हाल की छोड़, ले आए दूर की कौड़ी -अरुण कुमार

“संकट के समय सार्वजनिक क्षेत्र लड़ाई में सबसे आगे, जबकि सरकार निजीकरण को बढ़ावा दे रही”

कोविड-19 समाज को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। आमतौर पर ऐसी भयावह घटनाएं समाज में नए विचार और बड़े परिवर्तन को जन्म देती हैं। इस संकट का सामना करते हुए हम भविष्य की एक झलक मात्र देख पा रहे हैं। हमारे आस-पास जो हो रहा था और जिन बातों की हमने अनदेखी की, अब वह सरासर सामने है। गरीबों की दुर्दशा की अब और अनदेखी नहीं की जा सकती है। एक दशक पहले एक सुपरस्टार का यह सवाल बड़ा मशहूर हुआ था कि भारत में गरीबी कहां है। वह सुपरस्टार अपने ऊंची दीवार वाले बंगले और कार के काले शीशे के पीछे से कुछ देख नहीं पा रहा था। सरकार और उसके समर्थकों का रवैया भी ऐसा ही है। वे एक उदीयमान भारत दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके लिए अगर किसी गरीब के पैरों में चप्पल और हाथ में मोबाइल फोन है, तो वह गरीब नहीं है। वे यह भूल जाते हैं कि गरीबी समय और जगह के हिसाब से बदलती रहती है। तमिलनाडु, लद्दाख या लंदन में इसके रूप अलग-अलग हैं।

हमारी नीतियां सुविधाओं से छन कर नीचे तक पहुंचने पर आधारित हैं। इन नीतियों की वजह से अभिजात्य शासक वर्ग विकास का बड़ा हिस्सा हासिल करने में कामयाब होता है। दूसरी तरफ गरीबों की स्थिति निराशाजनक है, भले ही 1947 की तुलना में वे बेहतर स्थिति में हों। अभिजात्य वर्ग यह मानता है कि गरीबों को खुश और कृतज्ञ होना चाहिए, क्योंकि उनकी स्थिति में सुधार हो रहा है, भले ही यह सुधार धीरे-धीरे हो रहा हो। हमारी नीतियों में हमेशा अभिजात्य वर्ग की फिक्र की गई और बाकी लोगों के साथ अवशिष्ट की तरह व्यवहार किया गया। चाहे जो भी पार्टी सत्ता में आए यह परिस्थिति नहीं बदलती है। वैश्वीकरण ने भारत के अभिजात्य वर्ग को गरीबों को सोपान बनाकर दुनिया के अभिजात्य वर्ग में शामिल होने का मौका दिया।

महामारी ने समाज के रिसते घाव को निर्दयतापूर्वक उजागर कर दिया है। विकास के मुलम्मे तले ढका हाड़-मांस अब दिखने लगा है। महामारी का फैलाव धीमा करने के लिए लॉकडाउन जरूरी है, लेकिन भारत में हाशिए पर खड़े लोगों के बीच इसे लागू करना बेहद मुश्किल है, क्योंकि वे भीड़ जैसी परिस्थितियों में रहते हैं और उनके पास नाम मात्र की बचत होती है। झुग्गियों में रहने वालों को, जहां साफ पानी, शौचालय और खाना मुश्किल से मिल पाता है, उनके लिए तो यह अस्तित्व का सवाल है। उनके बीच बीमारी तो फैलेगी ही। ऐसे में उनके भीतर अपने उस गांव में लौट जाने की ख्वाहिश पनपना लाजमी है जिसे वे बेहतर जीवन और काम की तलाश में छोड़ आए थे। जब वे गांव लौट रहे हैं तो वहां भी बीमारी का फैलना निश्चित है। ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य इन्‍फ्रास्ट्रक्चर कितना कमजोर है, यह हम जानते हैं। दरअसल, गरीबों के प्रभावित होने की आशंका सबसे अधिक है, क्योंकि उन्हें पोषक खाना भी नहीं मिल पाता है। गरीब बीमारी और भूख दोनों से लड़ रहे हैं। इन दोनों में से कोई न कोई तो उन्हें अपना ग्रास बनाएगा ही।

