जाहिद खान
आधुनिक रंगमंच में हबीब तनवीर की पहचान लोक को पुनर्प्रतिष्ठित करने वाले महान रंगकर्मी की है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में 1 सितम्बर, 1923 को जन्मे हबीब तनवीर, रंगमंच में अपने आगाज से लेकर अंत तक उन सांस्कृतिक मूल्यों-रंगों को बचाने में लगे रहे, जिनसे हमारे मुल्क की मुकम्मल तस्वीर बनती है। उर्दू शायर नजीर अकबरावादी के फलसफे और जिंदगी पर मब्नी उनका नाटक ‘आगरा बाजार’ हो या फिर शूद्रक के संस्कृत नाटक ‘मृच्छकटिकम’ पर आधारित ‘मिट्टी की गाड़ी’, हबीब तनवीर अपने नाटकों के जरिए अवाम को हमेशा गंगा-जमुनी तहजीब से जोड़े रहे। लोक परंपराओं में तनवीर का गहरा यकीन था। उनके नाटकों में हमें जो ऊर्जा दिखाई देती है, वह दरअसल लोक से ही अर्जित है। वे सही मायनों में एक लोकधर्मी आधुनिक नाटककार थे। उन्होंने जिस महारत से आधुनिक रंगमंच में लोक का इस्तेमाल किया, वह विरलों के ही बस की बात है।
आधुनिक रंगकर्म का सम्पूर्ण अध्ययन होने के बावजूद, हबीब तनवीर ने अपने नाटक देशज रंग पद्धतियों के जरिये ही अवाम के सामने प्रस्तुत किए। उनका मानना था,‘‘पश्चिमी देशों से उधार लिए गए या की जा रही नकल वाले शहरी थियेटर का स्वरूप पूर्णतः अपूर्ण एवं अपर्याप्त है तथा सामाजिक अपेक्षाएं पूरी करने, जीवन के ढंग, सांस्कृतिक चलन को प्रदर्शित करने तथा तत्कालीन भारत की मूलभूत समस्याओं के निराकरण में अक्षम हैं। भारतीय संस्कृति के बहुआयामी पक्षों का सच्चा व स्पष्ट प्रतिबिम्ब लोक नाटकों में ही देखा व पाया जा सकता है।’’ हबीब तनवीर की ये सोच का ही नतीजा था कि उनके ज्यादातर कामयाब नाटक या तो लोक नाटक हैं या फिर उनमें लोक तत्वों की भरमार है। उनका लोक से लगाव कोई रोमानी नहीं था, बल्कि वे इसे दिल से जीते थे। छत्तीसगढ़ के अनगढ़ लोक कलाकारों को उन्होंने एक बार अपने नाटक में शामिल किया, तो ये कलाकार हमेशा के लिए उनके नाटक दल के अभिन्न हिस्से हो गए। देश ही नहीं दुनिया भर में इन लोक कलाकारों को लेकर हबीब तनवीर ने न सिर्फ भरपूर नाम कमाया, बल्कि इससे भी बढ़कर भारतीय लोक परंपराओं को लोगों तक पहुंचाया। उन्होंने रंगमंच में उस वक्त प्रचलित विभिन्न धाराओं के बरक्स एक अलग ही तरह की रंगभाषा ईजाद की। एक नया रंग मुहावरा गढ़ा। लोक भाषा तथा दीगर मानक भाषाओं के बीच आवा-जाही के रिश्ते से बनी हबीब तनवीर की रंग भाषा, आगे चलकर नये सौन्दर्यशास्त्र का आधार बनी। नाटक में जिस लोकधर्मी ख्याल का हम तसव्वुर करते हैं, वह हबीब तनवीर के कमोबेश सभी नाटकों में मौजूद है। हालांकि ये उनका जोखिम भरा कदम था, लेकिन वे इसमें न सिर्फ कामयाब हुए, बल्कि भारतीय रंगमंच में एक नई शैली चल निकली। ‘हबीब तनवीर शैली’। इस शैली का उनके बाद आए कई ड्रामानिगारों ने अनुसरण किया, लेकिन ये ड्रामानिगार अपने नाटकों में वह चमत्कार पैदा नहीं कर पाए, जो हबीब तनवीर ने थोड़े से ही समय में ही कर दिखाया था।
