अपूर्वानंद
नेहरू ने गाँधी की विशेषता बताते हुए कहा था कि सबसे अद्भुत काम उन्होंने यह किया कि अंग्रेज़ी हुकूमत के भारत पर काबिज रहते हुए भी भारतीय खुद को आज़ाद महसूस करने लगे। भारतीयता का एक अर्थ निर्भीकता भी है। यह निडरता लेकिन उद्धतपन नहीं। यह निडरता हमेशा अपनी क़ीमत पर हासिल की जाती है, मेरी निडरता में हर किसी की निडरता शामिल है। मेरी स्वाधीनता दूसरे को किसी भी प्रकार हीन करना नहीं है। बल्कि अगर मेरे सामने कोई हीन महसूस करता है तो यह मेरा ही अपमान है।
क्या हमें मान लेना चाहिए कि 2020 का 5 अगस्त भारतीय गणतंत्र के पहले संस्करण का अवसान और दूसरे संस्करण का जन्म दिवस है? क्या इसकी चमक दमक 15 अगस्त की आभा को धूमिल कर देगी? या इसका उलटा होगा? यानी 15 अगस्त की तारीख़ हमें उन वायदों की याद दिलाती रहेगी जिनको लेकर हम अपनी प्रतिबद्धता दृढ़ नहीं रख पाए? उसी लापरवाही का नतीजा तो 5 अगस्त की तारीख़ है।
यह ठीक ही है कि दोनों तारीख़ें आस-पास हैं। इससे दोनों के बीच तुलना आसान होगी। 15 अगस्त के साथ ढेर सारी स्मृतियाँ हैं। वह उनकी वारिस है और उनकी वाहक भी। यह एक नए राष्ट्र के जन्म की घोषणा से जुड़ी हुई है। जिसने सर उठाकर अपने आज़ाद और खुदमुख्तार होते वक़्त कहा कि उसका वजूद नफ़रत पर नहीं टिका है। जिसने अपने और पराए के भेद को ठुकराया और राष्ट्र को सबके लिए एक दावत, निमंत्रण में बदल दिया। याद कीजिए गाँधी की बात। उन्होंने कहा था कि जो यूरोपीय या अंग्रेज़ यहाँ रहना चाहते हैं, उनका स्वागत है और उनका अधिकार इस देश पर एक समान नागरिक का अधिकार होगा।
15 अगस्त में इसका अहसास भी था कि राष्ट्रों का बनना जब दूसरे के निषेध पर टिका हो तो वह किस हिंसा को जन्म देता है। लाखों लोगों का क़त्लेआम, हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का एक-दूसरे का संहार: उदात्त और क्षुद्र के संघर्ष में हमेशा उदात्त नहीं विजयी होता। फिर भी गाँधी और उनके साथियों के रूप में उस उदात्त ने घुटने नहीं टेके।
इस पर क़ायदे से बात नहीं की गई है कि 15 अगस्त के दिन अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ घृणा कहीं क्यों नहीं व्यक्त हुई? क्यों हमने इस पर बात नहीं की कि इस दिन उस वक़्त इस देश के सबसे प्रभावशाली व्यक्तित्व ने सबको उपवास रखने को कहा। वे राष्ट्र के विचार के भीतर छिपी हुई हिंसा से सबको सचेत नहीं कर रहे थे। स्वतंत्रता के उल्लास के बीच आत्मनिरीक्षण और प्रायश्चित के इस आह्वान की किसी ने भर्त्सना नहीं की। किसी ने नहीं कहा कि यह बूढ़ा उल्लास के क्षण में नकारात्मकता का प्रचार कर रहा है। बल्कि उनके मित्र और शिष्य नेहरू ने 14 और 15 अगस्त के संधि क्षण में बोलते हुए कहा कि हम सब उस महान व्यक्ति के अयोग्य शिष्य साबित हुए हैं।
भारत की आज़ादी बाक़ी सबसे इस रूप में अलग थी कि इसका बुनियादी उसूल अहिंसा का था। अहिंसा का अर्थ सिर्फ़ दूसरे के प्रति हिंसा का निषेध नहीं बल्कि उस दूसरे से एक सक्रिय संबंध बनाने का यत्न भी था। इस अहिंसा का अस्तित्व सत्य के बिना नहीं था। सत्य कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता, मेरा सत्य अंतिम नहीं है, मेरी खोज अपर्याप्त और अधूरी है। दूसरे के सत्य को समझने के लिए आवश्यक खुलापन और उत्सुकता का होना इतना आसान नहीं। यह गाँधी ने धर्म के संदर्भ में कहा था। यह लेकिन राष्ट्रों पर भी लागू होता है।
