कुँवर नारायण (19 सितम्बर 1927-15 नवम्बर 2017) नई कविता आन्दोलन के सशक्त हस्ताक्षर कुँवर नारायण अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा सप्तक (1959) के प्रमुख कवियों में रहे हैं। उन्हें साहित्य जगत के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार सहित कई पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया। उनकी अनेक कृतियाँ प्रकाशित व कई भाषाओं में अनुदित हैं । ( संपादक) आज पढ़ें उनकी कहानी-
एक बार ऐसा हुआ कि दो देशों के बीच सीमारेखा, यानी विभाजन रेखा, अचानक कहीं खो गई। खासा वाद-विवाद, लडाई-झगड़ा, मारामार थी उसको लेकर। सब यकायक थम गया। दोनों देश लड़ना छोडक़र खोजने में लग गए अपनी-अपनी सीमारेखाएँ, बल्कि अपनी सीमारेखा जो दोनों की होते हुए भी किसी एक की ही नहीं थी।
क्योंकि सीमारेखा खो गई थी इसलिए सबसे बड़ी मुश्किल दोनों देशों के बीच फ़र्क करने में हो रही थी। दोनों का रंगरूप एक, रहन-सहन एक, ज़मीन-आसमान एक, पहाड़-नदियाँ-जंगल एक, वेशभूषा तक एक। रक्त का रंग एक, शरीर की बनावट भी एक।
सीमारेखा के खो जाने वाला हादसा उस समय हुआ जब उसी सीमारेखा को लेकर दोनों देशों के बीच घमासान चल रही थी। उसके गायब होते ही लड़ाई रोकनी पड़ी और दोनों ही देश लड़ना छोड़क़र लड़ाई की जड़, यानी सीमारेखा, को खोजने में जुट गए।
इतिहास से शुरू किया तो पता चला कि अभी कुछ ही वर्षों पहले तक वह कहीं थी ही नहीं! कुछ लोगों को शक हुआ कि भीषण गोलाबारी में कहीं वह नाज़ुक-सी सीमारेखा ही तो नहीं हलाल हो गई। लेकिन ऐसा अगर हुआ होता तो कहीं उसकी लाश तो मिलती। एक लाश मिली तो जरुर पर इतनी क्षत-विक्षत हालत में कि उसे पहचानना ही मुश्किल हो गया।
कुछ उत्साही और जानकार लोग सीमारेखा की तलाश में पुरातत्व में भी गए। वहाँ हाल और भी बुरा था, दो देशों के बीच तो क्या वहाँ किन्हीं और देशों के बीच कोई भी सीमारेखा नज़र नहीं आ रही थी। उनमें से कुछ लोग यह अटकल लगा रहे थे कि शायद आधुनिक समय में सीमारेखा उसी तरह पाताल में चल्ली गई थी जैसे वैदिक काल में सरस्वती नदी विलुप्त हो गई थी।
फ़िलहाल, समस्या का कोई हल नज़र नहीं आ रहा था-न वर्तमान में, न इतिहास में, न भविष्य में, न आदमी की नस्ल में, न उसकी शक्ल में, न साहित्य में, न कलाओं में, न भूगोल में… सीमारेखा न रहने से सब एक-सा लगने लगा था, मानों कई अलग-अलग देश न होकर एक ही दुनिया हो। सबसे बड़ी दिक़्क़त यह थी कि साफ-साफ़ पता ही नहीं चल रहा था कि कौन किसके विरुद्ध है: सब एक दूसरे के पक्ष में लगते थे। और जब यह न पता चले कि कौन किसके खिलाफ़ है, मानव जाति की सबसे बड़ी पहचान, उसके हज़ारों साल पुराने योद्धा-रूप का ही लोप होता जा रहा था : युद्ध और संघर्ष जैसे महाकर्म का अभिप्राय ही घपले में पड़ गया लगता था। बिना संघर्ष के प्रगति कैसे हो? संघर्ष क्या रुका कि मानव जाति की प्रगति ही रूक गई थी। विकास के अनवरत क्रम में दिल दहला देने वाली बाधा उत्पन्न हो गई थी। संघर्ष और संहार के अपार और अपराजेय साधनों का आविष्कार, निर्माण और वितरण करने वाले तमाम संस्थानों और कारखानों के लिए संकट पैदा हो गया था। जिसका विपरीत प्रभाव उन्नत और अनुन्नत देशों पर एक साथ पड़ रहा था। उनकी आर्थिक व्यवस्था डाँवाडोल होने लगी। लड़ाइयाँ अगर किसी भी वजह से रुक गईं तो मनुष्य जाति का विनाश अवश्य भावी था। पृथ्वी अगर बच भी गई तो किस काम की।
