वे चल रहे हैं सड़कों पर । लगातार चल रहे हैं । पेट में भूख और पैरों में छाले है । सूटकेस की गाड़ी है , बच्चे की सवारी है । मां खींच रही है । बच्चे की आंखों में नींद है । सपने में रोटी दिख रही (होगी) दिखी होगी स्कूल और वो टूटा खिलौना भी दिखा होगा जिसे छोड़ आया है शहर में । उस शहर में पिता के पसीने की बूंदे गिरी है । उसी पसीने से आबाद हुआ है वह शहर । कोविड 19 से उपजी निर्ममता ने दुत्कार दिया है उन्हें । सूटकेस पर सोए बच्चे के सपने में नहीं है वो गांव जो उसके पिता छोड़ आए थे । उसकी आंखों में शहर की चकाचौंध होगी । सूटकेस की गाड़ी पर सोए उस बच्चे को शायद कोई सपना ही नहीं आ रहा हो , ऐसा भी तो हो सकता है । धूप में आगे- आगे चलती माँ के तपते पांव दिख रहे हों । कुछ देर पहले खाई बिस्कुट का स्वाद हो जबां पर । भूख लग रही हो और रोटी की याद आ रही हो । कैसे मांगे माँ से , सोच कर सोने की कोशिश करता यह बच्चा चल रहा है गांव की तरफ़ । उस गांव की ओर जहां उसके पिता ने कभी सपने देखे थे । उस निर्मम दौर में (अभी भी) गांव का सपना शहर हो जाना है और शहर ऐसे हो रहे हैं जिनमें मर जाते है सपने । ऐसे सपनों को छोड़ लौट रहे हैं वे पांव – पांव अपने गांव ।
कोविड 19 का यह दुःख पहली बार आया है । कई बरस पहले प्लेग महामारी फैली थी । उस वक्त भी क्वेरेंटाइन सेंटर बनाए गए थे । लोग उसमें रहने मजबूर थे । करीब सौ बरस पुरानी बात है ये । उस समय आज के लोग समाज और सत्ता में नहीं थे । किताबों में उस महामारी का ज़िक्र है । अखबारों की पुरानी कतरनें भी है । पुरातन ज्ञान रखने वालों की पंचागों में भी है । पर हमने तो कब से किताबें पढ़ना बंद कर दिया । इतिहास से सबक भी नहीं लेते । कहते हैं और मानते भी हैं कि आधुनिक सभ्यता में हम सब कुछ बेहतर जानते हैं । पिछले से कुछ भी सीखना नहीं चाहते । सत्तर पचहत्तर बरस पहले क्वेरेंटाइन नाम की कहानी लिखी जा चुकी थी ।प्रतिबद्ध रचनाकार राजेन्दर सिंह बेदी की यह कहानी कितनों ने पढ़ी ? उससे भी पहले महान् कथाकार प्रेमचंद ने एक फ़िल्म के लिए कहानी लिखी थी “मिल मज़दूर ” फ़िल्म बनी पर रिलीज़ नहीं हुई । ज़ाहिर है टेक्सटाइल्स लाॅबी कैसे रिलीज़ होने देती । बीतती सदी में न जाने कितने भूकंप आए , ज्वालामुखी से लावा उगला , नदियों में बाढ़ आई और समुद्रों में तूफ़ान । ये सब प्राकृतिक विपदाएं ही रही । इसमें हजारों लोग बेमौत मरे । मौत के हर आंकड़े के बाद आपदा प्रबंधन के बजट में शून्य बढ़ते गया । आपदा प्रबंधन किसी एक मंत्री के पोर्टफोलियो में बहुत किनारे रहता । अफसरों की फाइलों में बहुत नीचे किसी नोटशीट पर होता । आपदा आएगी तब इसके आंकड़ों में कुछ शून्य और बढ़ा लेंगे । तब तक विकास के प्रतीक कोयला, बिजली, विमान, रक्षा,समाज कल्याण, लोक निर्माण, सिंचाई, आबकारी, वन जैसे मलाईदार और शिक्षा, स्वास्थ्य,जेल जैसे मालदार फ़ाइलों पर तेज़ी से हस्ताक्षर करते रहें । विकास की प्रक्रिया में सब जुटे रहते तेज़ी से । बहुत तेजी से । इस तेज गति में ज़ाहिर है गांव पीछे छूटेंगे ही । उनका पीछे छूटना ही शहर का आगे बढ़ना हो गया । अपने गांव की नदी का निर्मल जल छोड़ वे जाते रहे शहर । पीते रहे गंदे नालों का पानी और संवारते रहे शहरों को । उनकी प्यास छीन कर बनती रही बिसलेरी की बोतलें । उनकी रोटियां छीन कर बनती रही तंदूरी रोटियां और पिज़्ज़ा बर्गर भी । हज़ारों फ़ीट के अपने खेतों को छोड़ कर आए ये लोग सौ – पचास वर्गफुट ज़मीन के लिए तरसते रहे । राजशाही में भी तो इन मजदूरों ने बनाए थे महल । जिन महलों में वे कभी जा भी नहीं सके । इस लोकशाही (लोकतंत्र नहीं) में भी वे बनाते हैं बहुत बड़ी इमारतें, जिनमें रहने का सपना देखने की भी हिम्मत नहीं होती इनमें । ये मज़दूर है । इनके पिता और उसके भी पिता मज़दूर ही तो थे । लोकशाही भी इन्हें यही बनाए हुए है । दुनिया के चौधरी बने अमरीका से लेकर दुनिया के गुरु रहे अपने देश तक । सब जगह हालात यही है ।
बरसों पहले एक फ़िल्म आई थी मदर इंडिया । हल खींचने वाले बैल नहीं है तो अभिनेता राजकुमार और अभिनेत्री नरगिस खींच रहे होते हैं । यह दृश्य उस दिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की चमकदार लेकिन तपती सड़क पर था । कोविड 19 में सब कुछ बंद है । शहरों में काम नहीं । लौटना है गांव । पैदल, सायकिल या फिर बैल गाड़ियों में लौट रहे हैं लोग । ऐसे ही घर जाती एक बैलगाड़ी का बैल बीमार हो गया बीच रास्ते में । मर गया । सफ़र तो पूरा करना था । बैल की जगह खुद जुत गया वह मज़दूर । कुछ देर उसकी पत्नी भी । ऐसे अनेक करूण दृश्य है इन दिनों सड़कों पर । एक ने लकड़ी के पटियों की गाड़ी बनाई है , उसमें छोटे छोटे चके लगाए हैं । जैसे कि एक फ़िल्म में अब्दुल्ला के पास थी । इस गाड़ी में पत्नी और बच्चे को बैठाए खींच कर चल पड़ा वह अपने गांव । यह सफ़र कोई पचीस- पचास किलोमीटर का नहीं सैकड़ों और हज़ारों किलोमीटर का है । नवरात्रि में या सावन में कई किलोमीटर पदयात्रा, कांवर यात्रा करके पुण्य कमाते हैं श्रद्धालु । राजस्थान में रामापीर की भी दो- ढाई सौ किलोमीटर की पदयात्रा होती है जिसमें लाखों श्रद्धालु चलते हैं सात-आठ दिनों तक । इनके लिए रास्ते भर समाजसेवियों की तरफ़ से भारी इंतज़ाम होता है । चाय, पानी से लेकर भोजन तक का । इससे यात्रा करने वालों और सेवा करने वालों दोनो को ही पुण्य होता है । अगला जीवन भी संवरता है ।
कोविड 19 की त्रासदी में तो करोड़ों लोग चल रहे हैं पैदल । पांव-पांव चलते इन भूखे प्यासे लोगों को प्रभु के दर्शन भी नहीं हो रहे । सभी मंदिर,मस्जिद,गुरूद्वारे,गिरजाघर बंद है । रास्ते में इनके लिए श्रद्धालु या समाज सेवी भी नहीं । सरकार तो इन्हीं की चिंता में डूबी है इसलिए सरकार भी नहीं । ये चल रहे हैं फ़िर भी । भूखे प्यासे । कई दिनों से फिज़िकल डिस्टेंसिंग बता रहा डब्ल्यू एच ओ । मास्क और सेनिटाइजर की बात करते हैं लोग । भूखे पेट को रोटी ही तो सुनाई देती है बस। कह भी रहे हैं