यह तथ्य बहुत कम याद दिलाया जाता है कि न सिर्फ़ जवाहरलाल बल्कि उनके पिता मोतीलाल का भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और उनके संगठन से अत्यंत स्नेह का रिश्ता था। अलावा इसके कि इन दोनों ने क्रांतिकारियों को लगातार आर्थिक मदद दी, राजनीतिक रूप से भी उन्होंने ख़ुद को इनसे पूरी तरह नहीं अलग किया।
जवाहरलाल नेहरू और भगत सिंह का क्या रिश्ता हो सकता है? एक समय था कि दोनों ही भारत के युवाओं के हृदय सम्राट माने जाते थे। नेहरू और भगत सिंह समकालीन थे लेकिन नेहरू उम्र और राजनीतिक या सार्वजनिक अनुभव में भगत सिंह से बड़े थे। दोनों को एक साथ रखना किसी भी तरह संभव नहीं माना जाता। समय बीतने के साथ भारत के एक तबक़े का रवैया नेहरू के प्रति बदलने लगा और माना जाने लगा कि वह नेहरू से आगे निकल आए हैं। अब नेहरू को लेकर वितृष्णा दक्षिणपंथियों में घृणा के चरम पर पहुँच गई है। भगत सिंह के प्रति अनुराग बढ़ता चला गया है। विडंबना यह है कि भगत सिंह दक्षिणपंथियों और वामपंथियों के बीच एक जैसे ही लोकप्रिय हैं। नेहरू के प्रति वामपंथियों की आरंभिक वितृष्णा पिछले कुछ वर्षों में कम हुई है लेकिन उसके प्रति दुविधा बनी हुई है। दक्षिणपंथियों में नेहरू को लेकर जो हिंसक घृणा थी, वह बढ़ती चली गई है। सामान्य जनता, जो न सचेत रूप से वामपंथी है न सोच समझकर दक्षिणपंथी, उसका रुख़ इन दोनों के प्रति कमोबेश दक्षिणपंथी ही रहा है। भगत सिंह के प्रति आकर्षण बढ़ता चला गया है और नेहरू से नफ़रत गहरी होती गई है।
इसलिए जब भी दोनों में किसी एक पर बात करने का मौक़ा मिलता है, मैं एक खेल करता हूँ। मैं श्रोताओं से उस खेल में शामिल होने को कहता हूँ: वे ख़ुद को भगत सिंह मान लें। उनके सामने एक सवाल है: अगर वे भगत सिंह हैं तो नेहरू और सुभाषचंद्र बोस में से किसे अपना नेता मानेंगे? पहली बार तो सब असमंजस में पड़ जाते हैं लेकिन दुबारा उकसाने पर बहुसंख्या बोस के पक्ष में हाथ उठाती है। जब उन्हें बताया जाता है कि उनका उत्तर ग़लत है, यानी भगत सिंह ने यह सवाल आने पर नेहरू को चुना था, बोस को नहीं तो पहली प्रतिक्रिया अविश्वास की और फिर अचरज की ही होती है।
नेहरू के पक्ष में अपना मत देते हुए आज से तक़रीबन 90 साल पहले तरुण भगत सिंह ने जो कहा था, वह उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है: ‘दूसरा (यानी नेहरू) युगांतकारी है जो दिल के साथ-साथ दिमाग़ को भी बहुत कुछ दे रहा है।’ नेहरू क्यों पसंद हैं भगत सिंह को? क्योंकि वे सुभाष बाबू की तरह अपने राष्ट्र को लेकर श्रेष्ठतावादी विचार नहीं रखते, ‘जिस देश में जाओ वही समझता है कि उसका दुनिया के लिए एक विशेष संदेश है। इंग्लैंड दुनिया को संस्कृति सिखाने का ठेकेदार बनता है। मैं तो कोई विशेष बात अपने देश के पास नहीं देखता। सुभाष बाबू को उनपर बहुत यक़ीन है।’
भगत सिंह नेहरू को इसलिए भी पसंद करते हैं कि वे हमेशा पीछे के ज़माने में सारा कुछ नहीं देखते, ‘जो अब भी क़ुरान के ज़माने के अर्थात् 1300 वर्ष पीछे के अरब की स्थितियाँ पैदा करना चाहते हैं, जो पीछे वेदों के ज़माने की ओर दीख रहे हैं उनसे मेरा यह कहना है कि यह तो सोचा भी नहीं जा सकता कि वह युग वापस लौट आएगा…’
‘पंडित जी राष्ट्रीयता के संकीर्ण दायरों से निकलकर खुले मैदान में आ गए हैं।’ जब भगत सिंह इस वजह से नेहरू का साथ देने को कहते हैं तो साफ़ है कि वे राष्ट्रवाद को टैगोर, गाँधी और नेहरू की तरह ही संकीर्ण मानते हैं।