सरकार के एक साल

बाजार नाकाम हो गया है और सिर्फ सरकार समाज की मदद कर सकती है। इसने बड़े तामझाम के साथ तथाकथित राहत पैकेज की घोषणा की है, जिसे जीडीपी के 10 फीसदी के बराबर बताया जा रहा है। लेकिन इस पैकेज में गरीबों के लिए राहत बहुत कम है। सरकार ने अपना असली रंग दिखा दिया है। यह पैकेज कुछ इस तरह का है कि घर में आग लगी हो, तब घर का मुखिया दमकल केंद्र स्थापित करने और दमकल गाड़ियां खरीदने की बात कर रहा हो। इसका एक ही नतीजा होगा कि घर पूरी तरह जल जाएगा। यहां अर्थव्यवस्था पूरी तरह बर्बाद हो जाएगी और गरीब ही सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।

सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला साल पूरा हो रहा है। सत्ता में बैठी पार्टी के लिए यह साल बेहद खराब बीता। महामारी के आने से पहले ही अर्थव्यवस्था लगातार कमजोर हो रही थी। तिमाही दर तिमाही विकास और निवेश की दर घटती जा रही थी। महामारी के चलते विकास दर अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। लॉकडाउन की अवधि में (-)75 फीसदी और पूरे साल में (-) 37.5 फीसदी। सरकार के पास गवर्नेंस की क्षमता दिखाने का बेहतरीन मौका था, लेकिन यह लॉकडाउन को लागू करने और अर्थव्यवस्था को संभालने दोनों में विफल रही है।

पैकेज में लंबे दौर की बात

बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हो गए हैं और उनके पास कमाई का कोई जरिया नहीं रह गया। वे और उनके परिवार के सदस्य गरीबी में चले गए हैं। उन्हें जरूरी वस्तुओं के रूप में तत्काल मदद की जरूरत थी। ऐसा करने के बजाय सरकार कर्ज लेना सुगम बना रही है। पैकेज का 90 फीसदी हिस्सा कर्ज के रूप में है, जरूरतमंदों की सहायता के रूप में नहीं। पैकेज में बिजनेस की मदद के लिए नीतियां बदलने का प्रस्ताव है। इसमें इसरो, परमाणु ऊर्जा और आवश्यक वस्तु अधिनियम के बारे में कहा गया है। एमएसएमई की परिभाषा बदलने की बात कही गई है। इसमें इन्‍फ्रास्ट्रक्चर निर्माण के साथ एनबीएफसी और बिजली वितरण कंपनियों को कर्ज और मदद देने की बात है। ऐसा नहीं है कि इन सब की जरूरत नहीं, या ये कदम गरीबों से जुड़े नहीं हैं, लेकिन इन कदमों का असर लंबे समय में दिखेगा जबकि आज मुद्दा खुद को बचाए रखने का है, जलते घर को बचाने का।

सरकार आपूर्ति बढ़ाने की नीतियों पर काम कर रही है, जिनके नतीजे आने में वक्त लगता है। हालांकि यह भी बहस का विषय है कि क्या ये नीतियां भारत के लिए उचित हैं, या, क्या महामारी से निपटने के बाद इन पर बात नहीं की जा सकती थी? इन नीतियों में तत्काल रोजगार सृजन की बात नहीं है (सिवाय मनरेगा और चंद अन्य छोटी घोषणाओं के), इनमें मांग बढ़ाने के भी उपाय नहीं हैं जिसकी उम्मीद लॉकडाउन में ढील के बाद इंडस्ट्री कर रही है।

