‘बसु’ का अर्थ होता है, प्रतिभा, प्रकाश, समृद्ध! अपने बासुचटर्जीदा तीनों थे ! उनकी फिल्मों के बारे में सब जानते हैं लेकिन उनके व्यक्तित्व के बारे में जितना जानो उतना कम.
सामान्य सी बुश्शर्ट जो ज्यादातर सफ़ेद होती और फुलपेंट. आप उनके घर पहुंच जाओ तो लुंगी और सफ़ेद कुरते में नज़र आते. जूता शायद ही कभी पहनते हों. चमड़े की चप्पल या सैंडिल ! मैंने जब उनके लिए ‘दुर्गा’ film लिखी, तो रिसर्च के लिए हम रायपुर गये. ये लगभग 1990-91 की बात है। मैंने नया जूता ख़रीदा था. होटल से निकलने का वक्त होता तो एकदम रेडी दादा मेरे कमरे में चले आते. चलो चलो जल्दी करो यार!
‘बस दादा जूते पहन लूं.’
‘तुम जूते क्यों पहनते हो ? पहनने में टाइम बर्बाद होता है!’
वो समय के पाबंद थे और उनके पास समय की कमी भी हमेशा होती थी. ‘दुर्गा’ के बाद से मैंने भी जूता पहनना छोड़ दिया.
बासुदा साहित्य के अध्येता थे. बंगला और हिंदी के कई लेखकों कहानीकारों से उनकी दोस्ती थी. कहूं तो वो सिनेमा और साहित्य के बीच के पुल जैसे थे. उन्हें संगीत की अच्छी जानकारी थी, उन्हें मालूम था कि किस तरह का संगीत लोकप्रिय होगा. उनकी फिल्मों के गीत फूहड़ नहीं होते थे बल्कि उनमें एक किस्म की साहित्यिकता या कहें कविता होती थी.शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, गुलज़ार, योगेश उनके अच्छे दोस्त थे. संगीतकार उनकी फिल्मों में संगीत देने के लिए लालायित रहते, कल्याण जी आनन्द जी,रवीन्द्र जैन,भप्पी लाहिरी और कई लोकप्रिय संगीतकारों के साथ उन्होंने गीत बनाये.
बासुदा को सिनेमेटोग्राफी, एडिटिंग,कास्ट्यूम डिज़ाइनिंग आदि सिनेमा के विभिन्न पक्षों की अच्छी जानकारी थी.
मैंने उनके लिए ‘दुर्गा’ नाम की फिल्म लिखी थी. जो छत्तीसगढ़ के ‘बेरला’ गाँव की एक महिला की कहानी थी. हम जब रायपुर पहुंचे तो बासुदा ने मुझसे पुछा ,’यहाँ कोई ऐसा बाज़ार है जहाँ छत्तीसगढ़ी सामान मिलता हो?’
मैं उन्हें गोल बाज़ार ले गया. वहां से उन्होंने छत्तीसगढ़ी गिलट के गहने,लुगरा-पोलका, बिंदी,सिन्दूर आदि ख़रीदा. कुल ढ़ाई-तीन सौ का सामान और इतने में ही सारे पात्रों की कास्ट्यूमहो गई. बासुदा काफ़ी किफ़ायती फ़िल्म मेकर थे. उनके पास सुई से लेकर कैमरे तक का हिसाब रहता था.
Shooting से पहले उन्होंने अपने प्रोड्क्शन मैनेजर के साथ सारे इंतज़ाम के लिए मुझे छत्तीसगढ़ भेजा. मैंने रायपुर में सारा इंतज़ाम किया. बेरेला गाँव जहाँ हमें शूटिंग करनी थी की दूरी दुर्ग और रायपुर से लगभग समान थी. इससे पहले मैं उनके साथ दुर्ग से बेरला जा चुका था. आठ-दस दिन की shooting के बाद जब मैं उनके साथ कार से रायपुर लौट रहा था तो उन्होंने कहा, ‘तुम्हें दुर्ग में ठहरने का इंतजाम करना था.’ मैंने कहा, ‘बेरला से दोनों जगह की दूरी लगभग समान है दादा!’