भारत की आज़ादी भी राष्ट्रवादी विचारधारा को मज़बूत करने के लिए नहीं बल्कि उसे ध्वस्त करने के लिए आवश्यक थी क्योंकि यूरोपीय राष्ट्रवाद ही उपनिवेशवाद का जनक था।
नेहरू का यह अंतरराष्ट्रीयतावाद भगत सिंह को उस नई उम्र में समझ में आ गया था और उन्होंने इसी वजह से उनका समर्थन किया था लेकिन भगत सिंह के मुरीद इसी कारण नेहरू से नफ़रत करते हैं। राष्ट्रवाद का सरल अर्थ है, मेरा राष्ट्र सबसे श्रेष्ठ और चूँकि वह मेरा है तो मैं भी सबसे श्रेष्ठ। इसके पीछे यह ध्वनि भी है कि वह मेरा है, इसीलिए श्रेष्ठ भी है। इसलिए न तो ख़ुद पर न कभी अपने राष्ट्र पर सवाल करने की ज़रूरत ‘राष्ट्र्वादियों’ को महसूस होती है।
उपनिवेशवादी आंदोलन के दौरान राष्ट्रवाद एक अनिवार्यता बन जाता है। उस वक़्त उसके जोखिम से वाक़िफ़ रहना और जनता को उससे सावधान करते रहना आसान नहीं। कवि, चिंतक टैगोर को यह ‘अलोकप्रिय’ विचार रखने की सुविधा थी लेकिन राजनीतिज्ञ नेहरू और भगत सिंह के लिए ऐसा कर पाना उनके भीतर की वैचारिक दृढ़ता का परिचायक है।
भगत सिंह, चंद्र्शेखर आज़ाद से नेहरू के रिश्ते
यह तथ्य बहुत कम याद दिलाया जाता है कि न सिर्फ़ जवाहरलाल बल्कि उनके पिता मोतीलाल का भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और उनके संगठन से अत्यंत स्नेह का रिश्ता था। अलावा इसके कि इन दोनों ने क्रांतिकारियों को लगातार आर्थिक मदद दी, राजनीतिक रूप से भी उन्होंने ख़ुद को इनसे पूरी तरह नहीं अलग किया। असेंबली में बम फेंकने की कार्रवाई की बिना शर्त निंदा करने से मोतीलाल नेहरू ने इनकार कर दिया। जब अंग्रेज़ सरकार ने इसके लिए उनकी आलोचना की तो बेटे नेहरू ने लॉर्ड इरविन की तीखी आलोचना करते हुए कहा कि जिन नौजवानों ने यह किया उनकी बिना शर्त भर्त्सना की माँग बहुत ही बेतुकी है। नेहरू ने लिखा कि लॉर्ड इरविन शारीरिक हिंसा और विचार और तर्क के दो विरोधी दर्शनों के बीच के नग्न अंतर की याद दिलाते हैं तो मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि इनमें से किस दर्शन के सहारे लॉर्ड इरविन और उनकी सरकार अपना राज भारत में क़ायम किए हुए हैं! क्या उनकी सेना हमसे मधुर तर्क करने के लिए यहाँ रखी गई है? क्या लाला लाजपत राय पर लाठियाँ बरसा कर उनसे विचार और तर्क का प्रयास किया जा रहा था?
लेकिन नेहरू ने आर्थिक सहायता करते हुए भी भगत सिंह के दल की विचार और कार्य पद्धति से अपनी असहमति हमेशा ज़ाहिर की। जैसे नेहरू अपनी पार्टी में हमेशा बेगाने से रहे, वैसे ही भगत सिंह अपने साथियों से अलग-थलग पड़ते दिखलाई पड़ते हैं। उसकी वजह है राष्ट्रवादी संकीर्णता से दोनों की विरक्ति। दूसरे, वैज्ञानिक विचार पद्धति के प्रति दोनों का झुकाव।
वैज्ञानिक संवेदना के कारण भगत सिंह अन्य क्रांतिकारियों से अलग जाकर नास्तिक हो गए लेकिन नेहरू को नास्तिकता में आस्था नहीं रुचि और उन्होंने विज्ञान के मूल यानी संदेह को अपनी जीवन दृष्टि का आधार बनाया। उन्होंने वैज्ञानिकों को विज्ञानवाद से भी सावधान किया। ताज्जुब नहीं कि हिंदी लेखक अज्ञेय ने उनपर अभिनंदन ग्रंथ सम्पादित किया क्योंकि वे भी एक तरह के संदेहवादी ही थे। संदेह हर चीज में और इसी कारण किसी भी विचार की अपर्याप्तता का चिरंतन भान। इस कारण नेहरू में वह फूहड़ निश्चयात्मकता नहीं थी जो सफल राजनेता की पहचान है।
इस बात को कम्युनिस्ट हीरेन मुखर्जी ने पहचाना था और कहा था कि सफल राजनेता होने के लिए जो फूहड़पन चाहिए वह नेहरू में नहीं।