अपने जीते जी गाथा पुरुष बन जाने वाले हबीब तनवीर ने जब रंगमंच में पर्दापण किया, तब लोक सामायिक रंगमंचीय गतिविधियों की केन्द्रीय चिंताओं में कहीं से कहीं तक नहीं था। सभी नामचीन नाटककार और नाट्य निर्देशक पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे थे। इस लिहाज से देखें, तो उनका लोक रूपों, लोक संस्कृति और प्रदर्शन में दिलचस्पी लेना, उस वक्त के हिसाब से एक दम क्रांतिकारी कदम था। दरअसल, लोक संस्कृति को लेकर उनका नजरिया अपने समकालीनों से बिल्कुल जुदा था। लोक के जानिब तनवीर का ये नजरिया वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन से जुड़े रहने की वजह से बना था। अपने शुरूआती दौर में उन्होंने भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ में सक्रिय रूप से भागीदारी की थी। बीसवीं सदी के चौथे दशक में मुल्क के अंदर तरक्कीपसंद तहरीक अपने उरूज पर थी। इप्टा के नाटक अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता और सरोकारों के चलते पूरे मुल्क में मकबूल और मशहूर हो रहे थे। इप्टा से जुड़े हुये अदाकर-निर्देशकों ने हिंदोस्तान में पहली बार लोक नाट्य स्वरूपों को समकालीन सार्थक रूप में प्रस्तुत किया। हबीब तनवीर भी आजादी की जद्दोजहद के उस दौर में इप्टा के अभिन्न हिस्सा थे। एक वक्त तो ऐसा भी आया कि उन्हें इप्टा को पूरी तरह संभालना पड़ा। जन आंदोलन के दौरान साथियों की गिरफ्तारी के बाद, कुछ ऐसे हालात बने कि इप्टा की सारी जिम्मेदारी उनके ऊपर आ गई। साल 1948-50 के बीच उन्होंने नाटक लिखने के साथ-साथ उनका निर्देशन भी किया। अपने आत्मकथ्य ‘ए लाईफ इन थियेटर’ में हबीब तनवीर लिखते हैं, ‘‘दरअसल निर्देशन मुझ पर आरोपित किया गया। वह मेरा चुनाव नहीं था, मेरा चुनाव तो अभिनय था।’’
1 सितंबर, 1923 में अविभाजित मध्यप्रदेश के रायपुर में जन्मे हबीब अहमद खान की शुरूआती तालीम रायपुर में हुई। शायरी से लगाव के चलते, उन्होंने ‘तनवीर’ अपना तखल्लुस चुना। नाटक में पूरी तरह उतर जाने के बाद, शायरी तो उनसे काफी पीछे छूट गई। अलबत्ता ‘तनवीर’ उनके नाम के आगे हमेशा के लिए जुड़ा रहा। उन्हें बचपन से ही नाटक और फिल्मों का शौक था। खासकर पारसी थियेटर उन्हें खूब आकर्षित करता था। बड़े भाई की रंगकर्म में सक्रियता ने उन्हें भी नाटक के प्रति उत्साहित किया। महज बारह साल की उम्र में उन्होंने शेक्सपियर के मशहूर नाटक ‘किंग जॉन’ में प्रिंस आर्थर का किरदार निभाया। बहरहाल, पढ़ाई के साथ-साथ हबीब तनवीर का शायरी और अभिनय का शौक परवाज चढ़ता रहा। नागपुर के मॉरिस कॉलेज से उन्होंने बी.ए. किया। बाद में एम.ए. उर्दू के लिए अलीगढ़ गए और फिल्मों का शौक उन्हें आखिरकार, बंबई ले आया। बंबई में पैर जमाने के लिए उन्होंने जमकर संघर्ष किया। कई छोटे-मोटे काम किए। मसलन आकाशवाणी में संगीतात्मक रूपक, पत्र-पत्रिकाओं में फिल्मी समीक्षा, विज्ञापन फिल्मों की स्क्रिप्ट वगैरह लिखीं। तनवीर की जी तोड़ मेहनत जल्द ही रंग लाई। थोड़े ही अरसे के बाद, उन्हें अपनी मंजिल-ए-मकसूद यानी फिल्मों में भी मौका मिल गया। लिहाजा उन्होंने फिल्मों में अदाकारी की और कई फिल्मों के गाने और संवाद भी लिखे।