विरोधाभासी एजेंडा

इस पैकेज के जरिए (यह राहत पैकेज नहीं है) सत्तारूढ़ पार्टी अपने उस एजेंडे को बढ़ा रही है जिसे वह 2014 में सत्ता में आने के बाद से लागू नहीं कर पाई थी। यह संकट उसके लिए एक ढाल बन गया है। इसका विरोध भी संभव नहीं है क्योंकि यहां राज्य एक सत्तावादी पुलिस राज्य बन गया है। जब राष्ट्र संकट में हो तब विरोध को राष्ट्र विरोधी अथवा राजनीतिक लाभ के लिए उठाया जाने वाला कदम करार दिया जा सकता है। सरकार जिन नीतियों को बढ़ावा दे रही है वे विरोधाभासी हैं। संकट के समय सार्वजनिक क्षेत्र लड़ाई में सबसे आगे था, जबकि सरकार निजीकरण को बढ़ावा दे रही है। अभी तक सरकारी अस्पताल, प्रशासन और सार्वजनिक परिवहन ही काम आए हैं, भले ही इनका काम कम प्रभावी रहा हो। बाजार की ऐसी विफलता से यह सीख मिलती है कि देश को एक मजबूत और प्रभावी सार्वजनिक क्षेत्र की जरूरत है। अगर गवर्नेंस बेहतर होता और सार्वजनिक क्षेत्र को हतोत्साहित नहीं किया जाता तो हम मौजूदा चुनौती से बेहतर तरीके से निपट सकते थे और अनेक परेशानियों से बच सकते थे। इसके विपरीत सरकार सार्वजनिक क्षेत्र को कमजोर कर रही है।

सरकार एक तरफ आत्मनिर्भर भारत का प्रस्ताव लेकर आई है, तो दूसरी तरफ विदेशी निवेश आकर्षित करने की परिस्थितियां बना रही है। रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भरता सबसे महत्वपूर्ण है, लेकिन उसमें भी निजीकरण किया जा रहा है। अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में जहां सार्वजनिक क्षेत्र ने महत्वपूर्ण बढ़त हासिल की है, उनमें भी निजीकरण का प्रस्ताव है। सवाल है कि ऐसे समय, जब सभी देश अपनी अर्थव्यवस्था को कम खुला रखना चाहते हैं और सप्लाई लाइन छोटी करना चाहते हैं, तब क्या नई विदेशी पूंजी भारत आएगी? डोनाल्ड ट्रंप अमेरिकी कंपनियों से किसी और देश में नहीं बल्कि अपने यहां पुनर्स्थापित होने के लिए कह रहे हैं। वैसे भी इस साल भारत और दूसरे देशों में ज्यादातर कंपनियों को काफी घाटा होगा और वे फिलहाल भारत में नए प्लांट में निवेश शायद ही करें। इसके बजाय वे अपने मौजूदा बिजनेस को मजबूत बनाने की कोशिश करेंगे, वे कंपनियां भी जो इस समय चीन में स्थित हैं।

महामारी के कारण मांग में जबरदस्त गिरावट आई है और पूरी दुनिया में कंपनियां अधिक क्षमता से जूझ रही हैं। ऐसे में नई क्षमता के लिए निवेश करना उनके लिए फायदेमंद नहीं होगा। पोलिश अर्थशास्‍त्री माइकल कालेकी ने कहा था कि पूंजीवादी समाज में बिजनेस हर संकट में अपने लिए रियायतें ढूंढ़ लेते हैं। इसमें आश्चर्य नहीं कि आज भारत में भी ऐसा ही हो रहा है। मायूस प्रवासी मजदूरों और हताश गरीबों के पक्ष में हस्तक्षेप करने के मामले में अदालतों का रवैया भी सुस्त है। तो सवाल है कि हम किस ओर जा रहे हैं? दुनिया भर में ट्रेंड अधिकारवादी सरकार का है, जो अभिजात्य वर्ग और बिजनेस के हितों को बढ़ावा दे रही है। क्या आज कोई उस वैश्विक वित्तीय ढांचे को बदलने की बात करता है, जो अभिजात्य वर्ग को बेईमानी से राष्ट्रीय संपत्ति को हड़पने देता है। गरीब जिसकी टेक्नोलॉजी तक पहुंच नहीं है और जिसका अस्तित्व खतरे में है, वह और ज्यादा हाशिए पर कर दिया जाता है। इससे असमानता और बढ़ेगी, मांग में और गिरावट आएगी तथा अर्थव्यवस्था मूर्छित अवस्था में चली जाएगी। आखिरकार दीर्घकालिक नजरिए में शासक वर्ग की निकट दृष्टि कितनी कमजोर हो सकती है? अब बुनियादी बातों पर पुनर्विचार करने का समय आ गया है।

(लेखक इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज में मैलकम आदिशेषैया चेयर प्रोफेसर हैं। उनकी एक चर्चित किताब इंडियन इकोनॉमी सिंस इंडिपेंडेंसः परसिस्टिंग कॉलोनियल डिसरप्शन है)- सौज आउटलुक

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