बड़े गुलाम अली खान की यह प्रस्तुति एक अद्भुत गायन होने के साथ-साथ हमारी सांस्कृतिक विविधता और सभ्यता को एक शानदार श्रद्धांजलि भी है-
https://www.youtube.com/watch?v=VWXVj2Xus7E&feature=youtu.be
अक्सर ही ऐसा होता है कि मैं काम से फारिग होकर शाम के खाने से पहले करीब एक घंटे तक भारतीय शास्त्रीय संगीत सुनता हूं. पहले मेरा सहारा वे कैसेट और सीडी थे जिन्हें मैंने कई सालों में इकट्ठा किया था. अब मैं यूट्यूब नाम के महाभंडार की शरण लेता हूं. कभी मैं कोई खास कलाकार या राग खुद ही चुन लेता हूं तो कभी मैं मामला यूट्यूब के अलगोरिदम पर छोड़ देता हूं. कुछ हफ्ते पहले इसके जरिये मुझे उस्ताद बड़े गुलाम अली खां की राग हंसध्वनि में दी गई एक प्रस्तुति दिखी. एक बार इसे सुना तो फिर मैं इसे सुनता ही गया.
बड़े गुलाम अली खां का जन्म 1902 में पश्चिम पंजाब के कसूर में हुआ था. यह जगह अब पाकिस्तान में पड़ती है. उनके पिता अली बख्श पटियाला घराने के गायक थे. इस घराने को स्थानीय सिख महाराजाओं का संरक्षण मिला हुआ था. बंटवारे के बाद बड़े गुलाम अली खां ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया. लेकिन कुछ समय बाद उन्हें लगा कि वहां शास्त्रीय संगीत के कद्रदान उतने ज्यादा नहीं हैं. इसके बाद उन्होंने भारत लौटने की इच्छा जताई. यह 1950 के दशक की बात है. उन दिनों आज के उलट दोनों देशों के लोगों के लिए आर-पार जाना कहीं आसान था.
सो बड़े गुलाम अली खान मुंबई आ गए जो तब बंबई था. यहां किसी ने उनका हाल मोरारजी देसाई को सुनाया. वे तब अविभाजित बॉन्बे राज्य के मुख्यमंत्री थे. मोरारजी भाई ने उस्ताद के लिए एक सरकारी आवास का इंतजाम कर दिया. उधर, जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई में चल रही केंद्र सरकार ने इसका प्रबंध किया कि पाकिस्तान से आए इस मुसलमान को भारतीय नागरिकता आराम से मिल जाए.
हंसध्वनि कर्नाटक संगीत का एक प्यारा और मीठा राग है. कहते हैं कि इसे 18वीं सदी में रामस्वामी दिसखितार ने बनाया था. इस राग पर कई गीतों की रचना हुई है. इनमें से एक अति प्रसिद्ध वातापिगणपतिम है जिसे एमएस सुब्बुलक्ष्मी और एमएल वसंतकुमारी ने भी गाया है. कुछ समय बाद इस राग को अपनी जरूरत के हिसाब से थोड़ा-बहुत बदलाव के साथ हिंदुस्तानी संगीत के साधकों ने भी अपना लिया.
मैं खुद कर्नाटक संगीत से कहीं ज्यादा हिंदुस्तानी शैली का संगीत सुनता हूं. मैंने हंसध्वनि राग को अमीर खान और किशोरी अमोनकर जैसे दिग्गजों की आवाज में कई बार सुना है. पन्ना लाल घोष की बांसुरी ने भी इसे खूब बजाया है. लेकिन यह पहली बार था जब मैंने इसे बड़े गुलाम अली खां की आवाज में सुना. इससे पहले मैंने अक्सर उनकी पहाड़ी और बिहाग राग में गाई बंदिशें ही सुनी थीं. मैंने इस मामले में मुझसे ज्यादा ज्ञान रखने वाले एक मित्र से पूछा तो मालूम हुआ कि मैं सही था. बड़े गुलाम अली खां दुर्लभता से ही हंसध्वनि गाते थे और इसलिए यह एक बेहद खास रिकॉर्डिंग थी.