कि कितना पालन करें ? भूख से नहीं मरना है, चलना तो है । पहुंचना है गांव । अब इस पहुंचने में कोरोना से मर जाएंगे तो क्या करें । इनका पहुंचना ही जैसे सब कुछ है । हालांकि चलना और पहुंचना कितना कठिन होता है। पहुंचने के इनके इन वाक्यों में कितनी बेबसी है । इसे फ़िलहाल कोई नहीं समझ रहा क्योंकि इस बेबसी से वोट नहीं बनते । इसलिए इनकी सहायता करने वाले सत्ताधीश भी बेबस से बने हुए हैं । किसी को जैसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा है । इनके पसीने की कीमत या अपमान ये है कि एक राज्य सरकार ने तो आगे कई वर्षों के लिए श्रम कानूनों को ही निलंबित कर दिया है । विकास जरूरी है । सत्ता तक इन मज़दूरों के वोट से पहुंचा तो जा सकता है पर कुर्सियों के पाए तो तो कारखानों से, सरमाएदारों से ही टिकाए रखे जा सकते हैं । बीस लाख करोड़ के ज्यादातर शून्य भी इसीलिए उनके लिए ही है । इन्हें तो पांवों में छाले लिए चलना ही है । पहुंचना है या मर जाना है । निष्ठुर हो चुकी सत्ता और संवेदनहीन हो चुके मध्य वर्ग को अब इनके दु:ख से कोई फ़र्क नहीं पड़ता । यह मनुष्य पर प्रौद्योगिकी की जीत का ही दुष्परिणाम है । यह पूरी दुनिया के साढ़े सात अरब लोगों का संकट है । वोल्गा नदी से अरपा तक यह दुःख पसरा हुआ है । आज की लड़ाई बीमारी के बजाय बीमार सूचनाओं से लड़ने में ही/भी खप रही है । डब्ल्यू एच ओ जैसी संस्था और वैसी अनेक संस्थाओं की साख ख़त्म हो चुकी है । कोविड 19 की लड़ाई में अमरीका का अगला चुनाव भी शामिल है इसलिए वह देश खुला है और लाख देड़ लाख लोगों के मर जाने की सूचना अपनी प्रेस कांफ्रेंस में सपाट भाव से देता है । वहां दुनिया की बेहतरीन स्वास्थ्य सेवाएं हैं लेकिन वहां व्यापार ही सर्वोच्च है जिसके लिए ये दुनिया बाज़ार है । कई बरसों से हम भी उसके दोस्त हैं पर हमारे यहां सब कुछ बंद है । इसलिए करोडों लोग पैदल चल रहे हैं । भूख से तड़पता यह भारत सचमुच इंडिया से अलग ही तो है । घर में बैठे इंडियन अपने चीखते टीवी स्क्रीन पर इन भारतीयों की भूख और पैरों के छाले देख कर दु:खी हो रहे हैं और रात के खाने में क्या बनाएं, बहस करते हुए व्यवस्था को कोस रहे हैं । इतना स्वार्थी और संवेदनहीन समय पहली बार आया है । कोविड 19 भी पहली बार ही । अरपा सूख चुकी है और खाए, पीए, अघाए हमारे ह्रदय भी । अरपा अंत:सलिला है यह भी याद नहीं रखना चाहते हम लोग । राजधानी से चली श्रमिक स्पेशल में भी बच्चों को नींद लग गई है । सूटकेस पर सोए बच्चे का गांव आ गया होगा । ये सपने नहीं देख रहे ? पाश की कविता है – “सपनों का मर जाना ख़तरनाक होता है” । तो क्या वह ख़तरनाक समय आ चुका है ? हालांकि सड़कों पर चल रहे ये श्रमवीर नाउम्मीद नहीं है और चलते-चलते जैसे कह रहे हों (मज़बूरी में ) कि फ़िर आएंगे तुम्हारे सपनों को आबाद करने । धीरे-धीरे बाज़ार खुल रहे हैं और लौट रही है जिंदगी । मज़दूर चल रहे हैं सड़कों पर । टीवी स्क्रीन पर चीख़ रही है ख़बरें ।