आज मशहूर साहित्यकार शरत चंद्र की जयंती है. अंग्रेज शरत चंद्र की लोकप्रियता से डर गए थे इसलिए उन्होंने यीट्स के माध्यम से रबींद्रनाथ टैगोर को स्थापित किया. मैं रबींद्रनाथ टैगोर जैसे हल्के-फुल्के लोगों को महान मानने से इनकार करता हूं.साहित्य के क्षेत्र में मैं शरत चंद्र चट्टोपाध्याय और काज़ी नज़रुल इस्लाम का सबसे ज्यादा सम्मान करता हूं. मैं उर्दू में लिखे पद्य और बंगाली में लिखे गद्य को भारत में सबसे उम्दा मानता हूं
मैं बंगाल की धरती पर जन्मे महान लोगों और साहित्य, विज्ञान, दर्शन समाज सुधार आदि के क्षेत्र में उनके योगदान का गहरा प्रशंसक रहा हूं. लेकिन मैं (सुभाष चंद्र) बोस और (रबींद्रनाथ) टैगोर जैसे हल्के-फुल्के लोगों को महान मानने से इनकार करता हूं.
बंगाल के कितने लोगों ने देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय का नाम सुना होगा? वे आधुनिक समय में भारत में जन्म लेने वाले सबसे महान दार्शनिक थे. उनकी किताबें, खासकर ‘व्हॉट इस लिविंग एंड व्हॉट इस डैड इन इंडियन फिलॉसफी’ और ‘लोकायत’ बिलकुल मौलिक और मेरे विचार में भारतीय दर्शन की सबसे असाधारण किताबें हैं.
मैं राजा राम मोहन राय और ईश्वर चंद्र विद्यासागर का महान प्रशंसक रहा हूं जिन्होंने ऐसे कट्टर रूढिवादियों के जबर्दस्त विरोध के बावजूद, जो सती जैसी अमानवीय प्रथाएं बनाए रखना चाहते थे, भारत में सामाजिक सुधारों को नई दिशा दिखाई.
भारत में विज्ञान के क्षेत्र में बंगालियों का सबसे ज्यादा योगदान रहा है. प्रफुल्ल चंद्र राय को भारत में आधुनिक विज्ञान का पिता माना जाता है. इसके अलावा जगदीस चंद्र बोस, एसएन बोस (जिन्होंने आइंस्टाइन के साथ मिलकर बोस-आइंस्टाइन स्टेटिस्टिक्स की रचना की थी) और मेघनाथ सहा जैसे कई और महान बंगाली वैज्ञानिक भी हुए हैं.
साहित्य के क्षेत्र में मैं शरत चंद्र चट्टोपाध्याय और काज़ी नज़रुल इस्लाम का सबसे ज्यादा सम्मान करता हूं. मैं उर्दू में लिखे पद्य और बंगाली में लिखे गद्य को भारत में सबसे उम्दा मानता हूं. गद्य साहित्य में शरत चंद्र भारत के हर लेखक से ऊपर हैं, बिलकुल माउंट एवरेस्ट की तरह. मैं शरत चंद्र को भारत के उपन्यासकारों और कथा लेखकों में सबसे महान और दुनिया के सबसे महान लेखकों में से एक मानता हूं.
शरत चंद्र ने जाति प्रथा, महिला उत्पीड़न और दूसरी सामंती प्रथाओं और रिवाजों के खिलाफ जबर्दस्त जंग छेड़ी हुई थी. उनकी रचनाओं में से सबसे पहले मैंने ‘श्रीकांत’ को पढ़ा था, जो उनका सबसे लंबा उपन्यास भी था. इसे शुरु करने के बाद, जिसके बारे में कुछ लोग कहते हैं कि यह उनकी आत्मकथा भी थी, मैं इसमें इतना डूब गया कि पूरे एक हजार पन्ने पढ़ने के बाद ही उठा. इसके बाद मैंने उनकी चरित्रहीन, शेष प्रश्न, पल्लीसमाज, परिणीता, विराज बहू , देवदास, गृहदाह, विप्रदास आदि रचनाओं को पढ़ा. दबे-कुचले लोगों के लिए सच्ची दया रखने वाला एक अदभुत लेखक!
शरत चंद्र के साहित्य में महिलाओं का जो चरित्र चित्रण है, मेरे ख्याल से विश्व में कोई दूसरा लेखक उसकी बराबरी नहीं कर पाया है. मैंने विश्व साहित्य की कई महान रचनाएं पढ़ी हैं जिनमें महिला पात्र मुख्य भूमिका में हैं लेकिन उनमें से किसी को भी शरत चंद्र के महिला किरदारों जैसे राज्यलक्ष्मी, कमल, किरणमयी, चंद्रमुखी, सुमित्रा, भारती और सावित्री आदि की बराबरी पर नहीं रखा जा सकता.
