कालों के रोष प्रदर्शन की प्रतिक्रिया में गोरों का जवाबी प्रदर्शन क्यों नहीं? -अपूर्वानंद

एक गोरा पुलिस अधिकारी एक ग़रीब काले की गर्दन को अपने घुटने से दबाता चला जाता है, अपने पेशे का अधिकार मानकर, उसकी घुटी चीख़ों को अनसुना करते हुए और उसके साथी अधिकारी ऐसा करने में उसे बाधा न हो, इसलिए घेरा देकर खड़े रहते हैं, यह चित्र अमेरिका की आत्मछवि पर एक कलंक है।

राष्ट्र ख़ुद को खोते हैं। फिर हासिल भी करते हैं। ख़ुद को खो देने के बाद वापस पाना इतना आसान नहीं। क्योंकि राष्ट्र भूल भी जाते हैं कि वे कौन थे और क्या थे। या क्या बनना चाहते थे!

इतिहास में इसके उदाहरण हैं कि अपनेआप को श्रेष्ठ मूल्यों का वाहक समझने वाले राष्ट्र उन मूल्यों को न सिर्फ़ भूल जाते हैं, बल्कि कई बार उन्हें कुचलने में उन्हें आनंद आने लगता है। अगर उन्हें उन मूल्यों की याद दिलाई जाए तो वे ख़फ़ा हो उठते हैं और याद दिलानेवाले को ही मार डालते हैं क्योंकि वह उनके आनंद को बाधित करता है और उन्हें बताता है कि यह आनंद एक ख़तरनाक नशा है, यह आख़िरकार उनकी आत्मा को पंगु कर देगा। आत्मा के बारे में भी ग़लतफ़हमी है कि वह हर किसी में होती है और ख़ुद ब ख़ुद सक्रिय रहती है। आत्मा को जगाने के लिए या जगाए रखने के लिए लगातार अभ्यास की आवश्यकता होती है। इसके लिए निजी और सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता होती है।

कुछ लोग होते हैं जिनकी आत्मा सतत जाग्रत रहती है। इसके पीछे भी लंबी तपस्या है। ख़ुद से जूझते रहना होता है, अपने आप से निरंतर बहस करते रहना होता है। प्रायः उसे जगाना पड़ता है। इस बहस और आत्मसंघर्ष की ओर उसे ले जाने के लिए। मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ का वह प्रसंग याद कीजिए जिसमें एक पागल प्रकट होता है और एक ‘आत्मोद्बोधमय’ गीत गाता है। वह ‘भावना के कर्तव्यों’ और ‘हृदय के मंतव्यों’ की याद दिलाता है:

लोकहित पिता को घर से निकाल दिया 

जन-मन-करुणा- सी माँ को हकाल दिया

स्वार्थों के टेरियर कुत्तों को पाल लिया 

भावना के कर्तव्यत्याग दिए 

हृदय के मंतव्यमार डाले !

तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,

जम गए, जाम हुए, फँस गए,

अपने ही कीचड़ में धँस गए!!

विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में 

आदर्श खा गए।

व्यक्तियों के साथ यह दुर्घटना होती है। लेकिन समाज भी ऐसे हादसों के शिकार होते हैं जब वे लोक हित और जन-मन-करुणा की संवेदना खो बैठते हैं। स्वार्थ के तेल में विवेक को बघारकर आदर्श को खा जाने की छवि की भयावहता इस गीत को सुननेवाले का चैन भुला देती है:

मेरा सिर गरम है 

इसीलिए भरम है।

सपनों में चलता है आलोचन,

विचारों के चित्रों की अवलि में चिंतन। 

निजत्व -भाफ है बेचैन…”

यह जो पागल है वह वास्तव में अपने से खोया हुआ अपना ही व्यक्तित्व है:

व्यक्तित्व अपना ही, अपने से खोया हुआ,

वही उसे अकस्मात् मिलता था रात में।

इस भीषण गान के कारण 

मैं खड़ा हो गया ख़ुद के ही सामने

निज की ही घन-छाया-मूर्ति सा गहरा 

होने लगी बहस और लगने लगे परस्पर तमाचे।

यह बहस आत्मा के पुनर्वास के लिए अनिवार्य है। इसमें ख़ासी तकलीफ़ है, ख़ुद की आरामगाह से निकलने की चुनौती का सामना है। अपने आग्रहों की निरंतर समीक्षा की चेतना पैदा करने का श्रम है।

जिस स्वार्थ की बात मुक्तिबोध इस कविता में कर रहे हैं, वह प्रायः व्यक्तियों के संदर्भ में ही इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन यह समाज या राष्ट्र के प्रसंग में भी उतना ही लागू होता है।

रिचर्ड रोर्टी अपनी किताब ‘अचीविंग आवर कंट्री’ में सांस्थानिक स्वार्थपरता की चर्चा करते हैं जिसे जॉन ड्यूवी ख़त्म करना चाहते हैं। दूसरी ओर वे कवि वॉल्ट विट्मन का हवाला देते हैं जो सामाजिक रूप से स्वीकार्य मान ली गई परपीड़न रति को किसी सबसे बड़ी बुराई मानते हैं जो समाजों या समुदायों को ग्रस लेती है। यह दमित कामेच्छा है जो हिंसा में ज़ाहिर होती है। विट्मन इसे दूसरों से प्रेम करने की अक्षमता का नतीजा बताते हैं।

