पारसी थिएटर में हिंदी परंपरा की नींव रखने वाले इस दिग्गज की राधेश्याम रामायण हिंदी पट्टी के एक बड़े इलाके में कई दशकों से लोकप्रिय रही है बक़ौल मधुरेश, एक नाटककार के तौर पर राधेश्याम कथावाचक एक ओर उर्दू के गढ़ में हिंदी की सेंध लगा रहे थे, वहीं वे हिन्दू आदर्शों के संपोषण और प्रसार में भी सक्रिय थे. इस अर्थ में वे शायद एक हिंदुत्ववादी लेखक भी कहे जा सकते हैं. लेकिन उनका यह ‘हिंदुत्व’ समावेशी और सकारात्मक हिन्दुत्व था, जिसमें दूसरे धर्मों के प्रति सदायशता और उदारता का भाव था.
न्यू अलबर्ट कंपनी की ‘रामायण‘ की स्क्रिप्ट सुधारते वक्त पंडित राधेश्याम ने शायद सोचा भी न हो कि रामायण से जुड़कर उन्हें ऐसी ख्याति मिलेगी जो समय की सीमाएं लांघ जाएगी. हालांकि ‘राधेश्याम रामायण’ इसके 10 साल बाद अस्तित्व में आई मगर इस घटना ने थिएटर से उनके बचपन के लगाव को साकार करने के साथ ही पारसी थिएटर और उस दौर के नाटकों में बदलाव के एक नए युग की भूमिका भी तय कर दी.
यह वाक़या 1910 का है, जब पंजाब के नानक चंद खत्री की न्यू अलबर्ट कंपनी बरेली आई. बहुत कम उम्र से अपने पिता पंडित बांके लाल के साथ ‘रुक्मिणी मंगल‘ की कथा कहते हुए राधेश्याम तब तक अपनी तरह के कथावाचन और पौराणिक आख्यानों पर रचे अपने काव्य के ज़रिये कथावाचक की हैसियत से स्वतंत्र पहचान बना चुके थे. तो एक रोज़ उनके घर पहुंच गए नानक चंद खत्री ने अपनी कम्पनी के ‘रामायण‘ नाटक में सुधार का आग्रह किया. बताया कि कंपनी ने जयपुर में नाटक का मंचन किया तो वहां के महाराज सवाई माधोसिंह ने उसमें कुछ कमियां बताई हैं और उनके सचिव ने पंडित राधेश्याम से सुधरवाने का सुझाव दिया है.
पंडित राधेश्याम से कई बार कथा सुन चुके महाराज सवाई माधोसिंह उनकी प्रतिभा से ख़ासे प्रभावित थे. कंपनी जो ‘रामायण‘ नाटक खेल रही थी, वह तुलसीदास की चौपाइयों के साथ ही तालिब, उफक़ और रामेश्वर भट्ट के लिखे की मिलीजुली स्क्रिप्ट थी. राधेश्याम ने उस स्क्रिप्ट में संशोधन के साथ ही नारद की भूमिका ख़ासतौर पर जोड़ी. नाटक ख़ूब लोकप्रिय हुआ और इसी के साथ पंडित राधेश्याम भी. यही सिलसिला राधेश्याम रामायण तक गया. खड़ी बोली में लिखी उनकी यह रचना हिंदी पट्टी खासकर उत्तर-प्रदेश के एक बड़े इलाके में पिछले कई दशकों से बेहद लोकप्रिय और वहां होने वाली रामलीलाओं का नया आधार ग्रंथ भी रही है.