यूट्यूब पर थोड़ा और खोजबीन करने पर मुझे यह जानकर आनंद हुआ कि हंसध्वनि राग में यह प्रस्तुति बड़े गुलाम अली खां ने मेरे गृहनगर बेंगलुरू में ही दी थी. यह आयोजन 1956 में हुआ था और यह रामनवमी के त्यौहार का हिस्सा था जो आज की तरह उन दिनों भी शहर के सांस्कृतिक कैलेंडर की अहम गतिविधियों में शुमार था. इसे हमेशा चामराजपेट के फोर्ट हाईस्कूल के विशाल मैदान में आयोजित किया जाता था.
जिस फोर्ट या किले के नाम पर हाई स्कूल का नाम रखा गया था उसे 16वीं सदी में इस इलाके में राज करने वाले कैंपे गौड़ा ने बनाया था. तब इसका ढांचा मिट्टी से बना था. बाद में हैदर अली ने इसे फिर से बनाया और इसके लिए पत्थरों का इस्तेमाल किया. 18वीं सदी में हैदर अली के बेटे टीपू सुल्तान ने इस किले की खूबसूरती में बढ़ोतरी की. किले के नाम पर जो स्कूल है वह 20वीं सदी में बना था और इसकी सुंदर इमारत पर ब्रिटिश राज वाली शैली की छाप है.
इन जानकारियों ने मेरे आनंद को बढ़ाने का काम किया. हाल के समय में, कई बार मैं भी रामनवमी के इस आयोजन में शामिल हुआ हूं. मेरी पैदाइश 1956 के बाद की है. लेकिन उस साल बड़े गुलाम अली खां को सुनने वालों में ऐसे कुछ लोग जरूर थे जिनसे बाद में मेरा परिचय होने वाला था. उदाहरण के लिए बेंगुलुरु के मशहूर रसिक शिवराम और ललिता उभयकर. हो सकता है कि उस दिन की महफिल में महान भौतिक विज्ञानी सीवी रमन भी रहे हों जिनकी शास्त्रीय संगीत में काफी दिलचस्पी थी. शायद चामराजपेट में रहने वाले मेरे कुछ रिश्तेदारों ने भी उस दिन बड़े गुलाम अली खां को सुना हो.
तो बड़े गुलाम अली खां उस दिन बेंगलुरू के फोर्ट हाई स्कूल में हो रहे रामनवमी के आयोजन में राग हंसध्वनि सुना रहे थे. एक मुसलमान संगीतकार जो आज के पाकिस्तान में पैदा हुआ. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का एक बड़ा उस्ताद जिसका ताल्लुक एक ऐसे घराने से था जिसे सिख महाराजाओं का संरक्षण था. वह एक ऐसा राग सुना रहा था जिसका उद्गम कर्नाटक संगीत में था. उस त्योहार के मौके पर जिसका नामकरण हिंदू धर्म के सबसे महान देवता के नाम पर हुआ है. और यह आयोजन ब्रिटिश काल में बने एक स्कूल में हो रहा था जिसका नाम एक ऐसे किले के नाम पर रखा गया था जो 16वीं सदी में बना था और जिसके मौजूदा स्वरूप पर हिंदू और मुस्लिम, दोनों धर्मों के शासकों की छाप थी.
यह भी गौर करने वाली बात है कि यह आयोजन 1956 में हुआ था. यह वही साल था जब दक्षिण भारत के कन्नड़भाषी इलाकों को मिलाकर एक नया राज्य बनाया गया था. अंग्रेजी राज के दौर में यह इलाका मैसूर और हैदराबाद की रियासतों के अलावा मद्रास और बॉम्बे प्रेसीडेंसी में भी बंटा हुआ था. आजादी के बाद इन इलाकों को एक करने के लिए बड़ा आंदोलन चला जिसकी परिणित 1956 में कन्नड़भाषी लोगों के लिए एक अलग राज्य – कर्नाटक – के निर्माण के साथ हुई.
