राज्यों को जिस GST मुआवज़े का वायदा किया गया था, उसकी मनाही के लिए वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा “एक्ट ऑफ़ गॉड” की बात कहना संसदीय क़ानून का उल्लंघन और आर्थिक तर्कशास्त्र का मखौल है। जब ‘वस्तु एवम् सेवा कर (GST)’ लाया गया था, तब केंद्र ने राज्यों से वायदा किया था कि नई व्यवस्था से होने वाले नुकसान की 5 साल तक भरपाई करेगा। बता दें GST आने से राज्यों ने अपनी अप्रत्यक्ष कर लगाने की ताकत लगभग पूरी तरह खो दी है।
मुआवज़े का आकलन, कुल राजस्व प्राप्ति में आने वाली कमी से तुलना के आधार पर किया जाना था। राजस्व प्राप्ति में सालाना 14 फीसदी की वृद्धि भी जोड़ी जानी थी। इसी वायदे के चलते कई राज्य GST लागू करने के लिए सहमत हुए थे। संसद ने GST (राज्यों को मुआवज़ा) कानून, 2017 के ज़रिए इस वायदे को कानूनी रंग दिया था।
लेकिन GST से राजस्व बढ़ोत्तरी नहीं हो पाई। इसकी वजह इस व्यवस्था के अपने दोष और धीमी होती विकास दर है। साथ में जो GST सेस लगाया गया था, जिससे राज्यों को मुआवज़ा दिया जाना था, उससे भी पर्याप्त मात्रा में राजस्व उत्पादित नहीं हो पाया। राज्यों का राजस्व विकास भी धीमा रहा है, इसलिए GST से जुड़े मुआवज़े की मांग तेज हो रही है। लेकिन इस मुआवज़े को जिस निधि से आना था, उसमें विकास दर काफ़ी सुस्त रही है।
तार्किक तौर पर इस मुसीबत को पार करने के लिए सरकार को उधार लेना चाहिए, या फिर दूसरे चीजों पर कर लगाना चाहिए। इससे जो संसाधन मिलेंगे, उन्हें राज्य सरकारों को मुआवज़े के तौर पर देना चाहिए।
लेकिन अपना वायदा निभाने के बजाए केंद्र ने मुआवज़े की बात पर पलटी खा ली। समस्या अगस्त, 2019 में शुरू हुई थी। लेकिन मौजूदा वित्तवर्ष में महामारी के चलते इसने गंभीर रूप ले लिया। महामारी ने GST राजस्व को बड़े पैमाने पर गिरा दिया है, जबकि राज्यों का खर्च काफ़ी ज़्यादा बढ़ गया है।
2020-21 के लिए 3 लाख करोड़ रुपये का मुआवज़ा दिया जाना था। इसमें से केंद्र द्वारा लगाए गए सेस से सिर्फ 65 हजार करोड़ रुपये ही चुकता हो पाएंगे। बचे हुए 2.35 लाख करोड़ को चुकाने से केंद्र ने मना कर दिया है। 27 अगस्त को GST काउंसिल की बैठक में केंद्र ने इस पैसे की भरपाई के लिए राज्यों से उधार लेने के लिए कह दिया। केंद्र ने इसके लिए राज्य सरकारों को दो विकल्प दिए हैं। लेकिन दोनों ही स्थितियों में राज्य सरकारों को उधार लेना है।
यह दो वज़हों से बेहद विचित्र है। पहली बात, यह ना केवल केंद्र के पवित्र वायदे का उल्लंघन है, बल्कि यह संसद के कानून को भी तोड़ता है। यही तो वह आधार था, जिस पर भरोसा कर राज्यों ने अपने संवैधानिक अधिकार को खत्म करने पर सहमति जताई और GST के लिए जरूरी संवैधानिक संशोधन पर रजामंदी जताई। केंद्र अब उस कर्तव्य का पालन करने से इंकार कर रहा है, जो एक नई संवैधानिक व्यवस्था के तहत प्रबंधित हुआ है। दूसरी बात, केंद्र की बात में रत्ती भर भी आर्थिक तर्क नहीं है।
केंद्र द्वारा बड़े कर्ज़ लेने से देश को जो भी “नुकसान” होगा, वह नुकसान तो राज्यों द्वारा कर्ज़ लिए जाने से भी होगा। बल्कि राज्यों से कर्ज़ लेने के लिए कहकर केंद्र ने साफ कर दिया है कि इस मौके पर 2.35 लाख करोड़ का कर्ज़ सुरक्षा के साथ लिया जा सकता है, जिसे अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त खर्च के रूप में डाला जा सकता है। लेकिन फिर केंद्र इस कर्ज़ को लेना क्यों नहीं चाहता और क्यों इससे राज्यों का मुआवज़ा नहीं चुकाता?