बाद में जब शरत चंद्र ने ‘पाथेर दाबी’ लिखा तो अंग्रेज डर गए और उन्होंने इस पर प्रतिबंध लगा दिया. यह उपन्यास एक क्रांतिकारी संगठन के बारे में था जो अंग्रेजों का राज खत्म करना चाहता है. कहते हैं कि प्रतिबंध लगने के बाद इसकी एक प्रति की कीमत माउजर पिस्तौल के बराबर हो गई थी.
चूंकि अंग्रेज शरत चंद्र की लोकप्रियता से डर गए थे इसलिए उन्होंने यीट्स के माध्यम से टैगोर को स्थापित किया. उनका लक्ष्य था कि साहित्य को क्रांति की दिशा से मोड़कर – जो उसे शरत चंद्र दे रहे थे – हानिरहित दिशा में ले जाया जाए. टैगोर बंगाली साहित्य को अध्यात्म और रहस्यवाद की तरफ ले गए जबकि भारत जैसे गरीब देश के लिए यह बेमतलब हैं. ग्राहम ग्रीन (अंग्रेजी भाषा के साहित्यकार) का कहना था कि यीट्स के अलावा कोई भी टैगोर को गंभीरता से नहीं लेता. बाद में यीट्स भी टैगोर के खिलाफ हो गए. उनका कहना था कि टैगोर ने भावुकता भरी कोरी बातें लिखी हैं.
कुछ लोग कहते हैं कि टैगोर देशभक्त थे क्योंकि जलियांवाला हत्याकांड के बाद उन्होंने नाइटहुड की उपाधि वापस कर दी थी. लेकिन सवाल है कि आखिर अंग्रेजों ने किस वजह से उन्हें ही यह उपाधि दी. शरत चंद्र, काजी नजरूल इस्लाम, सुब्रमण्यम भारती आदि को यह उपाधि क्यों नहीं दी गई? साफ बात है कि ये लोग अंग्रेजपरस्त नहीं थे.
जहां तक नोबेल पुरस्कार की बात है तो हर कोई जानता है कि शांति की तरह ही साहित्य का नोबेल पुरस्कार भी अक्सर मजाक से कम नहीं होता. साहित्य में अब तक 113 नोबेल पुरस्कार दिए गए हैं लेकिन इनमें 90 से ज्यादा साहित्कारों को कोई जानता भी नहीं होगा क्योंकि पुरस्कार उन अयोग्य लोगों को दिए गए जो किसी न किसी के हितों को साध रहे थे. आखिर क्यों नोबेल पुरस्कार शरत चंद्र, काजी नजरूल इस्लाम, प्रेमचंद, सुब्रमण्यम भारती, फैज, मंटो आदि को नहीं मिला?
15 सितम्बर 1933 को शरत चन्द्र का 57वां जन्मदिवस था. इस दिन उनके सम्मान में कलकत्ता के टाउन हॉल में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था. यहां भाषण देते हुए उन्होंने माना कि वे गरीबों और शोषितों के कर्जदार हैं. अपने भाषण में उन्होंने कहा, ‘मेरा साहित्य सिर्फ मेरे पूर्वजों का ही कर्जदार नहीं है. मैं हमेशा उन शोषित और आम लोगों का भी ऋणी रहूंगा जिन्होंने इस दुनिया को अपना सबकुछ दिया लेकिन बदले में कुछ भी हासिल नहीं किया… उन्हीं लोगों के कारण मैंने बोलना/लिखना शुरू किया. उन्होंने ही मुझे प्रेरणा दी कि मैं उनका पक्ष उठाऊं और उनकी पैरवी करूं.’
मुख्यरूप से कला और साहित्य के दो सिद्धांत होते हैं. कला, कला के लिए और कला समाज के लिए. जो पहली विचारधारा को मानते हैं उनके हिसाब से कला और साहित्य का मकसद सिर्फ खूबसूरत और मनोरंजक रचनाएं देना है. वहीं दूसरी विचारधारा के लोग इस बात में यकीन करते हैं कि कला और साहित्य को सामाजिक उद्देश्यों को पूरा करना चाहिए. उन्हें दमनकारी रीतिरिवाजों और रूढ़ियों से लड़ने के लिए लोगों की मदद करनी चाहिए और लोगों को बेहतर जिंदगी के संघर्ष की प्रेरणा देनी चाहिए. शरत चन्द्र इसी दूसरी विचारधारा से आते थे. उनकी लेखनी ने बंगाल की कई शोषणकारी प्रथाओं और रीति-रिवाजों को काफी हद तक कमजोर कर दिया था.
यह कुछ समय पहले जस्टिस काटजू द्वारा लिखे गये एक लेख का संपादित संस्करण है. सौज- सत्याग्रहः लिंक नीचे दी गई है-