जन सरोकार से जुड़ी खबरें मुख्यधारा से क्यों गायब हैं ?

नेटफ्लिक्स पर हाल ही में रिलीज हुआ डॉक्यूड्रामा “सोशल डायलेमा” इन दिनों काफी चर्चा में है.यह हमें बताती है कि लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए सोशल वेबसाइट्स द्वारा जो अल्गोरिदम सेट किए जा रहे हैं वह ऑब्जेक्टिव नहीं हैं. वह “किसी कामयाबी की परिभाषा” के तहत गढ़े जा रहे हैं. इसी डाक्यूड्रामा से हमें पता चलता है कि मुनाफा कमाने के लिए लोगों का ध्यान खींचने की इस लड़ाई में रणनीति इंटरनेट पर गलत सूचना के प्रति झुकी हुई है.

पर्यावरण, क्लाइमेट चेंज, सूचना अधिकार, मनरेगा और गवर्नेंस से जुड़ी वो तमाम खबरें जिनका वास्ता समाज से है वह खबरिया चैनलों पर क्यों दिखाई नहीं देती? सोशल मीडिया पर चल रही अफवाहों ने मुख्यधारा में घुसपैठ सी कर ली है.

क्या आपने यह खबर पिछले हफ्ते टीवी चैनलों पर देखी कि दुनिया की दो तिहाई जन्तु आबादी पिछले पचास साल में खत्म हो गई है और इसके लिए इंसानी हरकतें जिम्मेदार हैं. इस रफ्तार से धरती पर जन्तुओं का गायब होना पूरी मानवता के लिए बड़ा संकट है लेकिन न्यूज चैनलों पर इसे लेकर फिक्र कहां है? क्या आपको किसी खबरिया चैनल से यह पता चला कि क्लाइमेट चेंज के बढ़ते असर के कारण साल 2050 तक दुनिया में करीब 120 करोड़ लोगों को अपना घर छोड़कर किसी दूसरी जगह विस्थापित होना पड़ेगा. यह रिपोर्ट बताती है कि धरती पर पिछले 50 सालों में पीने योग्य साफ पानी 60 प्रतिशत कम हो गया है और साल 2050 तक अनाज की मांग 50 प्रतिशत बढ़ जाएगी.

आप यह कह सकते हैं कि ये सभी खबरें डरानी वाली हैं और खबरिया चैनल अपने दर्शकों को डराने या निराश करने वाले समाचार क्यों परोसे? लेकिन यह भी सच नहीं है. पर्यावरण के क्षेत्र में कई उम्मीद जगाने वाले खबरें आती रहती हैं जो क्षेत्रीय से लेकर राष्ट्रीय समाचारों में छपती हैं लेकिन समाचार चैनलों में उन्हें अपवाद स्वरूप ही जगह मिलती है. मिसाल के तौर पर उत्तराखंड के चमोली जिले में 124 साल बाद दुर्लभ ऑर्किड की एक प्रजाति मिली. इस खबर को तकरीबन सभी प्रमुख अखबारों या वेबसाइट ने छापा लेकिन शायद ही कि किसी न्यूज चैनल में इसे जगह मिली हो.

क्या हुआ मुख्य धारा मीडिया को

बात पर्यावरण तक ही सीमित नहीं है. सूचना के अधिकार कानून से लेकर मनरेगा जैसे कानून पर भी यही बात कही जा सकती है. इन दो कानूनों ने आम जन के हाथ में सवाल पूछने और भोजन के अधिकार की ताकत दी. पिछले कुछ सालों में जहां आरटीआई ने चुनावी बॉन्ड से लेकर डिजिटल सर्वेलांस तक अहम मुद्दों पर कई विस्फोटक खुलासे किए हैं वहीं कोरोना लॉकडाउन के बाद जब लोगों की नौकरियां गईं तो मनरेगा वैकल्पिक रोजगार का साधन बना लेकिन ऐसी खबरों पर कुछ एक अपवादों को छोड़ कर “मुख्यधारा न्यूज टीवी” बहरा ही बना रहा. 

