कॉंग्रेस की दुविधाः गांधी के राम या जय सियाराम- जीवेश चौबे

गौ़रतलब है कि तब गांधी उम्र के उसी पड़ाव में थे जिसमें आज राहुल गांधी हैं । तब यानि 100 वर्ष पूर्व तिलक के ब्राह्मणवादी और संभ्रांतवादी विचारधारा के विपरीत गांधी कॉंग्रेस की कट्टरवादी धर्म, जाति, संप्रदाय और लिंग भेद की सारी रूढ़ियों को तोड़ नई प्रगतिशील विचारधारा को आत्मसात करते हैं। आज 100 वर्ष पश्चात राम मंदिर शिलान्यास में उमड़े जन भावनाओं के सैलाब से प्रभावित होकर कॉंग्रेस भी उसी रौ में बह रही हैआज कॉंग्रेस के सामने बड़ी दुविधा है बहुसंख्यक ध्रुवीकरण के आसन्न संकट के दौर में दोराहे पर खड़ी कांग्रेस को यह तय करना है कि वो गांधी के राम की राह पर कायम रहे या जय सियाराम का दामन थाम एक बार फिर 100 साल पीछे की राह व सोच को पुनः अपनाए।

पिछले हफ्ते दो महत्वपूर्ण घटनायें हुईं जिन्होंने देश की जनता पर गहरा प्रभाव डाला है। एक तो राम मंदिर का भूमिपूजन था जिसका सरकार प्रायोजित भव्य और जोरदार जलसे के साथ संपन्न होना कोई आश्चर्य की बात नहीं कही जा सकती। जिस बात ने काफी लोगों को चौंकाया और जिसे दूसरी महत्वपूर्ण घटना कही जा सकती है वो है कांग्रेस का जय सियाराम मय हो जाना। निश्चित रूप से कांग्रेस के शीर्ष और प्रमुख नेतृत्व द्वारा भूमिपूजन और राम मंदिर का श्रेय लेने की जो आकांक्षा और व्यग्रता सामने आई उसने काफी बड़े तबके को हतप्रभ कर दिया।

इस तबके को सबसे बड़ी हताशा और निराशा  राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा के बयानों से हुई। काफी लोग ऐसे भी थे जिन्हें कांग्रेस के इस रवैये से कोई हैरानी नहीं हुई मगर वर्तमान हालात में वे भी कॉंग्रेस से ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं कर रहे थे। खुद कॉंग्रेस आज बड़ी दुविधा में फंस गई है।

ग़ौरतलब है कि कुछ ही दिन पहले महात्मा गांधी के पहले कॉंग्रेस के कद्दावर नेता लोकमान्य तिलक की 100वीं पुण्यतिथि मनाई गई । कॉंग्रेस ने तो इसे बहुत ही रस्मी तौर पर ही मनाया मगर भारतीय जनता पार्टी ने इसे एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार के तौर पर मनाया जिसे गृहमंत्री अमित शाह ने संबोधित करते हुए तिलक के स्वराज को मोदी के आत्मनिर्भर भारत से जोड़ने का प्रयास किया। निश्चित रूप से विगत कई दशकों से कॉंग्रेस तिलक को लेकर उदासीन ही रही और सोची समझी रणनीति के तहत एक निश्चित दूरी बनाकर चलती रही।

प्रश्न उठता है कि क्यों कॉंग्रेस तिलक को अपनी विरासत में उतनी शिद्दत और सहजता से नहीं जोड़ी रही जितनी महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू , मौलाना आज़ाद और सरदार पटेल आदि नेताओं से या तिलक के ही समकालीन कुछ नेताओं को भी यदा-कदा जोड़ती रही है। इसका जवाब भी बहुत आसान है कि तिलक बहुत कट्टर ब्राह्मणवादी और पुरुषवादी समाज के समर्थक माने जाते हैं। यह भी सत्य है कि तिलक को हिन्दू राष्ट्र का समर्थक भी माना जाता रहा है। एक लम्बे अरसे तक कांग्रेस का नेतृत्व कर पूरी कांग्रेस को अपने प्रभुत्व और प्रभाव में रखने वाले तिलक को उनके घोर ब्राह्मणवादी, दलित व नारी विरोधी और पुरातनपंथी विचारधारा के चलते खुद कांग्रेस याद करना नहीं चाहती। इस साल लोकमान्य तिलक के निधन को 100 बरस हो गए।