‘हाँ यार मगर दुर्ग से बेरला की सड़क अच्छी है. रायपुर से बेरला का रास्ता खराब है. आने जाने में 20 मिनट की देरी होती है. 25 दिन की shooting में 500 मिनट की देरी यानी कि 8 घंटे बर्बाद होगे.’
मैं उनके सिनेमा के अर्थ शास्त्र की समझ देख कर दंग रह गया और इस अर्थ शास्त्र को हमेशा के लिए समझ भी गया.
एक बार दादा, किसी सीरियल की शूटिंग एसल स्टूडियो में कर रहे थे जो कि मुम्बई में सबसे दूर स्थित स्टूडियो समझा जाता है. सुबह से तेज़ बारिश हो रही थी. मुझे लगा इतनी बारिश में भला कौन shooting करेगा, न जाऊं! मगर दादा ने बुलाया था तो जाना ही था. मैं लगभग आधा घंटे देर से पहुंचा तो देखा बासुदावक्त से पहले पहुंच कर indoor shooting कर रहे हैं.
ऐसे जीवट और कर्मठ थे अपने बासुदा ! .
एक बार दादा का फोन आया,’ कहाँ हो यार ! तुम्हारी ‘दुर्गा’को सामजिक समस्या पर बनी सर्वश्रेष्ठ film का नेशनल एवार्ड मिला है.’
मुझे बड़ी ख़ुशी हुई. मैं कुछ समय बाद रशोगुल्ला और संदेश (मिठाई) लेकर उनके घर पहुंचा.
मैंने कहा, ‘दादा! देखिये मेरी लिखी फ़िल्म को नेशनल एवार्ड मिला है. अब आपको मेरा पारिश्रमिक बढाना पड़ेगा!’
दादा हंस के बोले, ‘तुम्हारे लिखने की वजह से नहीं, न मेरे डायरेक्शन की वजह से,film को एवार्ड इसलिए मिला है क्योंकि उस केटेगिरी में वो अकेली filmनोमिनेट हुई थी!’
मैं भी हंस पड़ा. उनका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर कमाल का था जो उनकी फिल्मों में नजर आता है, चाहे ‘छोटी सी बात’ हो ‘खट्टा मीठा’, ‘बातों बातों में’ , ‘हमारी बहू अलका’ हो, या ‘शौकीन’, जिसने अशोक कुमार, उत्पल दत्त और ए.के.हंगल के धमाल अभिनय से कमाल की कामेडी फ़िल्म के रूप बाक्स आफिस में धूम मचाई थी.
दादा हिन्दी के यशस्वी कथाकार शिवमूर्ति की कहानी पर ‘तिरिया चरित’film बना रहे थे. मुझे उन्होंने सम्वाद लिखने का काम दिया और मैं जुट गया. Film बनी नसीरुद्दीन शाह,ओमपुरी और राजेश्वरीसचदेव ने फिल्म में जबरदस्त अभिनय किया..(ये फिल्म यूट्यूब पर उपलब्ध है.)
फिर उन्होंने ‘सरिता की शर्तें’ बनाई उसमें भी मैंने सम्वाद लिखे.
‘दुर्गा’ में मैंने टायटल सांग लिखा था. ये एक छत्तीसगढ़ी लोक गीत, ‘तिरिया जनम झनि दे रे सुअना’ पर आधारित था. बासुडा ने एक रोज़ घर बुलाया. मैं पहुंचा तो दादा के साथ साधारण सा सफेद कुरता और चौड़ी मोहरी का पाजामा पहने एक और दादा बैठे थे. बासुदा ने परिचय करते हुए कहा, ‘ये सलिल चौधरी हैं. ये तुम्हारे गाने की धुन बना रहे हैं.’मेरी तो आँखें फटी की फटी रह गईं. फिर सलिल दा ने मुझसे पूछा इस गीत को गाँव में कैसे गाया जाता है? मैंने धुन बताई ! सलिल दाने उसे गुनगुनाया. और बासुदा से कहा, ‘ठीक है हम जल्द रिकार्डिंग करेंगे!’
