा व्यवस्था को दुरुस्त करने की थोड़ी मोहलत मिल जाती है। भारतीय चिकित्सा व्यवस्था खेदजनक रूप से अपर्याप्त है। यहां डॉक्टर, नर्स, अस्पताल और उपकरण सबकी कमी है। न्यूयॉर्क सिटी, इंग्लैंड, इटली और स्पेन की चिकित्सा व्यवस्था भारत से बेहतर होने के बावजूद बीमारी पर जल्दी नियंत्रण करने में नाकाम रही। यह बात स्पष्ट है कि लॉकडाउन से वायरस नहीं मरता, बल्कि इससे निपटने की तैयारी करने का समय मिल जाता है। इससे वायरस की दवा या टीका बनाने तक के लिए भी मोहलत मिल सकती है।

भारतीय चिकित्सा प्रणाली की खामियों, भीषण गरीबी और कुपोषण की समस्या को देखते हुए भारत को अपेक्षाकृत लंबे समय तक लॉकडाउन की जरूरत है। पर्याप्त टेस्टिंग सुविधाओं के अभाव में हम यह भी नहीं कह सकते कि बीमारी फैल रही है या नियंत्रण में है। अगर कुछ जिलों में संक्रमण के नए मामले नहीं मिल रहे हैं तो भी हम यकीन से नहीं कह सकते कि ऐसा पर्याप्त टेस्टिंग के अभाव में है या वास्तव में वहां संक्रमण नहीं फैला है। पर्याप्त टेस्टिंग के अभाव में सब कुछ खोलना बीमारी को दोबारा फैलने के लिए आमंत्रित करना है। तब हमें फिर से लॉकडाउन करना पड़ेगा जो पहले से भी ज्यादा दुखदायी होगा। हमारी स्वास्थ्य प्रणाली की दुर्दशा से बीमारी बहुत तेजी से फैल सकती है और नतीजतन सामाजिक अराजकता पैदा हो सकती है।

एक वैकल्पिक विचार यह है कि लॉकडाउन से गरीबों का रोजगार छिन गया है, उनकी कमाई बंद हो गई है और वे भूखों मर जाएंगे। यह भी कहा जा रहा है कि अगर बड़ी संख्या में लोग संक्रमण के शिकार हो जाते हैं तो दूसरे वायरस की तरह इस मामले में भी हर्ड इम्युनिटी (सामूहिक प्रतिरोध क्षमता) बन जाएगी। यानी वायरस के प्रति लोगों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाएगी। यह तर्क भी दिया गया है कि 80 फीसदी लोगों में बीमारी का हल्का रूप उभरा है और वे अपने आप ठीक हो गए हैं। इनमें बीमारी का कोई लक्षण दिखाई नहीं देता। बाकी 15 फीसदी में कुछ लक्षण दिखाई देंगे और उन्हें आइसोलेशन में रखने की जरूरत पड़ेगी, लेकिन पांच फीसदी को अस्पताल में भर्ती करने और दो फीसदी को वेंटिलेटर की जरूरत पड़ेगी और उनकी मौत भी हो सकती है। लेकिन इंग्लैंड में यह नीति काम नहीं आई। संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ने और विशाल सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पर बोझ बढ़ने के बाद कुछ ही दिनों में उन्हें अपनी नीति बदलनी पड़ी। आशंका है कि कोरोना वायरस  के चलते यूरोप में सबसे ज्यादा मौतें इंग्लैंड में ही होंगी।

भारत में इस विपदा से आदमी की जान की क्षति काफी ज्यादा होगी। अगर यह बीमारी पहले चरण में सिर्फ 60 फीसदी आबादी में फैलती है तो इसका मतलब हुआ 82 करोड़ भारतीय संक्रमित होंगे। अगर 20 फीसदी को आइसोलेशन में रखने और अस्पताल ले जाने की नौबत आई तो 27 करोड़ बेड की जरूरत पड़ेगी। पांच फीसदी को वेंटिलेटर की आवश्यकता हुई तो सात करोड़ लोगों को वेंटिलेटर पर रखना पड़ेगा, जबकि हमारे पास करीब एक लाख ही वेंटिलेटर हैं। इसलिए ज्यादातर लोगों की मौत हो जाएगी और मरने वालों की तादाद एक साल में पांच करोड़ से भी अधिक हो सकती है। क्या समाज इतनी बड़ी तबाही झेल सकता है? यही वजह है कि हमें लंबे समय तक लॉकडाउन की जरूरत है। यह आजादी के बाद से ही देश में व्याप्त भीषण गरीबी के प्रति बेपरवाही और सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे की अनदेखी का नतीजा है।

लॉकडाउन कैसे कारगर हो?