केंद्र द्वारा कर्ज़ लेने के दो फायदे हैं: पहली बात सबसे अहम है, वह यह कि संवैधानिक बाध्यताओं का बिना उल्लंघन के पालन हो जाएगा। दूसरी बात, केंद्र के पास बड़ी मात्रा में कर लगाने योग्य शक्तियां हैं, इसलिए उसका कर्ज़ पूरी तरह सुरक्षित होता है। उसके डूबने की कोई संभावना नहीं होती। कुलमिलाकर केंद्र राज्यों की तुलना में बिना डर के कर्ज़ ले सकते हैं।
लेकिन केंद्र ने अपने सुझाव के पक्ष मे दो तर्क दिए हैं, जो आधारहीन हैं। केंद्र का कहना है कि महामारी, जिसके चलते GST राजस्व में बड़े स्तर की गिरावट आई है, वह “एक्ट ऑफ गॉड” है, जिसके लिए केंद्र ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
तो बता दें कि पूंजीवादी पक्षों के बीच होने वाले और मुनाफ़े को बढ़ाने की कोशिश वाले निजी समझौतों में ही ज़िम्मेदारियों से बचने वाले इस तरह के “एक्ट ऑफ गॉड” की बात होती है। एक लोकतांत्रिक समाज में लोकप्रिय तरीके से चुनी हुई दो सरकारों के बीच हुए समझौतों में यह लागू नहीं हो सकता।
वित्तमंत्री द्वार “एक्ट ऑफ गॉड” का जिक्र करना से एक संघ की दो सरकारों के बीच हुए समझौते को, दो निजी पक्षों के बीच होने वाले समझौतों के स्तर तक गिराया जाना है। यह ना केवल विचित्र है, बल्कि यह कदम उस सरकार की बहुत बड़ी विडंबना दिखाता है, जो लगातार सहयोगात्मक संघवाद की बात करती है।
केंद्र सरकार का दूसरा तर्क है कि अगर राज्यों को मुआवज़ा लेने के लिए उसने उधार लिया, तो इससे उधार की दर बढ़ जाएगी, जिससे पूरी अर्थव्यवस्था को नुकसान होगा। दूसरी तरफ अगर राज्य कर्ज़ लेते हैं, तो उधार की दर में बढ़ोत्तरी नहीं होगी। लेकिन केंद्र सरकार के इस तर्क का कोई आधार नहीं है।
ऊपर से इस बात का भी कोई तर्क दिखाई नहीं देता कि केंद्र सरकार को क्यों बाज़ार में जाकर कर्ज़ नहीं लेना चाहिए। जबकि उसने खुद ने माना है कि “एक्ट ऑफ गॉड” के चलते यह कर्ज़ लिया जाना जरूरी है। केंद्र सरकार आसानी से रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया से रेपो रेट पर यह कर्ज़ देने के लिए कह सकती है। रेपो रेट वह दर होती है, जिस पर आरबीआई बैंकिग व्यवस्था में कर्ज देता है।
अगर आरबीआई से 2.35 लाख करोड़ का पूरा कर्ज़ रेपो रेट पर लिया जाता है, तो इससे “रिज़र्व मनी” में भी कोई अंतर नहीं आएगा। “रिज़र्व मनी” वह पैसा होता है, जो अर्थव्यवस्था में मौजूद है, जो आरबीआई की आर्थिक ज़िम्मेदारी है।
