पिछले दो माह से लॉक डाउन , कर्फ्यू, ताली थाली घंटे की नौटंकी के बाद अब कह रहे हैं कोरॉना के साथ ही जीना सीखें। करोड़ों कामगारों को सड़क पे मरने छोड़कर अब हाथ खड़े कर रहे हैं। इतनी बेशर्मी और क्रूरता सिर्फ एक सेडिस्ट ही कर सकता है।क्या कामगार इस देश के नागरिक नहीं हैं ? देश के संसाधनों पर उनका भी बराबर का हक है । उन्हें भी अपनी मर्जी से कहीं भी आने जाने का हक है फिर वो क्यों पैदल चल रहे हैं ? उन पर दया या रहम नहीं, उनका हक दीजिए। बहुत हल्ला हुआ, बल्कि हल्ला क्या जब कोटा से संपन्न घरानों के बच्चों को लाने का दबाव बढ़ा तो अलग से श्रमिक रेल चलाई गई । रेल संचालन की मगर ऐसी दुर्दशा और कुप्रबंधन की मिसाल दुनिया में नहीं मिल सकती जिसमें न जाने कितनों की जान तक चली गई और देश समाज में कहीं कोई हलचल, सुगबुहाट तक नहीं । क्या इस लापरवाही का खामियाजा भुगतने वाले कामगारों को मुआवजा नहीं दिया जाना चाहिए ? सवाल ये है कि जब तेजस स्पेशल ट्रेनों के लेट हो जाने पर मुआवजा मिलता है तो मजदूर स्पेशल के गरीबों को मुआवजा क्यों नहीं देना चाहिए? दुर्घटनाओं में मरने वालों को राहत राशि, मुआवजा दिया जाता है तो इन ट्रेनों में जो बच्चे महिलाएं मजदूर लेट लतीफी और अव्यवस्था के चलते अपनी जान गंवा बैठे हैं उन्हें सरकार मुआवजा क्यों नहीं देती?
कोई चारह नहीं दुआ के सिवा
कोई सुनता नहीं ख़ुदा के सिवा
(हफ़ीज़ जालंधरी)
ट्रेन के रास्ता भूलने पर रेल मंत्री के चेहरे पे शिकन तक नहीं आती । दुनिया का पहला रेल विभाग और रेल मंत्री है जिसके नेतृत्व में रेलें रास्तों से भटक रही हैं । ये क्या सोचा भी जा सकता है कि पांतों पर चलने वाली रेलें उत्तर जाते जाते सीधे दक्षिण को चली जाएं ? या तो जानबूझकर किया जा रहा है या पूरा प्रबंधन लापरवाही कर रहा है। यदि प्रबंधन की लापर वाही है तो अब तक रेल्वे ने उन पर कोई कार्यवाही क्यों नहीं की ? गरीब मजदूर 8-9 दिन लगातार रेलों में बैठे अपने घर जाने को बेकरार हो रहे हैं और पूरी सरकार चुप्पी साधे बैठी है।सरकार के साथ साथ पूरा समाज इस क्रूर कृत्य के खिलाफ चुप्पी साधे बैठा है ।
सोच कर देखिए कि दो एक घंटे लेट हो जाने पर हम आप कितने बेचैन हो जाते हैं मगर मजदूरों के साथ सारी हमदर्दी बस सोशल मीडिया पर 2 केले देते 12 हाथ वाली फोटो पोस्ट करने तक ही सीमित होकर रह जाती है। उनकी पीड़ा, तकलीफ दर्द से कोई सरोकार नहीं रह जाता। हम इन्हें देश का नागरिक मानना छोड़कर सिर्फ मजदूर तक ही सीमित रखने की चेष्टा करने लगे हैं । हम ये भूल जाते हैं कि इस देश के संसाधनो सुविधाओं पर उनका भी उतना ही हक है जितना हमारा आपका । हम उस सामंतवादी सोच के शिकार होकर देश के इन नागरिकों पर हमदर्दी और रहम दिखाते खुद को इनका रहनुमा साबित करने में लगे होते हैं जबकि हमें उन्हें भी उनका हक दिलाने के लिए सरकार पर दबाव डालना चाहिए । दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में वर्गभेद की इंतहा देखिए कि आपके हमारे बच्चों के लिए चलाई गई विशेष ट्रेने एकदम सही समय पर सही जगह पहुंच जाती है , कहीं कोई गड़बड़ नहीं, कोई गलती नहीं मगर एक तो इन कामगारों को इस मंहगी सुविधा के लाभ से वंचित कर दिया जाता है दूसरे इनके लिए जो अलग से विशेष ट्रेन चलाई जाती है उसकी कोई जवाबदेही नहीं , कोई माई बाप नहीं जाने कब छूटती है ऐर जाने कब पहुमचती है । सोचकर देखिए यदि यही हालत संपन्न वर्ग के बच्चों को कोटा या कहीं से भी ला रही ट्रेनों के साथ होता तो क्या पूरा समाज तब भी ऐसी ही खामोशी से सहता रहता , क्या तब भी लोग रेल्वे की, सरकार की वाहवाही करते ?