हर राष्ट्र किसी एक सत्य की खोज है। वह सिर्फ़ किसी समुदाय का गठन नहीं है। यदि अलग-अलग राष्ट्र भिन्न-भिन्न सत्य का प्रतिनिधित्व न करे, सब एक-दूसरे के प्रतिबिंब मात्र हों तो यह दुनिया कितनी एकरस होगी! इसलिए राष्ट्रों का समुदाय सत्यों का समुदाय भी होगा और वह मिलकर विश्व मानवता का निर्माण करेगा।
राष्ट्र की चेतना के मूल में आत्म गरिमा का बोध तो है लेकिन वह अपनी श्रेष्ठता का अहंकार नहीं होना चाहिए। उसमें अतीत की चेतना हो लेकिन अतीत किसी से प्रतिकार की याद दिलाता हुआ बोझ न हो। राष्ट्र को मुक्ति का आश्वासन होना चाहिए और हर वह किसी की मुक्ति होगी।
15 अगस्त से जुड़ा एक भाव उत्तरदायित्व का, निजी और सामूहिक। राष्ट्र सामूहिक हैं लेकिन वे अनेकानेक निजी और व्यक्तिगत का संपुंज है। वह सामूहिकता हर निजी को अखंड रखने के यत्न के बगैर संभव नहीं है। इसीलिए जब नेहरू से पूछा गया कि वह भारत की समस्या के बारे में क्या सोचते हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि उन्हें 35 करोड़ अलग-अलग व्यक्तियों का ख्याल आता है।
नेहरू और उनके मित्रों में ऐतिहासिक संवेदना थी लेकिन वे वर्तमान को इतिहास का बंदी नहीं बनाना चाहते थे। भविष्य की कल्पना भी उनके दिमाग़ में थी लकिन वे वर्तमान की बलि उसके लिए नहीं देना चाहते थे। इसलिए इंसान को नया बनाने के लिए पुराने इंसान के संहार का अभियान उन्होंने नहीं चलाया।
स्वतंत्रता वस्तुतः स्वाधीनता थी। नेहरू ने गाँधी की विशेषता बताते हुए कहा था कि सबसे अद्भुत काम उन्होंने यह किया कि अंग्रेज़ी हुकूमत के भारत पर काबिज रहते हुए भी भारतीय खुद को आज़ाद महसूस करने लगे। भारतीयता का एक अर्थ निर्भीकता भी है। यह निडरता लेकिन उद्धतपन नहीं। यह निडरता हमेशा अपनी क़ीमत पर हासिल की जाती है, मेरी निडरता में हर किसी की निडरता शामिल है। मेरी स्वाधीनता दूसरे को किसी भी प्रकार हीन करना नहीं है। बल्कि अगर मेरे सामने कोई हीन महसूस करता है तो यह मेरा ही अपमान है।
15 अगस्त की व्याख्या 26 जनवरी है। संविधान में अपने क्षण का महत्त्व और अपनी सीमा का भान है। लेकिन उसकी प्रस्तावना उस यात्रा का पथ निर्देश है जो भारत नामक राष्ट्र को तय करनी है। वह यात्रा कोई 15 अगस्त को आरम्भ नहीं हुई थी।
यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस यात्रा का आरम्भ बिंदु स्पष्ट है और कोई था जिसे पहला यात्री कहा जा सकता है। यह प्रस्थान बिंदु रहस्य के धुंधलके में छिपा है और वही ठीक है। उसे चिह्नित करने की धृष्टता नहीं की जानी चाहिए।
15 अगस्त पहुँच जाने, पूर्ण हो जाने की गफलत में नहीं पड़ता। वह ख़ुद को जिनकी कसौटी पर कसकर साबित करना चाहता है वे धर्मों, समुदायों, राष्ट्रों की सीमाओं को अतिक्रांत करते हैं। यह कोई इत्तिफ़ाक़ नहीं कि भारत का राष्ट्र कवि वह है जो राष्ट्रवाद पर ही संदेह करता है।
यह सब कुछ अभी भी श्रेय है। स्नेह, प्रेम, साहस, उदारता, सहानुभूति, मित्रता, अन्य के प्रति सद्भावपूर्ण उत्सुकता हमेशा ही बेहतर मनुष्य बनने के लिए अनिवार्य बने रहेंगे। किसी भी समाज के बारे में हमेशा निर्णय इस आधार पर ही होगा कि उसने इनका वरण किया या आत्ममुग्धता, आत्मग्रस्तता और वर्चस्व की हिंसा का। हम किस तारीख़ से क्यों जुड़ते हैं, यह इन दोनों में से एक के चुनाव के फ़ैसले से तय होगा।
अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं। सौज सत्यहिन्दी