सोशल मीडिया और फेक न्यूज के बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर भी इस तथ्य को टटोला जाना जरूरी है. नेटफ्लिक्स पर हाल ही में रिलीज हुआ डॉक्यूड्रामा “सोशल डायलेमा” इन दिनों काफी चर्चा में है. ट्विटर, फेसबुक, गूगल, इंस्टाग्राम और यूट्यूब समेत तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स में अहम पदों पर काम कर चुके एक्जक्यूटिव बताते हैं कि घनघोर पूंजीवादी समाज में लोगों का ध्यान खींचना और उसे बनाए रखना कंपनियों का प्रमुख उद्देश्य है. इंटरनेट पर आधिपत्य जमाए इन कंपनियों के पास लोगों के बारे में इतनी जानकारी है जितनी इंसानी इतिहास में पहले कभी नहीं थी.

सोशल डायलेमा हमें बताती है कि लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए इन सोशल वेबसाइट्स द्वारा जो अल्गोरिदम सेट किए जा रहे हैं वह ऑब्जेक्टिव नहीं हैं. वह “किसी कामयाबी की परिभाषा” के तहत गढ़े जा रहे हैं. इसी डाक्यूड्रामा से हमें पता चलता है कि मुनाफा कमाने के लिए लोगों का ध्यान खींचने की इस लड़ाई में रणनीति इंटरनेट पर गलत सूचना के प्रति झुकी हुई है. सच को जानना किसी कठिन पहाड़ी पर चढ़ने जैसा है जबकि गलत सूचना दिल को खुश करने वाली और चटपटी होती है. फेक न्यूज गलत सूचना विज्ञापनों से अधिक पैसा बनाती है और सच इंटरनेट पर “बोरिंग” होता है.

सोशल मीडिया का असर

एक और महत्वपूर्ण बात ये कि पूरी दुनिया में राजनीतिक रूप से गहरे बंट चुके समाज में लोग वही सुनना चाहते हैं जिस पर वह भरोसा करते हैं चाहे फिर वह बात तथ्यों से परे ही क्यों न हो. सोशल मीडिया के साथ संप्रेषण के ताकतवर माध्यम बने टीवी चैनल इस खेल को समझ गए हैं. जलवायु परिवर्तन की ही मिसाल लें तो गूगल पर जलवायु परिवर्तन के बारे जानकारी खोजने निकले व्यक्ति को किसी देश में पहला परिणाम मिलता है कि क्लाइमेट चेंज मानवता के लिए बड़ा खतरा है तो किसी दूसरी जगह सर्च कर रहे व्यक्ति को पता चलता है कि क्लाइमेट चेंज बस एक हौव्वा है. यानी इंटरनेट को इस तरह साधा जा रहा है कि जो जैसी चाहत रखता है उसे वैसे परिणाम मिले.

लेकिन टीवी न्यूज क्या महत्वपूर्ण खबरों की अनदेखी को सोशल मीडिया के इस गणित के पीछे छुपा सकता है. टीवी न्यूज चैनलों पर करीबी नजर रखने वाली वेबसाइट न्यूजलॉन्ड्री के सीईओ अभिनंदन शेखरी कहते हैं कि सोशल मीडिया और ब्रॉडकास्ट मीडिया (टीवी न्यूज चैनल) का न तो कोई सीधा कमर्शियल लिंक है और न ही बहुत गहरा रिश्ता है. उनके मुताबिक यह रिश्ता बहुत सतही है लेकिन यह भी सच है कि सोशल मीडिया की ताकत ने टीवी चैनलों के कंटेंट पर व्यापक असर डाला है. “पहले जो खबर पारम्परिक मीडिया में हिट हो जाती वह सोशल मीडिया पर चलने लगती थी लेकिन अब खबर सोशल मीडिया में ब्रेक होती है और न्यूज टीवी में चलने लगती है फिर चाहे वह अफवाह ही क्यों न हो. क्यों? क्योंकि वही बिकता है. उसमें बस यही कमर्शियल इंटरेस्ट होता है कि ऐसी चीज वायरल बहुत तेजी से हो जाती है.” शेखरी ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा.