दूसरों से प्रेम तो तब सम्भव है जब आप उनके प्रति उत्सुक हों और उन्हें लेकर आपके मन में उनके प्रति कौतूहल हो। दूसरों के प्रति कौतूहल और उनसे आशंका में फ़ासला है। कौतूहल आपको उनके क़रीब ले जाता है, आशंका और दूर। पहले से प्रेम का भाव उत्पन्न होना सम्भव है, दूसरे में घृणा और हिंसा अनिवार्य है।

सवाल यह है कि यह ‘आप’ कौन है और ‘दूसरा’ कौन? राष्ट्रों के संदर्भ में माना जा सकता है कि आप ‘बहुसंख्यक’ समुदाय है और दूसरा ‘अल्पसंख्यक’। धर्म या भाषा या जातीयता, किसी भी आधार पर यह बहुसंख्यकता तय की जा सकती है। राष्ट्र मात्र भावनात्मक इकाई नहीं, वह राज्य के रूप में एक राजनीतिक संगठन भी है। इस राजनीतिक संगठन पर किसका नियंत्रण होगा, किसकी भागीदारी इसमें कितनी होगी, यह एक अंतहीन चलनेवाली धारावाहिक बहस है। इस नियंत्रण से राष्ट्र की कल्पना में भी भागीदारी तय होती है।अमेरिका का रंग क्या है? गोरा या काला या पीला या गेंहुआ? अगर राजनीतिक ताक़त के तौर पर देखें तो गोरों का नियंत्रण ही अमेरिका पर था भले ही वह ख़ुद को समानता का साकार स्वप्न मानता हो। 43 गोरों के बाद ही एक काला अफ़्रीकी अमेरिकी बराक ओबामा 44वाँ राष्ट्रपति बन सका।

वह राह भी आसान न थी। लेकिन ओबामा के राष्ट्रपति बनने के लिए ज़रूरी था कि गोरे अमेरिकी अपने आप से लड़ें, अपने पूर्वग्रहों से, अपनी श्रेष्ठता के अहंकार से और मानें कि उनका प्रतिनिधि, उनका नेता एक काला भी हो सकता है। इस ‘भी’ को पूरी तरह हटाना इतना आसान नहीं। ओबामा के जन्म के प्रमाणपत्र को लेकर आज भी बहस चल रही है और स्वाभाविक भी मानी जाती है। ओबामा को राष्ट्रपति होने के बाद यह प्रमाण-पत्र दिखलाना पड़ा था। और 8 साल राष्ट्रपति रहने और अब उस पद पर न रह जाने के बाद भी ट्रम्प ने इस सवाल को ज़िंदा रखा है। इसकी वजह सिर्फ़ एक है: ट्रम्प को मालूम है कि इस सवाल का कीचड़ उछालने से उनके गोरे मतदाताओं की एक ग्रंथि तुष्ट होती है। 

शोक में गोरे भी शामिल

जॉर्ज फ़्लॉयड की हत्या के बाद सारे अमेरिका में जो शोक और रोष उमड़ पड़ा है, उसमें गोरे भी बड़ी संख्या में शामिल हुए हैं। इसका अर्थ यह है कि अमेरिकी राष्ट्र के जिस फ़साने को लेकर उनमें गर्व है, एवं उसे झूठा साबित होते देखने में अपना अपमान समझते हैं। दो हफ़्तों से चल रहे प्रदर्शनों को अब तक गोरों की बहुसंख्या ने अनावश्यक प्रतिक्रिया नहीं कहा है। उन्होंने नहीं कहा है कि फ़्लॉयड एक अपराधी ही तो था। इस एक मौत पर क्या पूरे देश को ठप्प कर देना उचित है, इस सवाल का पत्थर उन्होंने नहीं चलाया है। पुलिसवालों ने नहीं कहा कि इन विरोध प्रदर्शनों से हमारा मनोबल गिरता है। फ़्लॉयड की हत्या के दोषी पुलिस अधिकारी निलंबित कर दिए गए हैं और उनके पक्ष में कोई प्रदर्शन नहीं हुआ है।

विरोध प्रदर्शन पर सख़्ती की राष्ट्रपति ट्रम्प की धमकी की पुलिस और बाक़ी सुरक्षा संस्थाओं के सदस्यों की तरफ़ से निंदा की गई है। इन सारी संस्थाओं में गोरे ही बहुसंख्या में हैं। उनके समर्थन ही नहीं, सक्रिय निर्णय के बिना पूरे देश में प्रदर्शन शांतिपूर्ण नहीं होते रह सकते थे। इसका अर्थ है कि गोरी, ताक़तवर बहुसंख्या अपने बारे में सोच रही है। वह फ़्लॉयड को इत्मीनान से मार डालनेवाले डेरेक शाविन के अपराध में अपने गोरेपन की ज़िम्मेदारी को कहीं महसूस कर रही है और उसके लिए शर्मिंदा भी है और माफ़ी भी माँग रही है।

