मुकेश कुमार
क़रीब एक दर्ज़न ऐसे मामले हैं जिन पर तुरंत सुनवाई होनी चाहिए थी, मगर उन्हें लगातार टाला जा रहा है। इनमें धारा 370 से लेकर, इलेक्टोरल बांड, आरटीआई, सीएए, यूएपीए जैसे बहुत ही संगीन मामले शामिल हैं। इनमें से कई मामलों की तो सुनवाई ही शुरू नहीं की गई है। ऐसे में अगर सवाल उठ रहे हैं तो ग़लत क्या है? क्या 83 साल के बुजुर्ग देश की सुरक्षा के लिये इतना बडा ख़तरा बन गये हैं कि वो उन्हें स्ट्रा और सीपर नहीं दे सकती?
झारखंड के आदिवासियों के लिए काम करने वाले 83 वर्ष के बुज़ुर्ग सामाजिक कार्यकर्ता स्टेन स्वामी पार्किंसन नामक बीमारी से जूझ रहे हैं। उन्हें विशेष देखभाल की ज़रूरत है और कुछ छोटी-मोटी सहूलियतों की भी। स्ट्रॉ और सिपर कप भी ऐसी ही चीज़ें हैं। बीस दिन पहले उन्होंने ये दोनों चीज़ें अपनी ज़ब्त की गई चीज़ों में से देने की मामूली सी माँग की थी।
राष्ट्रीय जाँच एजेंसी यानी एनआईए ने इसके लिए बीस दिनों का समय माँगा और अब यह कहते हुए मना कर दिया कि ज़ब्त सामान में ये चीज़ें थी ही नहीं। स्वामी के वकील ने इसे ग़लत ठहराते हुए कहा है कि उनके बैग में दोनों चीज़ें थीं, मगर यदि मान लिया जाए कि एनआईए सही बोल रही है तो क्या मानवीय आधार पर वह इन्हें उपलब्ध नहीं करवा सकती थी? ये चीज़ें इतनी महँगी नहीं हैं और वैसे भी स्वामी उसके लिए भुगतान करने को तैयार थे। लेकिन एनआईए ने ऐसा नहीं किया।
साफ़ है कि एनआईए, बल्कि कहना चाहिए कि केंद्र सरकार ऐसा करना ही नहीं चाहती थी। वह स्वामी को कोई राहत देना तो दूर उन्हें परेशान भी करना चाहती है। उनके स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करना भी इसमें शामिल है। इसीलिए हर तरफ़ निंदा होने के बावजूद वह टालमटोल करने में लगी हुई है। उसकी नीयत को तो इसी से परखा जा सकता है कि उसने स्वामी को गिरफ़्तार करते हुए उनकी उम्र का भी लिहाज़ नहीं किया और इसके बाद उनकी जमानत का भी लगातार विरोध करती रही।
एनआईए का यह रवैया हमने और मामलों में भी देखा है। क्रांतिकारी कवि वरवर राव की हालत जब तक बहुत बिगड़ नहीं गई तब तक उन्हें अस्पताल में भर्ती नहीं करवाया गया। इसके लिए भी कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा। सुधा भारद्वाज भी बीमार हैं मगर उन्हें न तो ज़मानत मिल रही है और न ही स्वास्थ्य सुविधाएँ।
लेकिन दिक़्क़त केवल सरकार के स्तर पर नहीं है। इस बर्बरता के उदाहरण देश भर में देखे जा सकते हैं।
अफ़सोस तो इस बात का है कि न्यायपालिका का रवैया भी संतोषजनक नहीं है। उसमें इतनी संवेदनशीलता नहीं दिख रही कि वह स्टेन स्वामी या वरवर राव के मामले में सरकारी एजेंसियों के बुने जाल के पार देखते हुए कुछ फ़ैसले ले सके।
