क्षमा माँगना कर्मकांड नहीं हो सकता। क्षमा याचना में जब तक निजी निवेश न हो, वह ईमानदार नहीं, एक परिपाटी है जिसे आदतन निभाना पड़ता है। क्षमा निर्वैक्तिक भाव नहीं है।
‘मैंने जाने अनजाने, अपने किसी कर्म, वचन या विचार से, आपको अगर कभी दुःख पहुँचाया हो तो मैं आपसे क्षमा याचना करता हूँ।’ सुबह-सुबह यह एक बना बनाया संदेश एक मित्र की ओर से मिला। उन्होंने अपनी भाषा, अपने शब्दों में यह बात न कही थी। समय बचाने के लिए शायद अनेक लोगों को यही बात कहने के लिए उन्होंने कहीं और बना हुआ, किसी और के द्वारा और बनाया गया यह क्षमा संदेश भेजा।
मुझे इससे किंचित् दुख हुआ क्योंकि क्षमा एक ईमानदार भाव है जो व्यक्ति के ह्रदय में उत्पन्न होता है। उसे अपने शब्दों में ही वक्त किया जाना चाहिए। मैं किसी और के शब्दों में क्षमा नहीं माँग सकता। क्षमा माँगने में समय बचाना भी एक तरह की कोताही है, वह उसे रस्म अदायगी में बदल देता है।
कर्मकांड नहीं
क्षमा माँगना कर्मकांड नहीं हो सकता। क्षमा याचना में जब तक निजी निवेश न हो, वह ईमानदार नहीं, एक परिपाटी है जिसे आदतन निभाना पड़ता है। क्षमा निर्वैक्तिक भाव नहीं है।
फिर भी क्षमा भाव की याद दिलाने के लिए मैं मित्र का कृतज्ञ हूँ ही। यह हमारे समाज में लुप्तप्राय है। इसका बोध इतना क्षीण हो चुका है कि उसे किसी भी प्रकार जीवित रखना एक बड़ा कर्तव्यनिर्वाह है।
क्षमा माँगते समय मेरे भीतर कुछ बदलता है या शायद उसके पहले ही बदल चुका होता है, तभी मैं क्षमा माँग पाता हूँ। क्षमा याचना करने के लिए एक लंबी तैयारी चाहिए। संवेदनात्मक और वैचारिक, दोनों प्रकार का अभ्यास।
अगर वह नहीं है तो फिर यह एक ज़बानी जमाखर्च है।
खामेमी सव्वे जीवा |
सव्वे जीवा खमंतु मे |
मेत्ती मे सव्वे भूयेसु |
वेरं मज्झम ण केणइ |
(मैं ब्रह्माण्ड के सारे जीवों से क्षमा माँगता हूँ और सारे जीवों को क्षमा करता हूँ, किसी के प्रति मेरे ह्रदय में कलुष नहीं, मैं सबका मित्र हूँ, किसी से शत्रुता नहीं करता।)
दुष्कृत्यों के लिए क्षमा याचना
मिच्छामि दुक्कडम: मेरे दुष्कृत्य मिथ्या हों, क्षमा किए जाएँ। लेकिन क्या इसका अर्थ यह होगा कि मैं उन्हें भुला दिए जाने को भी कह रहा हूँ या मैं खुद उन्हें बिलकुल भूल जाना चाहता हूँ? अपने दुष्कृत्य को याद रखते हुए ही माफ़ी माँगी जा सकती है। अगर मुझे मेरे पाप याद ही नहीं या किसी भी तरह मैं उन्हें परे कर देना चाहता हूँ तो भी इस क्षमा याचना का अर्थ नहीं।
क्षमायाचना व्यक्तिगत है, लेकिन वह सामाजिक या सामूहिक कर्म भी है। अनेक बार तो वह अनिवार्यता है। यूरोप में यहूदियों के साथ हुए बर्ताव के सामूहिक क्षमायाचना का सतत भाव हुए बिना वह सभ्य ही कैसे रह सकता है?
क्या तुर्की में और तुर्की के मुसलमानों में आर्मेनियायी ईसाइयों के साथ किए गए बर्ताव, उनके जनसंहार के लिए सामूहिक क्षमायाचना का भाव न होना चाहिए?
यहूदियों से क्षमा याचना
इसलाम का पालन करते हुए या ईसाइयत में आस्था रखते हुए उस रक्तपात को भुला देना स्वयं अपने लिए उचित नहीं है। एक जिम्मेवारी का भाव उसकी याद के जरिए ही बनाकर रखा जा सकता है।
जर्मनी आखिरकार खुद को इस धोखे से आज़ाद कर पाया कि यहूदियों के संहार के लिए सिर्फ एक आततायी हिटलर जिम्मेवार था। हिटलर जर्मन समाज की पैदाइश था। जर्मन समाज ने हिटलर के कृत्यों के लिए सामूहिक जिम्मेवारी समझी, क़बूल भी की। उससे वह छोटा नहीं हुआ, अधिक सचेत अवश्य हो गया।
जातिवाद पर क्षमा याचना
भारत में क्षमायाचना की सामूहिकता के बारे में तर्क ही नहीं किया जा सकता। उसका कारण यहाँ की जाति व्यवस्था है। हम सबका प्रत्येक अनुभव इस जाति विभाजन और भेदभाव से जाने अनजाने बंधा और बिंधा हुआ है। मुझे बिन चाहे कुछ सुविधाएँ प्राप्त हैं।
मैं सिर्फ अपने होने के कारण कुछ अपमानजनक स्थितियों से मुक्त रहने को लेकर आश्वस्त हूँ, जबकि एक और अपने होने के कारण उसे लेकर हमेशा आशंकित है और अपमानित न होने के लिए भाग्य या अन्य लोगों के प्रति कृतज्ञ अनुभव करता है। सिर्फ इस एक बात को समझ लेने से मेरे भीतर एक नैतिक सतर्कता आती जाती है।
अपनी जन्मगत, जैविक या लगभग प्राकृतिक लगनेवाली सामाजिक अवस्थिति के कारण बिना माँगे मिल जाने वाली सुविधा के लिए मुझे हमेशा क्षमाप्रार्थी रहना ही होगा और दूसरे को होनेवाली, स्वाभाविक प्रतीत होनेवाली हानि की भरपाई करने के लिए अतिरिक्त यत्न करते ही रहना होगा। इस यत्न के बिना क्षमायाचना सत्वहीन है। यथार्थ नहीं है।
क्षमायाचना करके क्या मैं हीन हो जाता हूँ जिससे क्षमा माँग रहा हूँ? या मैं ऐसा करके इंसानियत वापस हासिल करता हूँ जिसे ये दुष्कृत्यों के कारण मैं खो बैठा था?