एक छोटा उदाहरण इस बात को स्पष्ट कर देगा। मान लीजिए कि बड़े स्तर पर लोगों के पास हाथ में कोई पैसा नहीं है। उनका ज़्यादातर पैसा बैंकों में ज़मा है। जब केंद्र राज्य को GST मुआवज़े के तौर पर 100 रुपये देता है, तो सारा पैसा बैंकों में ज़मा के तौर पर वापस आता है। बैंक इस अतिरिक्त संसाधन से अतिरिक्त कर्ज़ दे सकते हैं।
अब मान लीजिए कि बैंकों का “कैश-रिज़र्व रेशियो” 10 फ़ीसदी है। बैंकों के नज़रिए से 300 रुपये का कर्ज़ दिया जाना फायदेमंद है। तब बैंक 300 रुपये का कर्ज़ देंगे। उन्हें 40 रुपये कैश रिज़र्व में रखना जरूरी होंगे (400 रुपये की कुल देनदारी का 10 फ़ीसदी)। मतलब 340 रुपये इस्तेमाल (300 का कर्ज़ और 40 रुपये कैश रिज़र्व रेशियो) हो चुके हैं। जो 60 रुपये बचे हैं, उनसे बैंक आरबीआई से सरकारी प्रतिभूतियां खरीदते हैं। तो अगर केंद्र सरकार आरबीआई से 100 रुपये का कर्ज भी लेती है, अर्थव्यवस्था में केवल 40 रुपये का रिज़र्व मनी ही बढ़ेगा।
केंद्र सरकार द्वारा आरबीआई से रेपो रेट पर कर्ज़ लेने के दो फायदे और हैं। पहला, बैंकों के हाथ में अतिरिक्त संसाधन देकर, अर्थव्यवस्था में बैंक क्रेडिट बढ़ जाती है। दूसरी बात, इस तरलता के अर्थव्यवस्था में डालने से ब्याज़ दर कम होगी। चूंकि भारतीय अर्थव्यवस्था में इस वक़्त बड़े स्तर की गंभीर मंदी छाई हुई है, इसलिए इन दोनों चीजों से वांछित फायदा होता।
दूसरे शब्दों में कहे तो GST मुआवज़े के लिए, आरबीआई से रेपो रेट पर केंद्र सरकार द्वारा कर्ज लेने से एक ही तीर से कई निशाने लगाए जा सकते थे। पहला, इससे 2017 के कानून में बताए गए केंद्र सरकार के कर्तव्यों का निर्वहन हो जाता। दूसरा, इससे राज्य सरकारों पर कोई भी अतिरिक्त तनाव नहीं पड़ता और संघीय ढांचा मजबूत होता। तीसरा, तरलता बढ़ने और कम ब्याज़ दर होने से अर्थव्यवस्था को इस मंदी से उबरने में सहायता मिलती।
लेकिन अपनी कमज़ोर आर्थिक समझ और राज्यों के प्रति कठोर रवैया रखने वाली नरेंद्र मोदी सरकार इन स्वाभाविक चीजों को देखने में नाकामयाब है।
GST परिषद की बैठक में सभी बड़े राज्यों (सिर्फ बीजेपी शासित राज्यों ने छोड़कर) ने मुआवज़े की पूर्ति के लिए राज्यों को उधार लेने वाली केंद्र की सलाह को ख़ारिज कर दिया। केरल सरकार ने विशेषतौर पर इस प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया। अगर संविधान के संघीय ढांचे को बरकरार रखना है, तो जरूरी है कि राज्यों को उनका बकाया चुकाया जाए।
सौज- न्यूजक्लिक- इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कीजिये।
https://www.newsclick.in/Centre-Stance-GST-Compensation-Utterly-Bizarre