मैं सलिल दा के साथ बाहर निकला. सलिल दा जल्दी जल्दी पैदल आगे बढ़ गये. मैंने ऑटो किया. उनसे पूछा कहाँ जा रहे हैं. चलिए छोड़ देता हूँ.
सलिल दा बैठ गये. हम बांद्रा तक साथ गये. यूं बासुदा की कृपा से सलिल चौधरी जैसे महान संगीतकार से मेरा परिचय हुआ. मैं आज गर्व से बताता फिरता हूँ कि मेरे एक गीत की धुन सलिल दा ने बनाई है.
बासुदा बहुत अच्छे सिने लेखक थे. अच्छे से अच्छा लेखक उन्हें स्क्रिप्ट लिख के दे फिर भी वो खुद उसे अपने हाथ से, अपना टच देते हुए दोबारा लिखते थे. बासुदा अकसर महत्वपूर्ण सीन खुद शूट करते. कैमरा मैनलेंस और फोकससेट करके उन्हें दे देता था.
बासुदा ने बड़े बड़ेस्टार अभिनेताओं के साथ काम किया और उनके स्टारडम को पीछे धकेलते हुए उनके अभिनेता को परदे तक पहुँचाया. बासुदा ने ‘रजनी’,‘एक प्रेम कथा’ और ‘व्योमकेशबक्शी’ में मुझे भी अभिनय का मौका भी दिया.
खैर बासुदा धरती से आकाश में चले गए. लेकिन अपनी खुद की इतनी लम्बी कथा छोड़ गये हैं कि कि जिसका वर्णन करूं तो दो चार किताबें तो बन ही जाएँगी, इसलिए शेष फिर कभी अभी तो बासुदा को भाव भरी, स्नेह पगी श्रद्धांजलि!
अशोक मिश्र- राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के स्नातक. फ़िल्म एवम धारावाहिकों के साथ नाट्य लेखन करते रहे हैं। उन्होंने एक दर्जन से ज़्यादा फिल्मों की पटकथा लिखी हैं। जिनमें प्रसिद्ध हैं – ‘वेलकम टू सज्जनपुर’, ‘वेल्डन अब्बा’, ‘नसीम’, ‘समर’, ‘बवंडर’ , ‘कभी पास कभी फेल’ आदि। ‘भारत एक खोज’ जैसे धारावाहिक का भी लेखन उन्होंने किया जिससे उन्हें पहचान मिली । Screenplay writing पर Workshop भी करते रहते हैं । उनके लिखे नाटक ‘बजे ढिंढोरा उर्फ़ खून का रंग’, ‘गांधी चौक’, ‘पत्थर’, ‘अटके भटके लटके सुर’, ‘मोसम्बी नारंगी’ आदि नाटकों के देश भर में प्रदर्शन होते रहते हैं।उन्हें दो बार Best screenplay का National Award मिल चुका है। और सर्वश्रेष्ठ सम्वाद लेखन के लिए ‘Star Screen Award’ से सम्मानित किया जा चुका है। उनकी लिखी 5 फिल्मों को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है।
वरिष्ठ पटकथा लेखक अशोक मिश्र से प्राप्त एक्सक्लूसिव संस्मरण ( संपादक)
बहुत ही संवेदनशील फिल्मकार थे बासु दा, मेरा भी सौभाग्य हुआ उनके साथ काम करने का। आपने बहुत बेहतरीन अनुभव शेयर किए।
Bahut hi sunder lekh likha h Ashok ji