माफ़ी माँगने का तरीका
कोई पूँजीपति जब मुनाफ़ा कमाने के अपने जीवन भर के व्यापार को छोड़ कर सारी सम्पत्ति समाज को अर्पित कर देता है तब वह अपनी आदमियत बहाल कर रहा होता है। उसकी संपत्ति न जाने कितनों के श्रम की चोरी का संचित रूप है, वह वैध अर्जन नहीं है। वह जब इस चोरी या डकैती के धन को वापस करता है तो क्या खुद को उच्च धरातल पर रखकर दानी के भाव से या जो कुछ उसने अब तक किया है, उसके लिए माफी माँगने का वह एक तरीका है? जब मैं किसी से व्यक्तिगत या एक सामूहिक का अंश होने के कारण क्षमा माँगता हूँ तो मैं उसके बराबर होना चाहता हूँ। उसे उठाने का अहंकार मेरे अन्दर नहीं होना चाहिए।
गाँधी ने हरिजन का पद सर्वोच्च माना और ‘उच्च जातियों‘ को इसके अयोग्य पाया। इसलिए कि अस्पृश्यता को, भेदभाव को प्राकृतिक नियम बनाकर इन जातियों ने मनुष्यता को खंडित करने का अपराध किया था, जो गाँधी जैसे धार्मिक व्यक्ति के लिए सबसे गंभीर पाप है।
भेदभाव समाप्त करने के लिए इन जातियों का आगे बढ़ना त्याग नहीं है, वह तो अपने लिए लाभ लेना है। साझा मानवता में शामिल होने की अर्हता प्राप्त करना है।
बनावटी क्षमा याचना?
क्षमायाचना को अगर हम सुबह दोपहर शाम की चीज़ बना दें तो उसे महत्त्वहीन कर देते हैं। उसके महत्त्व को तभी बनाए रखा जा सकता है जब हमें मालूम हो कि किस चीज़ के लिए क्षमा माँगने से परिवर्तन होता है। अगर क्षमायाचना के बाद भी मैं पूर्ववत ही रहूँ तो फिर क्षमायाचना व्यर्थ है, बनावट है, दिखावा है।
इसलिए जैसा पहले कहा क्षमा माँगना सबके बस की बात नहीं। ‘एक बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती काँपती ही है,’ यह वाक्य सिर्फ कमजोर हिंदी का नतीजा न था, एक कमजोर नैतिकता का नतीजा था।
पिता के हर कृत्य के लिए संतान जवाबदेह नहीं, लेकिन जब वह उसकी शेष विरासत पर दावा करती है तो इसकी भयावहता को न महसूस करना उसकी भारी नैतिक कमी है। उसकी ओर से उसकी पार्टी का कोई और नेता माफ़ी माँगे तो वह मुक्त नहीं हो सकती। यह क्षमायाचना तो उसके परिवार को ही करना होगी।
धोखे की टट्टी?
जो नेता यह कहे कि मैंने तो कह दिया था कि 6 दिसंबर मेरे जीवन का सबसे दुख का दिन था, अब बार बार मुझे उस दिन की याद क्यों दिलाते हो, वह अगर 5 अगस्त को यह कहे कि वह कृतकृत्य अनुभव कर रहा है तो हम जानते हैं कि उसने अपने पाप के लिए क्षमा नहीं माँगी थी, खुद को बचाने के लिए धोखे की टट्टी तानी थी।
क्षमा माँगते समय दंड से बचने की शर्त नहीं हो सकती। दंड न देना या उसका आग्रह छोड़ना उसका निर्णय होगा जिसके साथ अन्याय हुआ है, जिसका वह अपराधी है जो क्षमा माँग रहा है।
जैन समुदाय के प्रति इस पर्व के लिए कृतज्ञता तो ज्ञापित की ही जानी चाहिए। लेकिन किसी भी समुदाय को इस पर विचार करना चाहिए कि क्या किसी अन्य समुदाय के प्रति हिंसा के प्रचार में, हिंसा के आयोजन में उस समुदाय के संसाधनों का किसी भी रूप में उपयोग हो रहा है? कहीं भी?
पूरा समुदाय क्या उसके लिए जिम्मेवार महसूस करता है? या उस सबसे कठिन और संकटपूर्ण क्षण में उसके सदस्य अपनी सामूहिकता से पीछा छुड़ाकर कहना चाहते हैं कि उनसे यह सवाल किया ही नहीं जाना चाहिए क्योंकि वे जाती तौर पर इसके लिए जिम्मेदार नहीं?
अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं। – ये लेखक के निजि विचार हैं- सौज सत्यहिन्दी