बंबई में फिल्मों और पत्रकारिता में मशरूफियत के बावजूद हबीब तनवीर प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा से जुड़े रहे। प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सज्जाद जहीर के घर होने वाली साप्ताहिक बैठकों में वे नियमित तौर पर जाते। इन साहित्यिक बैठकों में तनवीर अपनी पुरकशिश आवाज में शायरी पढ़ते, जो बहुत पसंद की जाती। उनकी गजलों का पहला सेट जिसमें छह गजलें शामिल थीं, अली सरदार जाफरी द्वारा संपादित उर्दू के मकबूल रिसाले ‘नया अदब’ में एक साथ शाया हुईं। इप्टा की सरगर्मियों में भी तनवीर बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। इप्टा से जुड़कर, उन्होंने कई नुक्कड़ नाटक लिखे और निर्देशित किए। ‘शांतिदूत कामगार’ उनका लिखा और निर्देशित पहला नाटक था। प्रेमचंद की कहानी पर आधारित ‘शतरंज के मोहरे’, कृश्न चंदर का नाटक ‘मेरा गांव’, उपेन्द्रनाथ अश्क का ‘दंगा’, विश्वनाथ आदिल का ‘दिन की एक रात’ का उन्होंने इन्हीं दिनां निर्देशन किया। फिल्मी दुनिया से हबीब तनवीर का मोह भंग जल्दी ही हो गया। अपने आत्मकथ्य ‘ए लाईफ इन थियेटर’ में तनवीर लिखते हैं,‘‘जो भी हो सही या गलत, मैं इस बात पर मुतमईन था कि मेरे पास कहने के लिए कुछ था, जैसा भी हो और जो कुछ भी कहना था, सौन्दर्यशास्त्र में, प्रदर्शनकारी कलाओं में और साथ ही सामाजिक रूप से, राजनैतिक नजरिये से उसका माध्यम सिनेमा नहीं था, वह थियेटर था, यह एक साफ बोध था। मन में पांचवें दशक के प्रारम्भिक दिनों में, जो मुझे दिल्ली ले आया।’’ बहरहाल, दिल्ली आकर उन्होंने अपना नाटक ‘शतरंज के मोहरे’ दोबारा लिखा और इसमें खालिस लखनवी उर्दू जबान का इस्तेमाल किया। नाटक इस बार ज्यादा कामयाब साबित हुआ।
साल 1954 में लिखा ‘आगरा बाजार’ वह नाटक था, जिसने हबीब तनवीर को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। अठारहवीं सदी के मशहूर अवामी शायर नजीर अकबरावादी की जिंदगी और रचनाओं पर आधारित नाटक ‘आगरा बाजार’ में उन्होंने न सिर्फ आम आदमी की जिंदगी और उसके रोजमर्रा के सरोकारों को अपना विषय बनाया, बल्कि लेखन में भी वह मुहावरा और तरीका बरता, जो पारंपरिक अभिजन कविता के आदाब और मौजू के बिल्कुल खिलाफ था। ये वह दौर था जब हिंदोस्तानी रंगमंच में हिंदोस्तानी, अपनी मिट्टी से जुड़ाव एवं शैली का डंका पीटने वाले नारे और मुहावरे ईजाद नहीं हुये थे। ‘आगरा बाजार’ हिंदोस्तान के रंगमंच में मील का पत्थर साबित हुआ। नाट्य आलोचक इकबाल नियाजी ने ‘आगरा बाजार’ का मूल्यांकन करते हुए लिखा है,‘‘आगरा बाजार जैसे नाटक की प्रस्तुति ने हिंदोस्तानी नाटककारों के सामने ये मिसाल पेश की, कि किस तरह यथार्थवादी ढांचों को पसंद करके पश्चिमी और पूर्वी ड्रामा रिवायतों से जुड़कर, एक नये तरह की तर्ज पर ड्रामों को प्रस्तुत किया जा सकता है। जिसमें लोक नाटक के फार्म को और उसके असर को जान-बूझकर ठूंसा नहीं गया है, फिर भी नाटक के डायलॉग से लोक नाटक की अदाकारी व कारीगरी के रंग फूटते हुए महसूस होते हैं।’’ नाटक ‘आगरा बाजार’ हबीब तनवीर के उन दो मरकजी रुझानों की ओर इशारा करता है, जो आगे चलकर उनके सारे नाटकों में दिखाई दिए। पहला, विचारधारा और कलागत स्तर, उनका लोक जीवन, आम आदमी की ओर झुकाव। दूसरा, नाटक में शायरी और संगीत का इस्तेमाल। नाटक में उन्होंने यह प्रयोग महज खानापूर्ति के लिए नहीं किए, बल्कि ये सब उनके नाट्यकर्म का जरूरी हिस्सा थे। अपनी संगीतमयी प्रस्तुतियों के बारे में हबीब तनवीर का कहना था,‘‘मेरी प्रस्तुतियां संगीत प्रधान इसलिए भी रहीं हैं कि दोनों चीजों में मेरा थोड़ा बहुत दखल है, शायरी में भी ओर उसके बाद संगीत में।’’ बचपन में सुने 100-200 छत्तीसगढ़ी लोक गीत, तो उन्हें ऐसे ही मुंह जबानी याद थे।
‘आगरा बाजार’ की जबरदस्त कामयाबी के बाद हबीब तनवीर पेशेवर थियेटर की अपनी योजना को साकार करने में जुट गए। उनकी इस योजना को अमलीजामा पहनाने में मदद की बेगम कुदसिया जैदी ने। थियेटर के लिए जरूरी स्क्रिप्ट बैंक और पैसों को जुटाने की जिम्मेदारी बेगम जैदी ने अपने जिम्मे ले ली। इस तरह साल 1955 में दिल्ली का पहला व्यावसायिक थियेटर ‘हिंदुस्तानी थियेटर’ अस्तित्व में आया। ‘हिंदुस्तानी थियेटर’ के लिए तनवीर कोई नाटक निर्देशित करते, इससे पहले थियेटर की आला तालीम हासिल करने के इरादे से लंदन पहुंच गए। एक ब्रिटिश काउंसिल की स्कॉलरशिप और अलीगढ़ यूनीवर्सिटी के तत्कालीन कुलपति डॉ. जाकिर हुसैन की आर्थिक मदद से उन्होंने लंदन के प्रसिद्ध थियेटर स्कूल ‘रॉयल अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स’ यानी ‘राडा’ में दाखिला ले लिया। हबीब तनवीर ने यूरोप में अपने तीन साल बिताए। इन तीन सालों में उन्होंने यूरोपीय रंगमंच को करीब से देखा। खास कर बर्लिन में तो तनवीर ने आठ महीने गुजारे, जहां जर्मन नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त की नाट्य प्रस्तुतियां देखीं। बर्तोल्त ब्रेख्त के नाटकों से हबीब तनवीर ने काफी कुछ सीखा। उनके नाटकों में हमें जो जनपक्षधरता दिखाई देती है, उसमें ब्रेख्त के नाटकों का बड़ा योगदान है।
हिंदोस्तान वापसी पर तनवीर की पहली प्रस्तुति हिंदुस्तानी थियेटर के बैनर पर हुई। शूद्रक के संस्कृत नाटक ‘मृच्छकटिकम’ के हिन्दी अनुवाद ‘मिट्टी की गाड़ी’ को उन्होंने छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों के साथ रंगमंच पर उतारा। इस नाटक में उन्होंने पूरी तरह से लोक रंगमंच की पारंपरिक शैली और तकनीक का प्रयोग किया। नाटक को एक खास हिंदोस्तानियत में ढाला। जाहिर है, नाटक बेहद मकबूल हुआ। ‘मृच्छकटिकम’ को उस वक्त लोकधर्मी शैली में करना, एक क्रांतिकारी कदम था। लेकिन संस्कृत पंडितों ने इस पर काफी एतराज किया। संस्कृत विद्वानों का यह एतराज, खास तौर पर नाटक की शैली पर था। नाटक लोकधर्मी शैली में खेला गया था और उनका कहना था कि नाटक क्लासिकी शैली में ही किया जाना चाहिए। हबीब तनवीर इन आलोचनाओं से बिल्कुल नहीं घबराए। संस्कृत नाट्य पंडितों के उलट तनवीर का मानना था कि लोक परंपराओं की मदद से ही संस्कृत नाटकों की शैली तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। लाख आलोचनाओं के बावजूद नाटक ‘मिट्टी की गाड़ी’ ने ही आधुनिक रंगमंच में संस्कृत नाटकों को प्रस्तुत करने का वह सहज और सरल रास्ता सुझाया, जो ठेठ हिंदोस्तानी था।
लोक अदब और लोक रिवायतों से हबीब तनवीर को बेहद लगाव था। उन्होंने कई लोक कथाओं को विकसित कर नाटक में तब्दील किया। मसलन ‘जालीदार पर्दे’-रूसी लोक कथा पर आधारित है, तो ‘सात पैसे’-चैकोस्लोवाकिया की लोक कथा, ‘अर्जुन का सारथी’-छत्तीसगढ़ी कहानी, ‘गांव का नाव ससुराल, मोर नाव दामाद’-छत्तीसगढ़ी लोक कथा, ‘ठाकुर पृथ्वीपाल सिंह’-राजस्थानी लोक कथा, ‘चरनदास चोर’-राजस्थानी लोक कथा, ‘बहादुर कलारिन’-छत्तीसगढ़ी लोक कथा, ‘सोनसागर’-बिहारी लोक कथा, ‘हिरमा की अमर कहानी’-आदिवासी लोक कथा पर आधारित नाटक हैं। इन नाटकों की खासियत ये है कि तनवीर ने इन लोक कथाओं को सीधे-सीधे ड्रामा रूप में तब्दील नहीं किया है, बल्कि लोक कथा के केन्द्रीय विचार को लेकर अपने हिसाब से नाटक में विस्तारित किया। इम्प्रोवाईज किया। यही नहीं इन नाटकों को उन्होंने मौजूदा परिवेश से भी जोड़ा, जो लोगों को खूब पसंद आया।
बेगम जैदी और उनके ‘हिंदुस्तानी थियेटर’ से हबीब तनवीर का साथ ज्यादा लंबा नहीं चला। बेगम जैदी से वैचारिक मतभेद के चलते, उन्होंने हिंदुस्तानी थियेटर छोड़ दिया और इस तरह साल 1959 में ‘नया थियेटर’ की नींव पड़ी। अदाकारा और निर्देशक मोनिका मिश्रा जो आगे चलकर तनवीर की जिंदगी की शरीके हयात बनीं समेत नौ लोगों ने ‘नया थियेटर’ की बकायदा शुरूआत कर दी। ‘सात पैसे’, ‘रुस्तम सोहराब’, मोलियर का ‘द बुर्जुआ जेंटलमैन’, ‘मेरे बाद’ वगैरह ‘नया थियेटर’ के शुरूआती नाटक थे। दिल्ली में जीविकायापन के लिये हबीब तनवीर ने नाटक के साथ-साथ स्वतंत्र पत्रकारिता भी की। ‘लिंक’, ‘स्टेटसमेन’, ‘पेट्रिएट’ के लिये उन्होंने फिल्म समीक्षा, नाट्य समीक्षा आदि लिखीं। वे कुछ बरस सोवियत प्रकाशन विभाग में वरिष्ठ संपादक के पद पर भी रहे। साल 1970 में सरकार ने उनकी नाट्य सेवा का सम्मान करते हुये ‘संगीत नाटक अकादमी’ पुरस्कार से नवाजा। अकादमी ने तनवीर से उनके मशहूर नाटक ‘आगरा बाजार’ का पुनर्सृजन करने के लिए कहा। इस बार तनवीर ने ‘आगरा बाजार’ के संगीत में छत्तीसगढ़ी लोकधुनों के अलावा दीगर प्रयोग किए, जो काफी हिट रहे। नाटक बेहद मकबूल हुआ। नाटक के सैकड़ों शो हुए। गोयाकि ‘आगरा बाजार’ ओर हबीब तनवीर एक दूसरे के पर्याय हो गए।
नाटक ‘चरनदास चोर’ तक आते-आते हबीर तनवीर ने अपनी एक अलग पहचान बना ली थी। उनके नाटक खालिस छत्तीसगढ़ी मुहावरे में खेले जाते। ‘अर्जुन का सारथी’, ‘गौरी-गौरा’, ‘चपरासी’, ‘गांव के नाव ससुराल, मोर नाम दामाद’ आदि नाटक पूरी तरह से छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य शैली नाचा में खेले गए। इन नाटकों को महानगरीय दर्शकों ने भी खूब सराहा। साल 1975 में ‘चरनदास चोर’ के साथ ही तनवीर की शैली और प्रस्तुति ने अपनी पूर्णता पा ली। इसके बाद उन्होंने अपनी शैली को बिल्कुल नहीं बदला और आखिर तक इसी शैली में नाटक खेलते रहे। नाटक ‘चरनदास चोर’ के कथ्य की ताजगी और दिलचस्प व आकर्षक पेशकश ने पूरे मुल्क में तहलका मचा दिया। एक शुद्ध लोक कहानी को बिल्कुल नया रूप देकर, मौजूदा हालात से जोड़कर कैसे सामायिक बनाया जा सकता है ?, इसकी एक शानदार मिसाल है ‘चरनदास चोर’। साल 1982 में एडिनबरा के विश्व ड्रामा फेस्टिवल में बावन मुल्कों के ड्रामों के बीच ‘चरनदास चोर’ की कामयाबी ने हबीर तनवीर और नया थियेटर को दुनियावी स्तर पर मकबूल कर दिया। ‘चरनदास चोर’ के जरिए तनवीर ने ये साबित कर दिखाया कि लोक परंपराओं के मेल और देशज रंगपद्धति से कैसे आधुनिक नाटक खेला जा सकता है।
हबीब तनवीर द्वारा विकसित रंगमंच सिर्फ लोक रंगमंच ही नहीं था, बल्कि वह आधुनिक रंगमंच भी था। तनवीर आधुनिक दृष्टि वाले नाट्य निर्देशक थे। उनके पास इतिहास और सियासत की गहरी समझ थी। उनका लोक कला में दिलचस्पी लेना और लोक मुहावरों में काम करना, वैचारिक फैसला था। और अपने इस फैसले पर वे आखिर तक कायम रहे। नाटक ‘आगरा बाजार’ से लेकर ‘एक औरत हिपेशिया भी थी’ तक उन्होंने दर्जन भर से ज्यादा अर्थपूर्ण नाटक लिखे और निर्देशित किये। अपने नाटकों के जरिये वे दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ-साथ, उन्हें सम-सामायिक मुद्दों से भी जोड़ते रहे। हबीब तनवीर के हर नाटक में एक मकसद है, जो नाटक के अंदर अंतर्धारा की तरह बहता है। मसलन नाटक ‘आगरा बाजार’ में भाषा और अदब के जानिब कुलीन और जनवादी नजरियों के बीच कशमकश है, तो ‘चरनदास चोर’ सत्ता, प्रशासन और व्यवस्था पर सवाल उठाता है। ‘हिरमा की अमर कहानी’ और स्टीफन ज्वाईंग की कहानी पर आधारित ‘देख रहे हैं नयन’ सियासी नाटक हैं, जो हर दौर में सामायिक रहेंगे। ‘बहादुर कलारिन’ में वे सामंतवाद पर वार करते हैं। नाटक ‘जिन लाहौर नहीं देख्या, वो जन्मा ही नईं’ हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द पर और ‘पांगा पंडित’ समाज में व्याप्त छुआ-छूत को उजागर करता है। ‘मिट्टी की गाड़ी’ में वे समाज को लोकसत्ता से जोड़ने की ठोस कोशिश करते हैं। ऐसा नाटक जिसका कोई मकसद न हो उसके हबीब तनवरी खिलाफ थे। उनका मानना था,‘‘क्लासिक ड्रामे चाहे यहां के हों या पश्चिम के, अगर उनमें समाज के प्रति जागरूकता के आसार और समझ को झंझोड़ने की ताकत नहीं हैं, तो वो मात्र ऐशो-आराम को ही बढ़ावा देंगे।’’ साल 2009 ‘नया थियेटर’ का गोल्डन जुबली साल था। हबीब तनवीर की ख्वाहिश थी कि ‘नया थियेटर’ की गोल्डन जुबली धूम-धाम से मनाई जाये। यही नहीं वे अपने आखिरी दिनों में आत्मकथा लिखने में भी मशरूफ थे। आत्मकथा का एक भाग पूरा हो चुका था और गोया कि दूसरे पर काम जारी था, लेकिन उनकी ये ख्वाहिशें अधूरी ही रह गईं। 8 जून, 2009 को हबीब तनवीर दास्तान सुनाते-सुनाते खुद ही सो गये। भले ही आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन इस लोकधर्मी आधुनिक नाटककार का नाम और काम हिंदोस्तानी रंगमंच में हमेशा जिंदा रहेगा। भारतीय रंगमंच में कोई दूसरा हबीब तनवीर नहीं होगा।