जिन घने जंगलों, वीरानों और दुर्गम पहाड़ों वगैरह से होकर सीमारेखा गुजरती थी वहाँ उसे हर वक्त दृष्टि में रखना वैसे भी हमेशा ही मुश्किल रहा था-अब जब वह खो गई थी, या दिखाई नहीं दे रही थी, उसे ढूँढ़ पाना लगभग असम्भव था। सबसे बड़ी मुश्किल पैदा हो गई थी उसे ढूँढ़ने वालों की भीड़-भभ्भड़ की वजह से जो (सीमारेखा के न रहने से) दोनों देशों के बीच इतनी आज़ादी से आ जा रहे थे कि मानो अब दो नहीं, दोनों मिलकर एक ही देश हो गए हों। यहाँ तक कि दोनों देशों के बीच मेल मुहब्बत और शादी ब्याह तक का सिलसिला शुरू हो गया।
इसके पहले कि एक बिल्कुल स्वाभाविक सरलीकृत समाधान में ठहरकर हमेशा के लिए शांत हो जाता और दो महान देशों के बीच फ़र्क कर सकने वाली लड़ाई-झगड़े की कोई बुनियाद ही न बचती, कुछ पेशेवर देशभक्त राजनीतिज्ञों और कूटनीतिज्ञों ने मुआमले को आगे बढक़र हाथ में ले लिया, और सार्वजनिक रूप से, अत्यंत समारोही ढंग से, शपथ खायी कि देश के हित में हम मामले को उलझाकर ही रहेंगे, और पक्का संकल्प लिया कि अगर पुरानी सीमारेखा किसी कारण से ढूँढने से न भी मिली तो हम नई सीमारेखा बनाएंगे, चाहे इस महान प्रयास में दोनों देशों को मर मिटना ही क्यों न पड़े।
इस ‘मर मिटने’ वाले नारे का लोगों पर कमाल का प्रभाव पड़ा।
तमाम ऐसे लोग सामने आने लगे, और नए-नए लोग पैदा भी होने लगे, जिन्होंने इस मर मिटने वाले धर्म को ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर ल्रिया और उसे देश विदेश में मुस्तैदी से फैलाने लगे। उनके विश्वव्यापी सम्प्रदाय बनने लगे जिनके लिए दूसरों को मार कर मर मिटने का धर्म किसी भी धर्म से ज्यादा महत्त्व रखता था। देश-देश में वह धर्म तेज़ी से फैलने लगा और उसके अनुयायी उसी तरह फैलने लगे जैसे महामारी फैलती है।
एक कट्टर अनुयायी से किसी नाबालिग नासमझ ने नादानी में पूछा, ‘ज़रा विस्तार से समझाइये इस मर मिटने, या मार कर मिटा देने वाले इस धर्म, की बारीकियों को?’
वह विस्तार में नहीं गया, ज़रा जल्दी में था। विस्तार में जाने का न तो उसके पास समय था, ना ही धीरज! नाबालिग की बचकानी उत्सुकता को बीच ही में काटते हुए उसने कहा, ‘इसमेँ विस्तार है ही नहीं, केवल संक्षेप में मर मिटना है।’
‘समझा नहीं, ज़रा और…’
“समझाता हूँ।’ यह कहकर, उसने बात की एक गोली बनाकर नाबालिग के उलझे हुए दिमाग मैं ठोंक दी। इससे सन्देह उठाने वाला तो हमेशा के लिए शांत हो गया, लेकिन दूसरे नाबालिग भी इसके सार तत्व को तुरन्त और बख़ूबी समझ गए।
बात जब मर मिटने वाले ज़्यादा बड़े मुद्दे पर जा टिकी, तो सीमारेखा वाला तनाव कुछ कम हुआ, मगर स्थिति गम्भीर बनी रही। मामले को उलझाने और फिर उलझाये रखने में मीडिया की ओर से भी राजनीति को पूरा सहयोग मिल रहा था। माहौल किसी भी सरल और सीधे समाधान के बिल्कुल ख़िलाफ़ था। महायुद्ध तक हो सकता था क्योंकि मर मिटाने वाल धर्म को बचाए रखना ज़रुरी था। सारी दुनिया विस्फोट के एक नाज़ुक बिन्दु पर बैठी सोच रही थी कि अचानक ख़बर उड़ी, ‘खोई सीमारेखा मिल गई, वह ज़मीन पर नहीं, एक नक़्शे में छिपी बैठी थी, जैसे बिल में साँप।’
अब सीमारेखा नहीं, वह नक़्शा, विवाद का विषय था जिसमें वह मिली थी।
एक कूल बहुत बड़ी मेज, दुनिया से भी ज़्यादा बड़ी मेज, पर एक छोटा- सा नक़्शा मेज़ को घेरकर नक़्शे के चारों ओर तमाम विशेषज्ञ बैठ गए। नक़्शे में तमाम सीमारेख़ाओं की इतनी जबरदस्त गिचपिच थी कि पता नहीं चलता था कौन-सी रेखा किस देश की या किस जाति की सीमा थी। एक साधारण व्यक्ति से लेकर पूरी मानव जाति तक की सीमारेखाओं का एक ऐसा महाजटिल महाजाल फैला हुआ था कि उसके नीचे पूरी पृथ्वी लगभग ढंक गई-सी लगती थी। देशों में ही नहीं, अब तो घर-घर में हर व्यक्ति परेशान था दो के बीच एक सही सीमारेखा की तलाश में…।
सिर्फ़ बच्चे ख़ुश थे, जो नहीं मानते किसी भी सीमारेखा को। वे उड़ रहे थे हवा में, असीम में रंगबिरंगे गुब्बारों की तरह, अपने पीछे सीमारेखाओं को टूटे हुए धागों की तरह लहराते।