ऐसा नहीं हुआ है कि कालों के रोष प्रदर्शन से गोरों को अपमान लगा हो और उन्होंने इसकी प्रतिक्रिया में जवाबी प्रदर्शन किए हों। वे ख़ुद कालों के साथ उनके दुःख, शोक और क्रोध में शरीक हुए।

सवाल गोरों की आत्म स्वीकृति और आत्म भर्त्सना का नहीं, उससे कई क़दम आगे बढ़कर एक नैतिक -राजनीतिक क़दम उठाने का है। वह इस क्षण में अधिकतर गोरों ने उठाया है। डेनवर ब्रोंकोस की नेशनल फ़ुटबॉल लीग के जुलूस में जस्टिन सिमंस ने कहा, ‘मैं अपने गोरे भाई बहनों से यह चाहता हूँ कि वे बाक़ी गोरे भाई बहनों को समझाएँ कि काली ज़िंदगियों की क़ीमत के मायने हों, इसके लिए क्या करना पड़ता है।’

कालों को ऐतिहासिक और सांस्थानिक अन्याय के ख़िलाफ़ क्रोध का अधिकार है, इस बात को गोरों को क़बूल करना है। क्यों यह जारी है, इस सवाल का जवाब भी उन्हें देना है। ख़ुद को और कालों को भी। यह आत्म भर्त्सना से नहीं, ख़ुद को ग़लीज़ मानकर बैठ जाने से नहीं, बल्कि आत्म समीक्षा से और अपने भीतर दूसरों से रिश्ता बनाने की ताक़त को पहचानने और उसका इस्तेमाल करने से होगा।

संख्या के तर्क के ख़तरे

बहुसंख्या को हमेशा संख्या के तर्क के ख़तरे से सावधान रहने की ज़रूरत है। क्या आप अपने आपको इस कारण श्रेष्ठ मानते हैं कि संख्या बल आपके साथ है? या आपके पास अपनी बात के लिए कोई नैतिक तर्क है? मसलन, जहाँ आप अधिक हैं, वहाँ तो आप अपना प्रभुत्व क़ायम करना स्वाभाविक और उचित मानते हैं और जहाँ कम हैं, वहाँ दूसरे बहुसंख्यक की अधीनता मानकर जीते हैं। इसका अर्थ यह है कि आप एक प्रकार के नैतिक अवसरवाद के शिकार हैं। इसका दूसरा अर्थ यह भी है आपमें कोई अंतर्निहित गुण नहीं है, वह सिर्फ़ आप जैसों की संख्या के सहारे ही साबित किया जाता  है। वह नैतिक चतुराई भी है।

इसका एक और पक्ष है। वह यह कि आप स्वाधीनता को आदर्श नहीं मानते। स्वाधीनता सम्पूर्ण होती है और एक की स्वाधीनता दूसरे के बिना पूरी नहीं। इसके मायने यह हैं कि आप अन्य को अपनी शक्ल में नहीं ढालना चाहते, न उसकी स्वतंत्रता के लिए कोई शर्त ज़रूरी मानते हैं। दूसरे को अपने मुताबिक़ चलने को बाध्य करना और उसमें आनंद पाना, यह उदात्त नहीं, क्षुद्र व्यवहार है।

अँधेरे में’ कविता एक स्तर पर खोए हुए ख़ुद की तलाश है। वह तलाश व्यक्ति की होती है, समाज की और राष्ट्र की भी। इससे यह ग़लतफ़हमी न होनी चाहिए कि कोई आदर्श अवस्था थी जो गुम हो गई है। आदर्श की उस कल्पना का खो जाना ही राष्ट्र के लिए दुर्घटना है।

एक गोरा पुलिस अधिकारी एक ग़रीब काले की गर्दन को अपने घुटने से दबाता चला जाता है, अपने पेशे का अधिकार मानकर, उसकी घुटी चीख़ों को अनसुना करते हुए और उसके साथी अधिकारी ऐसा करने में उसे बाधा न हो, इसलिए घेरा देकर खड़े रहते हैं, यह चित्र अमेरिका की आत्मछवि पर एक कलंक है। फ़्लॉयड की घुटी चीख ने अमेरिका को झिंझोड़ कर जगा दिया है। यह ख़ुद अपने सामने खड़े होने का, आत्म समीक्षा का क्षण है। वहाँ चल रहे प्रदर्शन यही कर रहे हैं। क्या इसके बाद सब कुछ बदल जाएगा? यह मान लेना ख़ुशफ़हमी है। लेकिन यह अवसर तो है ही कि अमेरिका ख़ुद को बदलने की बुनियादी बहस फिर से शुरू करे। ऐसा करके ही वह ड्यूवी और विट्मन के अमेरिका को वापस हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ सकेगा।

अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं। सौज- सत्यहिन्दी

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