भीमा कोरेगाँव से जुड़े कथित अभियुक्तों का मामला ही नहीं है जिसमें सरकार और अदालतों का ये रवैया हमें देखने को मिल रहा है। दिल्ली दंगों में दिल्ली पुलिस की षडयंत्रकारी भूमिका के पन्ने तो हर दिन खुल रहे हैं। जामिया मिल्लिया की छात्रा सफ़ूरा जर्गर को गर्भवती होने के बावजूद क़रीब छह महीने जेल में रहना पड़ा। यही नहीं, दिल्ली पुलिस ने दर्ज़नों बेकसूर लोगों को फ़र्ज़ी आरोपों में जेल में बंद कर रखा है और उनकी ज़मानत नहीं होने दी जा रही है। उत्तर प्रदेश के डॉ. कफील या कश्मीर के नेताओं की गिरफ़्तारी भी इसी बर्बरता के सिलसिले की कड़ी है।
केंद्रीय क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद कहते हैं कि न्यायपालिका की आलोचना तो हो सकती है मगर उसके लिए न्यायिक बर्बरता जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाना क़तई स्वीकार्य नहीं है। लेकिन शायद उन्हें पता नहीं है कि आलोचना के लिए शब्दों का चयन परिस्थितियों पर निर्भर करता है। उन्हें आपत्ति जताने से पहले ख़ुद से पूछना चाहिए कि क्या वज़ह है कि इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल भारत की न्याय व्यवस्था के लिए पहले कभी क्यों नहीं किया गया और आज ही क्यों हो रहा है?
न्यायपालिका के वर्तमान रवैये को न्यायिक बर्बरता के रूप में क्यों देखा जा रहा है, उसकी कई वज़हें हैं।
अव्वल तो ऐसे समय में जब सरकार लोकतांत्रिक बर्बरता की तमाम हदें लाँघ रही है तो न्यायपालिका का रवैया हताशा पैदा करने वाला है, क्योंकि न्याय की अंतिम उम्मीद वहीं दम तोड़ देती है क्योंकि वह अपना काम करती हुई दिख नहीं रही है।
दूसरे, यह बार-बार देखा जा रहा है कि उस पर सरकार का दबाव काम कर रहा है। अर्णब गोस्वामी के मामलों को प्राथमिकता के साथ सुनने और फ़ौरन राहत देने भर का मामला हमारे सामने नहीं है। हमने देखा है कि जब लाखों मज़दूर लॉकडाउन की वज़ह से सड़कों पर थे तो उसने अपने आँख-कान ही नहीं दरवाज़े भी बंद कर दिए थे। साफ़ है कि सरकार से जुड़े लोगों के मामलों में अदालतें तुरंत सुनवाई भी कर लेती हैं और अनुकूल फ़ैसले भी सुना देती हैं, मगर सरकार के विरोधियों के साथ दूसरी तरह का व्यवहार किया जाता है।
तीसरी वज़ह यह है कि क़रीब एक दर्ज़न ऐसे मामले हैं जिन पर तुरंत सुनवाई होनी चाहिए थी, मगर उन्हें लगातार टाला जा रहा है। इनमें धारा 370 से लेकर, इलेक्टोरल बांड, आरटीआई, सीएए, यूएपीए जैसे बहुत ही संगीन मामले शामिल हैं। इनमें से कई मामलों की तो सुनवाई ही शुरू नहीं की गई है। ऐसे में अगर सवाल उठ रहे हैं तो ग़लत क्या है? क्या 83 साल के बुजुर्ग देश की सुरक्षा के लिये इतना बडा ख़तरा बन गये हैं कि वो उन्हें स्ट्रा और सीपर नहीं दे सकती? और न्याय व्यवस्था चुप है तो क्यों न कहा जाये कि सरकार ही नहीं, न्याय व्यवस्था भी बर्बर हो गयी है?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजि विचार हैं। सौज- सत्याहिन्दी- लिंक नीचे दी गई है-