भारत में लॉकडाउन अपने आप में चुनौती है। गरीबों में इस तरह के संकट झेलने की ताकत नहीं है। वे रोज कमाते हैं और रोज अपनी जरूरत का सामान खरीदते हैं। मध्यम वर्ग के लोगों या अमीरों की तरह वे जरूरी वस्तुएं खरीद कर नहीं रख सकते। वे भीड़भाड़ वाली जगहों में रहते हैं। कई बार एक ही कमरे में पांच या उससे भी ज्यादा लोग होते हैं, इसलिए वहां आइसोलेशन मुमकिन नहीं है। गरीब जहां रहते हैं वहीं उन्हें आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति करने की जरूरत है। हमारे गोदाम अनाज से भरे पड़े हैं इसलिए उसे गरीबों में बांटा जा सकता है। अगर ऐसा नहीं किया गया तो गरीब बाहर निकलेंगे और खाने-पीने की चीजों की लूट भी हो सकती है। इससे लॉकडाउन बेमतलब हो जाएगा। उनकी मुफ्त जांच होनी चाहिए क्योंकि वे जांच के लिए प्रति व्यक्ति 4,500 रुपये देने में सक्षम नहीं हैं। उन्हें झुग्गी बस्तियों से निकालने की भी जरूरत है। स्कूल, हॉल और खुली जगहों पर टेंट बनाकर उन्हें ठहराया जा सकता है। जो लोग अपने गांव वापस जाना चाहते हैं, जांच के बाद उन्हें उनके गांव जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।

किसानों के सामने अपनी उपज बेचने की समस्या है और उनकी उपज के दाम गिर रहे हैं। ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि फल और सब्जियां खेतों में ही सड़ रही हैं। सरकार को पूरी उपज खरीद लेनी चाहिए और उसे शहरी इलाकों में भेजना चाहिए, जहां कमी है। सार्वजनिक परिवहन की बसें और ट्रक इन दिनों खाली हैं, उनका इस्तेमाल इस काम में किया जा सकता है। इस तरह किसान के खलिहान से अनाज वगैरह खरीद कर लोगों के घर तक पहुंचाने से किसानों और शहरी गरीबों, दोनों की समस्याओं का समाधान होगा, साथ ही लॉकडाउन भी सफल होगा।

स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर का तेजी से विस्तार किया जाना चाहिए। चुनिंदा फैक्टरियों में चिकित्सा उपकरणों और सुरक्षात्मक पहनावे का उत्पादन बढ़ाया जाना चाहिए। आइसोलेशन वॉर्ड के लिए होटलों का इस्तेमाल किया जा सकता है। मेडिकल और नर्सिंग के छात्र-छात्राओं को पैरामेडिकल प्रशिक्षण देकर आइसोलेशन वॉर्ड और अस्पतालों में उनकी मदद ली जा सकती है।

राहत पैकेज के लिए संसाधन

लॉकडाउन की अवधि में जनवरी 2020 की तुलना में उत्पादन 25 फीसदी से भी कम है, यानी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर (-)75 फीसदी है। अगर उत्पादन छह महीने में महामारी से पहले के स्तर पर पहुंच जाता है (हालांकि यह काफी आशावादी अनुमान है) तो अर्थव्यवस्था की विकास दर (-)17 फीसदी होगी। अगर अर्थव्यवस्था में दो महीने तक लॉकडाउन रहता है और उसके बाद इसमें तत्काल रिकवरी आती है और यह महामारी से पहले के स्तर पर पहुंच जाता है (जो असंभव है) तो विकास दर (-)9 फीसदी होगी। आइएमएफ कैसे 1.9 फीसदी विकास दर का अनुमान लगा रहा है, यह समझ से परे है।

अर्थव्यवस्था में इतनी बड़ी गिरावट से सरकार के राजस्व में भी तेजी से कमी आएगी। उद्योगों के टैक्स में कटौती या कोई राहत पैकेज देना मुमकिन नहीं होगा। वित्तीय क्षेत्र बड़े संकट में होगा। उसको बचाने के साथ उद्योग जगत को भी नाकाम होने से रोकने की चुनौती होगी। ब्याज के भुगतान और रक्षा जैसे आवश्यक खर्चों के लिए धन जुटाना भी मुश्किल हो जाएगा। गरीबों के राहत पैकेज और चिकित्सा खर्चों के लिए वेतन वगैरह में कटौती करनी पड़ेगी। बेरोजगार और गरीब हो चुकी आधी आबादी को छह महीने तक आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति के लिए विश्व बैंक की 1.9 डॉलर की गरीबी रेखा की तुलना में आधी रकम भी दी जाए तो 15 लाख करोड़ रुपये की जरूरत पड़ेगी। इसमें स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे मदों पर होने वाले खर्च को भी जोडि़ए। दूसरे खर्चों में व्यापक कटौती किए बिना सरकार यह नहीं कर पाएगी।

निष्कर्ष

भारत इन दिनों अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहा है और इसके लिए अलग हटकर सोचने की जरूरत है। विशेषज्ञों के अनुसार बिना लॉकडाउन के स्थिति नियंत्रण से बाहर चली जाएगी। यह भी सच है कि लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था थम जाएगी और संसाधन नहीं बचेंगे। लेकिन जीवन बचाना भी उतना ही अहम है ताकि लॉकडाउन का फल मिल सके। इसके लिए हमें सिर्फ सबसे जरूरी चीजों पर खर्च करने की जरूरत है, और वह है जीवन और कारोबार को बचाने के लिए राहत पैकेज। इस महामारी से निपटने के बाद हम इस बात पर विचार कर सकते हैं कि हमारा समाज कैसा है, लेकिन अभी तो समूचा फोकस जीवन और कामकाज बचाने पर ही होना चाहिए।

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में मैल्कम आदिशेषैया चेयर प्रोफेसर हैं) सौ. आउटलुक

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *