छत्तीसगढ़ किसान सभा ने बोधघाट परियोजना पर कहा है कि सिंचाई के नाम पर विनाश मंजूर नहीं है। उसकी जगह वैकल्पिक विकेंद्रीकृत लघु सिंचाई योजनाओं पर काम होना चाहिए। यदि सरकार वास्तव में आदिवासी हितों के प्रति चिंतित है, तो ईमानदारी से उसे पहले संविधान से सृजित आदिवासी अधिकारों की स्थापना करने की पहल करनी चाहिए।
एक बयान में छग किसान सभा के अध्यक्ष संजय पराते और महासचिव ऋषि गुप्ता ने कहा कि लगभग 50 गांवों तथा 14000 हेक्टेयर भूमि के डूबने, खरबों की संपत्ति के नष्ट होने तथा अकल्पनीय सामाजिक-पर्यावरणीय नुकसान के साथ 23000 करोड़ रुपये के निवेश की कीमत पर सिंचाई के नाम पर इस परियोजना के पक्ष में मुहर नहीं लगाई जा सकती। यह विकास का नहीं, वास्तव में विनाश का कारपोरेट मॉडल है।
उन्होंने कहा कि हालांकि राज्य सरकार का यह आश्वासन स्वागत योग्य है कि बस्तर की जनता की बात मानी जाएगी तथा पुनर्वास-व्यवस्थापन पहले होगा, लेकिन अतीत के कटु अनुभव को देखते हुए इस पर विश्वास करना कठिन है कि भविष्य में आने वाली कोई सरकार इस वादे पर अमल करने को बाध्य होगी। इस विश्वास को अर्जित करने के लिए पहले राज्य सरकार वनाधिकार कानून तथा अन्य शासकीय योजनाओं का क्रियान्वयन सुनिश्चित करें, ताकि वन भूमि व अन्य सरकारी भूमि पर काबिज सभी गरीबों लोगों को भूस्वामी हक मिले और किसी भी पात्र दावेदार को इससे वंचित न किया जाए।
बयान में कहा गया है कि सरकार भूमि सुधार कानून के तहत भूमिहीनों, सीमांत और गरीब किसानों को कृषि व आवास के लिए भूमि वितरण के काम को अपनी सरकार का एजेंडा बनाये। आदिवासियों, दलितों तथा वंचित तबकों के लिए यह भूमि अधिकार ही भविष्य में होने वाले किसी भी विस्थापन की दशा में उनके पुनर्वास व व्यवस्थापन की गारंटी करेगा। किसान सभा नेताओं ने कहा कि सरकार वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन के साथ ही पेसा कानून व पांचवी अनुसूची के प्रावधानों को लागू करें, ताकि आदिवासी समुदाय स्वशासन के जरिए अपने विकास के तरीकों व मॉडल का फैसला कर सके।
उन्होंने कहा कि अभी तक इस परियोजना से वनों के विनाश के चलते होने वाले पर्यावरण और आदिवासी जनजीवन के नुकसान का आंकलन ही सामने नहीं आया है। वर्षों से डिब्बे में बंद पड़ी इस विवादास्पद परियोजना को जनता से पूछे बिना बाहर निकालना ही इस सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करने के लिए काफी है, क्योंकि अनुभव यही बताता है कि कोई भी प्रोजेक्ट आम जनता या आदिवासियों की भलाई और विकास के नाम पर ही शुरू होता है और बाद में वही पृष्ठभूमि में धकेल दिए जाते हैं। बस्तर में एनएमडीसी और एस्सार आदि इसी बात के उदाहरण हैं।
किसान सभा नेताओं ने कहा कि यदि कांग्रेस सरकार को इस परियोजना को पुनर्जीवित करना ही था, तो वह अपनी परिकल्पना के साथ पहले जनता के पास आती और सहमति प्राप्त करती। इसके बजाय उसने पहले केंद्र के पास जाकर इस डिब्बाबंद परियोजना को क्रियान्वित करने की अनुमति ली है और अब वह जनता से सहमति मांग रही है। यह सरकार की उल्टी चाल है।
किसान सभा ने मांग की है कि पहले इस परियोजना को रोका जाए तथा आदिवासी स्वशासन की स्थापना के बाद ही इस पर फैसला हो। बांध के नाम पर होने वाला निवेश आदिवासी क्षेत्रों में सड़क और बिजली जैसे ढांचागत विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और बुनियादी मानवीय सुविधाओं को उपलब्ध कराने के लिए व्यय किया जाए।