बरेली में 25 नवंबर 1890 को जन्मे राधेश्याम के घर के पास ‘चित्रकूट महल’ हुआ करता था जहां शहर में आने वाली नाटक कम्पनियों के लोग ठहरते थे. उनकी रिहर्सल के दौरान सुनाई देने वाला गीत-संगीत उन्हें बचपन से ही लुभाता था. उनके पिता की नाटकों में कोई दिलचस्पी नहीं थी मगर राग-रागिनियों से वे ख़ूब वाक़िफ़ थे. रामलीला में वे चौपाइयां गाते तो सुनने वाले झूम उठते. राधेश्याम ने हारमोनियम बजाने और गाने का शुरुआती सलीक़ा उन्हीं से सीखा. ‘रुक्मिणी मंगल‘ की कथा कहने उनके पिता जब बाहर जाते तो वह भी साथ होते, कथा के गीत वे गाते और अर्थ उनके पिता किया करते. कुछ और ज्यादा करने के इरादे से उन्होंने भजन लिखना शुरू किया और इन्हें गाने के लिए बरेली में देखे गए नाटकों के गानों की तर्ज पर धुन बनाना भी सीखा.
नाटकों के प्रति अपने लगाव को राधेश्याम नशा कहते थे. बरेली आने वाली न्यू अल्फ्रेड कंपनी के नाटकों को देखकर चढ़ा यह नशा तब परवान चढ़ा, जब वे पिता के साथ ‘रामचरितमानस‘ का पाठ करने के लिए महीने भर तक आनंद भवन में रहे. इलाहाबाद में कोरोनेशन कंपनी आई हुई थी और मोतीलाल नेहरू अपने परिवार के साथ ही इन लोगों को भी नाटक दिखाने ले जाते. एनएसडी के लिए राधेश्याम कथावाचक पर किताब लिखने वाले आलोचक मधुरेश के मुताबिक़ यही वह समय था, जब ‘कथा’ और ‘नाटक‘ को लेकर राधेश्याम दुविधा में पड़े मगर, जल्दी ही उन्होंने दोनों के बीच ऐसा संतुलन बना लिया, जो जीवन भर बना रहा.
वह पारसी थिएटर की धूम का दौर था. आगा हश्र कश्मीरी और नारायण प्रसाद ‘बेताब’ के ड्रामों का दौर था. वह दौर था जब ड्रामों में महिलाओं के क़िरदार मर्द ही निभाते थे. नृत्य और संगीत प्रधान इन ड्रामों की ज़बान उर्दू ही हुआ करती थी. ऐसे में जब पंडित राधेश्याम ने न्यू अल्फ्रेड कंपनी के लिए अपना पहला नाटक ‘वीर अभिमन्यु‘ लिखा तो डायरेक्टर सोराबजी ओग्रा के उत्साह के बावजूद फाइनल रिहर्सल देखने बैठे कंपनी के मालिक माणिक जी जीवन जी ने सिर पकड़ लिया. उन्हें आशंका थी कि इतनी ज्यादा हिंदी का नाटक पब्लिक शायद समझ न पाएगी.
चार फरवरी 1916 को ‘वीर अभिमन्यु‘ का पहला शो हुआ. इस नाटक को लोगों ने इतना पसंद किया कि बाद में जब राधेश्याम ने कंपनी से इजाज़त लेकर इसे छापा तो पहला संस्करण दो हज़ार, फिर पांच हज़ार और फिर आठ हज़ार प्रतियों का था और फिर तो यह छपता ही रहा. एक सदी बाद भी यह ‘वीर अभिमन्यु‘ अब भी देश भर में खेला जाता है. पंजाब एजुकेशन बोर्ड ने तो इसे अपने पाठ्यक्रम में भी शामिल कर लिया था.
तो ‘वीर अभिमन्यु‘ में हिंदी के संवादों को लेकर माणिक जी की आशंका ग़लत निकली और इसके साथ ही इस नाटक ने पारसी थिएटर में हिंदी की परंपरा की नई नींव डाल दी. उनके लिखे बाद के नाटकों श्रवण कुमार, परम भक्त प्रह्लाद और परिवर्तन को भी ख़ूब सराहना मिली. पंडित राधेश्याम ने जो 13 नाटक लिखे हैं, उनमें ‘मशरिक़ी हूर’ और ‘परिवर्तन’ को छोड़कर सभी धार्मिक-पौराणिक आख्यानों पर आधारित हैं. और 1926 में ‘मशरिक़ी हूर’ तो यह साबित करने की ख्वाहिश का नतीजा था कि इस्लामी जीवन-दर्शन पर या उर्दू ज़बान में वह भी लिख सकते हैं. हालांकि ‘राधेश्याम रामायण’ के शुरुआती संस्करण में मिली-जुली हिन्दुस्तानी ज़बान ही देखने को मिलती है.
बक़ौल मधुरेश, एक नाटककार के तौर पर राधेश्याम कथावाचक एक ओर उर्दू के गढ़ में हिंदी की सेंध लगा रहे थे, वहीं वे हिन्दू आदर्शों के संपोषण और प्रसार में भी सक्रिय थे. इस अर्थ में वे शायद एक हिंदुत्ववादी लेखक भी कहे जा सकते हैं. लेकिन उनका यह ‘हिंदुत्व’ समावेशी और सकारात्मक हिन्दुत्व था, जिसमें दूसरे धर्मों के प्रति सदायशता और उदारता का भाव था.
अमेरिका स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ नार्थ कैरोलिना की असिस्टेंट प्रोफेसर पामेला लोथस्पाइच पंडित राधेश्याम के काम पर लंबे समय से शोध कर रही हैं. अपने शोध ‘द राधेश्याम रामायण एण्ड संस्कृटाइज़ेशन ऑफ खड़ी बोली‘ में वे 1939 से 1959 के बीच आए ‘राधेश्याम रामायण’ के संस्करणों में हिंदी-उर्दू ज़बान को शुद्ध हिंदी की ओर खींचने की कोशिश का जिक्र करती हैं. उनका मानना है कि अगर इसे हिंदू राष्ट्रवाद से प्रेरित न भी माना जाए तो कई बार के पुनर्लेखन के मूल में हिंदी भाषा आंदोलन का असर ज़रूर हो सकता है. इससे उस दौर में भाषाई शुद्धता के बढ़ते आग्रह और दबाव को भी समझने में मदद मिलती है. अशोक वाटिका खण्ड के एक दोहे में फेरबदल से इसे समझ सकते हैं- ‘इत्तिफाक़िया नज़र से गुज़रा एक मुक़ाम’ बाद के संस्करणों में ‘अकस्मात देखा तभी एक मनोहर धाम‘ हो गया है.
भाषा में बदलाव के ऐसे आग्रहों की पड़ताल के लिए अभी और शोध की दरकार लगती है, अंदाज़ों पर बहस की जा सकती है मगर राधेश्याम के नाटकों में युग-बोध, सत्ता की निरकुंशता के प्रतिरोध और सामाजिक सुधार की चेतना से किसी को इनकार नहीं हो सकता. और यह भाव उनके सामाजिक-धार्मिक नाटकों में बराबर बना रहा. ‘परम भक्त प्रह्लाद’ में एक उत्पीड़ित किसान, राजा हिरण्यकशिपु को ललकारते हुए कहता है-
तुझे आदत पड़ी जगदीश कहने औऱ कहाने की।
बनाई ज़िन्दगी बस खेलने की और खाने की।।
उधर अम्बार दौलत का इधर है फ़िक्र दानों की।
ख़बर भी है तुझे ज़ालिम, दुखी दुर्बल किसानों की।।
अपनी आत्मकथा ‘ मेरा नाटककाल‘ में पंडित राधेश्याम ने लिखा है कि अहमदाबाद में इस नाटक के मंचन के दिनों में कंपनी के मैनेजर ने उन्हें आगाह करते हुए बताया कि ख़ुफिया महक़मे का एक आदमी हुक़ूमत की मुख़ालफ़त के सबूत की तलाश में कई बार आ चुका है. ज़ाहिर है कि नाटक के इस संवाद में वह कार्रवाई लायक़ कुछ खोज नहीं पाया होगा.
हमारे समय में जब भाषा और धर्म की आड़ में वैमनस्य के भाव का विस्तार ही हुआ है, पंडित राधेश्याम के काम के समग्र मूल्याकंन का महत्व और बढ़ जाता है. और यह काम होना अभी बाक़ी है.
सौज- सत्याग्रहः लिंक नीचे दी गई है-
https://satyagrah.scroll.in/article/122737/radhesyam-kathavachak-profile