कन्नड़ के मशहूर लेखक कोटा शिवराम कारंत ने कभी कहा था कि भारतीय संस्कृति को किसी एकरंगी टुकड़े की तरह नहीं देखा जा सकता. उनका कहना था, ‘आज के भारत की संस्कृति में इतने अलग-अलग रंग हैं कि इसे संस्कृति के बजाय संस्कृतियां कहना चाहिए. इस संस्कृति की जड़ें प्राचीन काल तक जाती हैं और समय के साथ यह कई तरह की नस्लों और लोगों के संपर्क से विकसित हुई है. इसके कई घटक हैं और यह बताना असंभव है कि कौन सा यहां का है और कौन सा बाहर से आया, किसे हमने प्रेम से आत्मसात किया और किसे हम पर थोपा गया. अगर हम इस तरह से भारतीय संस्कृति को देखें तो हमें अहसास होता है कि यहां अंधराष्ट्रीयता के लिए कोई जगह नहीं है.’
कारंत के इस कथन के साथ मैं रबींद्रनाथ टैगोर का भी एक कथन जोड़ना चाहूंगा. हमारी साझी सांस्कृतिक विरासत पर गुरुदेव ने एक बार कहा था, ‘कोई नहीं जानता कि किसकी पुकार पर मानवों की इतनी सारी धाराएं कितनी ही अनजानी जगहों से बेचैन लहरों की तरह आईं और इस समुद्र में विलीन हो गईं. आर्य और गैर आर्य, द्रविड़, चीनी, शक, हूण, पठान और मुगल आए और यहां एक शरीर में घुल-मिल गए.’
जिस बहुलतावाद और सांस्कृतिक विविधता पर कारंत और टैगोर ने जोर दिया वह आज भारत में जीवन के ज्यादातर पहलुओं में दिखता है और शायद सबसे ज्यादा (जैसा कि ये दोनों भी अच्छी तरह से जानते थे) हमारे शास्त्रीय संगीत में. चाहे वह कोई साज हो या राग या शैली या फिर कलाकार, हम नहीं कह सकते कि इसमें क्या हिंदू है और क्या मुसलमान. कौन यहां का है, कौन बाहर से आया.
मुझे पता नहीं कि हमारे प्रधानमंत्री शास्त्रीय संगीत के शौकीन है या नहीं. नहीं भी हैं तो भी मेरा उनसे और हिंदुत्व के हर समर्थक से अनुरोध है कि वे आधे घंटे का समय निकालकर यूट्यूब पर वह प्रस्तुति सुनें जिसका मैंने इस लेख की शुरुआत में जिक्र किया है. हो सकता है कि तब उन्हें भारत की अपनी संकीर्ण समझ पर फिर से विचार करने की जरूरत महसूस हो. शायद वे समझ पाएं कि भारतीय होने का अर्थ क्या है. क्योंकि 1956 में बेंगलुरु के फोर्ट हाई स्कूल में रामनवमी के मौके पर राग हंसध्वनि गाने का मतलब है कई भाषाओं, धर्मों, क्षेत्रों, राजनीतिक सत्ताओं, संगीत की परंपराओं और वास्तुकला की शैलियों का एकसाथ आना और घुलना-मिलना. यह हमारे देश की सांस्कृतिक विविधता और हमारी सभ्यता को एक शानदार श्रद्धांजलि है. और संगीत का एक अद्भुत उदाहरण तो यह है ही.
सौज- सत्याग्रह
भाई, इस आलेख मे उल्लेखित राग का नाम ‘हंसध्वनी’ है ऐसा प्रतीत होता है.
इसे ‘हमसाधवानी’ ऐसे ग़लत तरीक़े से क्यों लिखा गया है ? गलती गुहा साहब की है, एडिटर की है या अनुवादक की है ? जिसकी भी हो पहले सुधारें.