नेहरू को भगत सिंह के मुक़ाबले लम्बी उम्र मिली और अपने विचारों को और साफ़ करने का मौक़ा। राष्ट्रवाद क्यों ख़तरनाक है, यह दुनिया के अपने अनुभव से वे समझ पाए थे। राष्ट्रवाद में अपने राष्ट्र से जितना प्रेम नहीं उतना उसके बहाने अपनी प्रभुता का दंभ है। यह लिख ही रहा था कि विजय महाजन ने नेहरू की आत्मकथा का एक उद्धरण भेजा। वह बहुत ही मानीखेज है: ‘राष्ट्रवादी मध्यवर्ग फ़ासीवादी विचारों के लिए उपजाऊ ज़मीन है। लेकिन जब तक यहाँ विदेशी हुकूमत है, यूरोपीय शक्ल का फ़ासीवाद फैल नहीं सकता। भारतीय फ़ासीवाद को भारतीय स्वतंत्रता का पक्ष लेना ही होगा और वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ नहीं जा सकता। अगर ब्रिटिश ताक़त पूरी तरह हट जाए, शायद फ़ासीवाद अधिक तेज़ी से फैलेगा क्योंकि इसे निश्चय ही ऊपरी मध्यवर्ग और निहित स्वार्थों का समर्थन मिलेगा।’
राष्ट्रवाद और फ़ासीवाद
राष्ट्रवाद एक प्रकार का समुदायवाद है और उसी का सबसे हिंसक रूप फ़ासीवाद है। वह अपने और सिर्फ़ अपने समुदाय की खोज करता है और उसे चारों तरफ़ के दूषित प्रभावों से बचाने के लिए उसकी क़िलेबंदी करता है। इसलिए न तो राष्ट्रवाद में और न फ़ासीवाद में व्यक्ति को अपनी विलक्षणता या अद्वितीयता का अधिकार होगा।
नेहरू के लिए व्यक्ति ही बुनियादी और सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई है। उसकी क़ीमत पर कुछ भी नहीं किया जा सकता। न तो राज्य और न ही राष्ट्र के आगे उसकी बलि दी जा सकती है। व्यक्ति को सबसे ऊपर रखने के ख़याल के कारण ही नेहरू से राष्ट्र्वादियों को नफ़रत थी तो कम्युनिस्ट भी इसी वजह से उनपर विश्वास नहीं कर सकते थे। किसी भी दूसरी महान इकाई में, वह वर्ग हो या राष्ट्र, वे व्यक्ति की इकाई के विसर्जन के विरुद्ध थे। यह ऐंथोनी परेल के मुताबिक़ गाँधीवादी ढाँचा ही है जिसमें व्यक्ति सर्वोपरि है।
व्यक्ति को किसी वृहत्तर इकाई का दास नहीं बनाया जा सकता लेकिन उसमें अपना दायरा बड़ा करते जाने की क्षमता होनी ही चाहिए। इसके लिए उसमें ‘दूसरों’ से रिश्ता बनाने की उत्सुकता होनी चाहिए। दूसरे को अपनी शक्ल में ढालने के लोभ से बचना और उसे एक आईने की तरह देखना जिसमें अपनी सूरत देखी जा सके।
व्यक्ति अंतिम है, वह सर्वाधिकार संपन्न है, वह अपने अधिकारों का स्रोत ख़ुद है और स्वाधीनता सबसे बड़ा मूल्य है। व्यक्ति की सत्ता से इस प्रतिबद्धता ने उन्हें सोवियत और चीनी रास्ते की कमी के प्रति सचेत किया।
नेहरू को गाँधी और भगत सिंह की सुविधा नहीं मिली। दोनों को हमेशा स्वाधीनता आंदोलन का रूमानी आभा वलय घेरे रहेगा। नेहरू को अपनी रुचि के विरुद्ध एक राष्ट्र-राज्य का निर्माण करने का सलीब ढोना पड़ा। इसने उनके व्यक्ति से इसकी क़ीमत वसूली। सरलीकृत भाषा में कहें तो नेहरू ने भारत के प्रगीतात्मक दौर से आगे जाकर रूखे गद्य युग में अपने जीवन के 17 साल गुज़ारे। अपने सारे उदात्त साथियों से एक-एक करके विलगाव झेलते हुए और संसदीय राजनीति की अनिवार्य क्षुद्रता से जूझते हुए नेहरू और अकेले होते चले गए। एकांतप्रिय नेहरू का एकाकी होते जाना उनकी नियति थी, अपने जीवनकाल में और उत्तर नेहरू काल में जो राष्ट्रवादी दौर भी है, में नेहरू का अकेला पड़ जाना ही एक तरह से उनके सही होने का प्रमाण है। नेहरू इस राष्ट्र को राष्ट्रवाद की क्षुद्रता और हिंसा से सावधान करते हैं, इसलिए वह ख़ुद जनता के लिए चुनौती हैं तो कसौटी भी।
अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं। सौ सत्यहिन्दी