तमाम संभावनाओं आशंकाओं के बीच आखिरकार एक हफ्ते का लॉक डाउन लगा दिया गया और कहा जा रहा है कि इस बार बहुत सख्ती बरती जाएगी । ठीक भी है, जब जनता आत्मअनुशासन का पालन करने को तैयार नहीं है तो लातों के भूत बातों से नहीं मानते की तर्ज़ पर डंडे के जोर पर ही कराया जाएगा ।
लोग हैं कि मानते नहीं। लाख समझाने और एहतियात के तमाम विज्ञापनों के बावजूद लोग किसी भी तरह समझने को तैयार नहीं नज़र आ रहे । जब भी उन्हें छूट या मोहलत दी जाती है अति पर उतर आते हैं। ज़रा सी छूट मिलते ही अराजक होकरविभिन्न पिकनिक स्पॉट, सार्वजनिक स्थानो पर पर बेतहाशा भीड़ के रूप में उमड़ पड़ते है , अमर्यादित आचरण करने लगते हैं तो कहीं सार्वजनिक स्नोंथानों पर पार्टियां मनाने लगते हैं । परिणामस्वरूप प्रदेश के कई शहरों में फिर लॉक डाउन का कठोर निर्णय लेना पड़ा । तमाम संभावनाओं आशंकाओं के बीच आखिरकार एक हफ्ते का लॉक डाउन लगा दिया गया और कहा जा रहा है कि इस बार बहुत सख्ती बरती जाएगी । ठीक भी है, जब जनता आत्मअनुशासन का पालन करने को तैयार नहीं है तो लातों के भूत बातों से नहीं मानते की तर्ज़ पर डंडे के जोर पर ही कराया जाएगा ।
देखा जाय तो लॉक डाउन आम आदमी और विशेष रूप से गरीब तबके और छोटे व्यवसाइयों के लिए किसी आपातकाल से कम नहीं होता । रोज कमाने खाने वालों के लिए तो लॉक डाउन एक दुःस्वप्न की तरह है । इस बार भी इस वर्ग के सिए किसी आर्थिक अथवा राहत पैकेज पर विचार नहीं किया गया , यह अत्यंत दुखद है । गौरतलब है कि आपदा की शुरुवात से ही फल सब्जी भाजी या अन्य खाद्य सामग्री बेचने वालों के अलावा भी कम लागत व पूंजी पर अन्य व्यवसाय करने वाले छोटे एवं मध्यम वर्ग के व्यापारियों एवं सेल्फ एम्प्लॉयड लोगों का समाज का एक बड़ा तबका लगातार आर्थिक संकट और जीविकोपर्जन के लिए जूझ रहा है मगर सरकार इस ओर ध्यान नहीं दे रही है ।
यह बात गौरतलब है कि चंद बदमिजाज बिगड़ैल रईसजादों और अनुशासनहीन लोगों के चलते पूरे समाज को खामियाजा भुगतना पड़ता है। एक पढ़े लिखे और सभ्य वर्ग का दंभ भरने वाला शहरी समाज भीतर से कितना खोखला और असभ्य है यह आपदा के इस दौर में साफ महसूस किया जा सकता है । हमसे तो बेहतर गांव के वो कम पढ़े लिखे माने जाने वाले लोग हैं । यही तथाकथित सभ्य शहरी लोग जिन्हें गंवार और उजड्ड कहकर हिकारत से देखते हैं वो आज शहरों से कई गुना बेहतर स्थिति में हैं । इस कठिन और निर्णायक दौर में शहरी चाल चलन, सभ्यता और सुसंस्कृत होने का झूठा लबादा पूरी तरह उतर गया है और शहरी समाज नग्न होकर खड़ा है।
प्रदेश की राजधानी में लोगों का बर्ताव ऐसा रहा जैसे किसी असभ्य और अनपढ़ लोगों की बसाहट हो। पहले भी लॉक डाउन के दौरान ज़रा सी छूट मिलते ही लोग बाजारों और सड़कों पर बेवजह टूट पड़ते रहे । इस बार भी लॉक डाउन की घोषणा होते ही लोग बेतहाशा बाज़ारों में उमड़ पड़े । इसके लिए प्रशासन की अदूरदर्शिता और अनियोजन भी कुछ हद तक जिम्मेदार रहा जिससे आम जन के बीच सरकार और प्रशासन के प्रति विश्वास की बजाय भय और आशंका उत्पन्न हुई। दूसरी ओर लोगों की इस आपाधापी और भय का फायदा व्यापारियों ने मुनाफाखोरी और कालाबाजारी के रूप में उठाया। इस प्रवृत्ति और मनोवृत्ति पर सुनियोजन और विशेषज्ञों से मशविरा कर काबू पाया जा सकता था और बेकार की दहशत से निजात पाई जा सकती थी इस ओर भी प्रशासन को ध्यान देना होगा।
असली चुनौती तो मगर लॉक डाउन खत्म होने के बाद सामने होगी जब सामने त्योहार होंगे। क़ैद किसी भी आदमी को ज्यादा दिन रास नहीं आती आज़ादी हर आदमी की फितरत होती है अतः एक सप्ताह से बंद पडे लोग बाहर निकलने को बेताब होंगे। गौरतलब है कि सामने त्योहारी सीजन है। लॉक डाउन के ठीक बाद ईद और राखी पड़ने वाली है । तब एक सप्ताह से घरों में कैद लोगों को नियंत्रित करना एक बहुत बड़ी चुनौती होगी। इस चुनौती के लिए प्रशासन को अभी से कोई ठोस योजना और मुकम्मल बंदोबस्त करना होगा।इस पर अभी से मंथन करना होगा और त्योहारों के लिए समाजहित में सर्वमान्य और सुरक्षित तरीका निकालना होगा। इसके साथ ही सार्वजनिक स्तर पर मनाए जाने वाले कृष्ण जन्माष्टमी , दहीहांडी और सबसे लोकप्रिय गणेशोत्सव के लिए भी अभी से राय मशविरा कर सर्वमान्य हल पर अभी से विचार करना होगा ।
इस बात पर विचार करना ही होगा और समझना ही होगा कि महामारी जैसे संकट और गंभीर आपदा से निपटना सिर्फ शासन प्रशासन की ही जिम्मेदारी नहीं है। ऐसे आपदा के दौर में शासन प्रशासन का सहयोग करना हर नागरिक की नैतिक जिम्मेदारी है । सिर्फ अधिकारों की मांग करना और जिम्मेदारियों, जवाबदेही से कन्नी काट लेना उचित नहीं है ।तमाम अंतर्विरोधों और मतभेदों के बावजूद संकट और आपदा में नागरिक दायित्वों के साथ ही स्वस्थ और सक्रिय जनभागीदारी एक पुष्ट लोकतंत्र और सभ्य समाज की पहचान है। सभी के मिले जुले प्रयासों से ही ऐसी गम्भीर महामारी और आपदा से निजात पाया जा सकता है।