तिलक के अवसान के बाद कांग्रेस की कमान गांधी ने संभाली, हालांकि वे विधिवत अध्यक्ष नहीं बने मगर गांधी को ही कॉंग्रेस ने अपना प्रमुख और एकमेव मार्गदर्शक मान लिया। तिलक के उलट गांधी अहिंसा सत्य और सद्भाव के प्रवर्तक व समर्थक थे और साथ ही कट्टर हिंदुत्व या ब्राह्मणवादी, पुरुष प्रधान मानसिकता की जगह सर्वधर्म समभाव और नारी मुक्ति के साथ-साथ दलित उत्थान को भी प्रबलता से कांग्रेस में प्रमुख स्थान दिलाने में कामयाबी हासिल की जो तिलक के रहते लगभग असंभव सा माना जाता रहा। गांधी ने हिन्दुस्तान के राम को अपनाया। गांधी की इस विचारधारा और कार्यप्रणाली के केंद्र में आते ही इलीट, सभ्रांत और प्रभावशाली वर्ग के इर्द-गिर्द सीमित कांग्रेस जनोन्मुखी होने लगी। आज़ादी के पश्चात कांग्रेस हालांकि गांधीवादी तो नहीं रही मगर गांधी की ही रणनीति पर कायम रही और लम्बे अरसे तक सत्ता पर काबिज रही।

इन सब घटनाक्रमों के बीच लम्बे समय तक कॉंग्रेस की भूमिका बहुत सराहनीय रूप से निरपेक्ष यदि नहीं कही जाए मगर सांप्रदायिक नहीं रही। इस बीच हाल के बरसों में अचानक अपनी मूल अवधारणाओं के प्रति कॉंग्रेस में अविश्वास सा क्यों पैदा हुआ इस पर विचार करना होगा। देश की धर्मनिरपेक्ष भावनाओं के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने वाली कॉंग्रेस को चुनाव के दौरान भाजपा की राह अपनाने और राम मंदिर पर इस तरह यूटर्न लेना न सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए बल्कि संविधान की मर्यादाओं और मान्यताओं पर यकीन करने वाले लोगों के लिए भी आघात की तरह है।

मनन करें तो यह वर्ष महात्मा गांधी के कांग्रेस की कमान संभालने का शताब्दी का वर्ष भी कहा जा सकता है। तिलक की मृत्यु के बाद अपने आंतरिक संघर्षों के चलते तब भी कॉंग्रेस नेतृत्व के संकट से जूझ रही थी । ऐसे समय गांधी सामने आए । गौ़रतलब है कि तब गांधी उम्र के उसी पड़ाव में थे जिसमें आज राहुल गांधी हैं यानि उम्र के पांचवें दशक में। समानता ये भी देख सकते हैं कि तब गांधी ने भी कॉंग्रेस का अध्यक्ष पद नहीं संभाला बल्कि एक योजनाकार एवं मार्गदर्शक के रूप में कॉंग्रेस को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई थी।

फर्क ये है कि तब यानि 100 वर्ष पूर्व तिलक के ब्राह्मणवादी और संभ्रांतवादी विचारधारा के विपरीत गांधी इलीट लोगों की कहे जाने वाली कॉंग्रेस की कट्टरवादी धर्म, जाति, संप्रदाय और लिंग भेद की सारी रूढ़ियों को तोड़ नई प्रगतिशील विचारधारा को आत्मसात करते हैं और हिंदुस्तान के राम को आत्मसात कर ईश्वर अल्ला तेरो नाम का अपनाते हैं जो आम जन को बहुत रास आता है । ये गांधी की प्रगतिवादी सोच और सोची समझी रणनीति का ही परिणाम था कॉंग्रेस आमजन एवम् हाशिए पर खड़े उपेक्षित वर्ग तक पहुंच व पकड़ बनाने में कामयाब रही जिसकी परिणति अंततः भारत की आज़ादी के रूप में सामने आई और जिसका लाभ आजादी के बाद भी सदियों तक उसे मिला।

आज 100 वर्ष पश्चात राम मंदिर शिलान्यास में उमड़े जन भावनाओं के सैलाब से प्रभावित होकर कॉंग्रेस भी उसी रौ में बह जय सियाराम कह तो रही है मगर आधे अधूरे मन से। स्पष्ट रूप से  इधर या उधर तय करना ज़रूरी है क्योंकि जनता आधे अधूरे के साथ जुड़ नहीं पाती। कॉंग्रेस के इस रुख ने संख्या बल में कम ही सही मगर संविधान और सामाजिक समरसता में यकीन करने वाले उस तबके को भी निराश ही किया है। इसका क्या परिणाम होगा ये आने वाला वक्त ही बताएगा। आज कॉंग्रेस के सामने बड़ी दुविधा है बहुसंख्यक ध्रुवीकरण के आसन्न संकट के दौर में दोराहे पर खड़ी कांग्रेस को यह तय करना है कि वो गांधी के राम की राह पर कायम रहे या जय सियाराम का दामन पकडकर एक बार फिर 100 साल पीछे लौटकर तिलक की राह व सोच को पुनः अपनाए।

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