तो क्या आरटीआई, पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन जैसी सरोकारी खबरों से दूर रहना न्यूज चैनलों की मजबूरी है. खबरिया टीवी की बहस का एक चेहरा और मीडिया-समीक्षक अभय कुमार दुबे इससे सहमत नहीं है. वह कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि न्यूज चैनल सरोकारी पत्रकारिता को पसंद नहीं करते या कभी सरोकार इन चैनलों की खबर का हिस्सा होते ही नहीं थे. दुबे कहते हैं, “टीवी चैनलों की पत्रकारिता ने एक वक्त समाचार पत्रों पर खुद को नए सिरे से गढ़ने का दबाव डाला और उन्हें अपने मुखपृष्ठ तक री-डिजाइन करने पड़े. तमाम समाचार पत्रों के सामने इन्हीं न्यूज चैनलों ने एक वक्त अस्तित्व का संकट खड़ा किया. अखबार के संपादक सोचते कि कैसे नया समाचार लाएं क्योंकि टीवी चैनल तो हर खबर को पहली शाम को ही रिपोर्ट कर देते. लेकिन इन दिनों समाचार चैनल एक सिरे से दूसरे सिरे पर चले गए हैं. उनके लिए सनसनी पैदा करना और सत्ताधारी शक्तियों, चाहे वह केंद्र में हों या राज्यों में, को खुश करना ही ध्येय बन गया है.”

सरकार से सवाल पूछने में डर

सवाल खोजी पत्रकारिता और सरकार को कटघरे में खड़ा करने वाली रिपोर्टिंग के कमजोर होने का भी है. दुबे कहते हैं कि पर्यावरण या सूचना अधिकार जैसी खबरों को चलाने और स्क्रीन पर बड़ा बनाने के लिए सत्ता से सवाल पूछने पड़ेंगे और टीवी चैनलों के बड़े हिस्से ने तय कर लिया है कि वह सरकार से सवाल नहीं पूछेंगे. “चैनल सरोकारी खबरों से हटकर पूरी तरह सरकारी खबरों पर आ गए हैं और अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए उन्होंने उन खबरों का सहारा ले लिया है जिनमें हिंसा, सनसनी, ड्रग्स और षड्यंत्र वाला मसाला हो. एक समय था जब अपराध कथाओं वाली पत्रिकाएं खूब बिका करती थीं जो अब भी काफी बिकती हैं. समाचार चैनलों का वही मॉडल है.” दुबे ने कहा.

दूसरी ओर अभिनंदन शेखरी कहते हैं कि सारा खेल रेटिंग का है. पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और आरटीआई जैसी खबरों के दर्शक तो हैं लेकिन वह बहुत नीश (सीमित) मार्केट है और वह आपकी रेटिंग को कभी नंबर एक या दो पर नहीं ला सकता. “ब्रॉडकास्ट मीडिया ‘विनर टेक्स ऑल’ के लॉजिक पर काम करता है. बड़े इंटरटेनमेंट चैनलों को देखिए. अगर आप टॉप थ्री में नहीं हैं तो आप कभी मुनाफे में नहीं हो सकते.” इसी लॉजिक को ब्रॉडकास्ट चैनल भी फॉलो करते हैं और इसीलिए पर्यावरण वगैरह की कोई फिक्र नहीं करता क्योंकि वह नीश मार्केट नहीं है. अभिनंदन शेखरी बताते हैं, “यह हाल भारत ही नहीं दुनिया के सभी देशों में है कि रियलिटी शो ज्यादा बिकते हैं, लेकिन जहां दूसरे देशों में पत्रकारिता की अब भी कद्र है वहीं भारत में टीवी चैनलों ने खुद को पूरी तरह रियलिटी शो बना लिया है.”

सौज- डीडब्लू

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