पूरा सिस्टम फैल हो चुका है, कर्मचारियों की लापरवाही उजागर हो चुकी है मगर चालीस से भी ज्यादा ट्रेनों के संचालन में की गई लापरवाही के लिए अभी तक किसी भी अधिकारी या कर्मचारी की जवाबदेही तय नहीं की जा सकी है और न ही किसी को दण्डित किया गया है। नैतिकता का तकाज़ा तो ये है कि रेल मंत्री को इस असफलता और लापरवाही के लिए जिम्मेदारी कुबूल करते हुए तत्काल इस्तीफा दे देना चाहिए था मगर भाजपा सरकार के मंत्रियों से इसकी उम्मीद बेमानी है । विडंबना ये है कि रेलमंत्रई पूरी धृष्टता के साथ मुस्कुराते हुए अपनी छद्म सफलता का ढिंढोरा पीटते ट्विट करते हैं और लोग ताली थाली बजाते इन बेबस कीमगारों पर ही दोषारोपण करने से नहीं चूकते।
अदालतें हैं जो सरकार गिराने बनाने के खेल में शामिल होकर कोरोना के चलते स्थगित विधान सभा को तत्काल शुरू करवा देती हैं, मगर कामगारों के मामले में पहले कह देती हैं कि उन्हें पैसों की क्या ज़रूरत, ये सुप्रीम अदालत के मुखिया की टिप्पणी है न्याय की अवमानना नहीं होती । हमारे लोकतंत्र में एक बात और है कि यहां ज़रा ज़रा सी बात पर अदालत की अवमानना तो होत जाती है मगर न्याय की कभी अवमानना नहीं हुई । ले देकर तकलीफ, परेशानी और जिल्लतें झेल चुके मजदूरों पर न्याय के रहनुमाओं को कुछ रहम आता भी है और स्वत संज्ञान लेती भी है तो सरकार को एक हफ़्ते का समय दे देती है जवाब देने। यानी अब एक हफ़्ते कोई कुछ बोल नहीं सकेगा,कोई पूछे तो आप कह सकते हैं कि एक सप्ताह में जवाब मिल जाएगा।
बेबस, लाचार बदहाल मजदूर एक सप्ताह क्या जहां है वहीं रुके रहें मी लॉर्ड? कौन हैं जो मर रहे हैं मी लॉर्ड? ये सिर्फ मजदूर नहीं हैं, ये दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की जनता हैं। ये वही सबसे बड़ा वोटर समूह है जिसे तमाम जुमलों की मुनादी के वक़्त तालियां बजाने विशेष ट्रेनों से लाया जाता है । आज मगर तालियां नहीं बजवाना है मगर जुमलेबाजी बदस्तूर जारी है।
देश का संघीय ढांचा चरमरा रहा है। एक भी केंद्रीय मंत्री किसी भी राज्य के मुख्यमंत्रियों से सीधे संवाद नहीं करता , ट्वीट करता है, । ये कैसी बेरुखी है, तल्खी है, अभिमान की ये कैसी पराकाष्ठा जिसके सामने आम जनता की जान जोखिम में डालने से भी नहीं चूकते। बाजी लगाने से भी नहीं हिचक रहे।
संवेदनाशून्य हो चुकी सरकार का क्रूर अमानवीय चेहरा उजागर हो रहा है मगर अब भी लोगों के आंखों की पट्टी नहीं उतर रही। लोग ख़ामोश है,एक बहुत बड़ा वर्ग योर्स मोस्ट ओबिडिएंट की तरह हर करतबों पर ताली थाली बजाता है। आका के गुणगान में दिए जलाता है।जेबें उनकी भी खाली हैं, काम उनके भी बन्द हैं मगर अभी भी पिनक में हैं, नशा अभी भी तारी है खुमारी उतरी नहीं है । नफरत की फितरत वाले अब इन गरीब तबके के प्रति नफरत का ज़हर उड़ेल दे रहे हैं।ये वर्ग मजदूरों को नागरिक नहीं मानता और सारा दोष उन्हीं पर मढ़ देने की आतुर हो गया है। हमें यह समझना होगा कि ये भी देश के उतने ही सम्मानित नागरिक हैं जितने हम और आप।
ज़िंदगी अब इस क़दर सफ़्फ़ाक हो जाएगी क्या
भूक ही मज़दूर की ख़ूराक हो जाएगी क्या
(रज़ा मौरान्वी)
जीवेश चौबे