संवाद के एक नए और शायद प्रभावी माध्यम की तलाश में ही आज हम आपसे इस वीडियो के माध्यम से मुखातिब है । तकरीबन साठ साल पहले ही हमारे युग के एक प्रमुख फ्रांसीसी दार्शनिक और भाषा वैज्ञानिक जॉक दरीदा ने भाषा के अवमूल्यन की बात को जोर देकर कहा था । जिस प्रकार लोगों के बीच
संचार के माध्यम के तौर पर प्रतीक चिन्हों का प्रभुत्व कायम हुआ है, उसमें भाषा पर आधारित ज्ञान के प्रति लोगों में जैसे एक गहरी अरुचि पैदा कर दी है । नित्शे सुकरात को याद करते हुए कहते थे —‘वह, जिसने कभी लिखा नहीं’ । दरीदा की सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक ‘Grammatology’ के एक अध्याय का शीर्षक है — ‘The End of the Book and the Beginning of Writing’ , किताब का अंत और लेखन का प्रारंभ ।
यह कैसा लेखन है, जिसमें किताब का अंत निहित होता है ? वह जो चिन्हों से, प्रतीकों से, तस्वीरों और चलचित्रों से भरा हुआ है । हम नहीं जानते कि दरीदा का यह कथन कितना सारवान था । चिन्हों से भरी संवाद और संचार की एक नई भाषा के विकास का अर्थ पुरानी अक्षरों, वाक्यों और उनके बीच पसरी भविष्य की अलीक दरारों और सत्य के मौन से समृद्ध, अर्थात दृष्ट से अदृष्ट तक की यात्रा की संभावनाओं से लबालब भाषाई उपकरण का अंत हो जायेगा, विश्वासयोग्य नहीं लगता । यद्यपि उपभोक्ता पाठक की बढ़ती हुई भूख चिन्हों से भरे संवाद माध्यमों का बाजार जरूर गर्म किये रहती है ।
बहरहाल, हम आज इस दृष्ट माध्यम में अपनी लगभग शुद्ध भाषाई सामग्री के साथ ही आपके सामने उपस्थित है क्योंकि हम आज के ऐसे ज्वलंत मुद्दे पर बात करना चाहते हैं जो हमारे तात्कालिक अस्तित्व के साथ ही बहुत निकट से हमारे सुदूर भविष्य की आशंकाओं को भी सामने रख दे रहा है ।
हम अभी कोरोना की वैश्विक महामारी के संदर्भ से अपने इस नए प्रयोग को शुरू कर रहे हैं ।
आज यह कहने की जरूरत नहीं है कि हम अभी सभ्यता के एक सबसे बड़े संकट के दौर में जी रहे हैं । इसके पहले भी मनुष्यों ने भयंकर महामारियों और महायुद्धों का सामना किया है, अस्तित्व के संकट का सवाल तब भी मनुष्य जाति के सामने आया था, पर इस कोरोना वायरस के संकट के बारे में कहा जा रहा है कि पहले के सभ्यता के किसी भी संकट के साथ इसकी तुलना नहीं की जा सकती है । आज ही संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनिउ गूतेरिस ने अपने बयान में कहा है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के वक्त का संकट भी इस संकट के सामने कुछ नहीं था ।
सचमुच, हम जब अपने दिमाग पर जोर डालते हैं तो यह समझने में कोई कष्ट नहीं होता है कि यह आज के एक नए, जिसे उत्तर-औपनिवेशिक, पूरी तरह से परस्पर निर्भर विश्व के युग की महामारी है ।
इस महामारी का अब तक का असर ही बताता है कि आज की दुनिया किस कदर आपस में गुँथ चुकी है । तमाम आबादियों के बीच अविभाज्य संपर्क तैयार हो चुके हैं । राष्ट्रीय राज्यों की सीमाएँ वास्तव में टूट चुकी हैं। दुनिया का कोई कोना अब पहले के जमाने की तरह अलग-थलग, कटा हुआ नहीं रह गया है ।
महामारियों ने मनुष्यों के बीच आपसी व्यवहार और सभ्यता के इतिहास पर पहले भी बड़ा असर डाला है । लेकिन कोरोना के असर की गहराई और व्यापकता से पहले की किसी भी महामारी से इसीलिये तुलना नहीं की जा सकती है, क्योंकि आज की दुनिया एक बदली हुई दुनिया है । परस्पर निर्भरशीलता इस दुनिया की एक ठोस सचाई है । इसीलिये कोरोना के आर्थिक-सामाजिक प्रभावों का पूर्व के अनुभवों के आधार पर अभी कोई भी पूरा अनुमान नहीं लगा सकता है ।
सबसे पहले चीन में इस वायरस के सामने आने के लगभग दो महीने बाद 2 मार्च को जिस दिन डब्बूएचओ ने यह घोषणा की थी कि कोरोना वायरस को रोकने की संभावनाएँ कम होती जा रही है । मक्का में विदेशी हज यात्रियों के प्रवेश को रोक दिया गया था । वेनिस में सालाना कार्निवल का कार्यक्रम स्थगित हो गया और ईरान में जुम्मे की नमाज़ के लिये मस्जिदों में इकट्ठा होना रोक दिया गया है । ब्रिटेन में सरकार ने अपने हाथ में कुछ आपातकालीन अधिकार लेने की पेशकश की ताकि नागरिकों के आने-जाने को नियंत्रित कर सके । तभी यह साफ होने लगा था कि अब बहुत जल्द ही नागरिक समाज के लिए सारी दुनिया में एक बिल्कुल नई संहिता सामने आएगी । लोग भीड़ और मेलों से बचे ; ग़ैर-ज़रूरी यात्राएँ न करे; एक प्रकार की आत्म-अलगाव की स्थिति को अपनाएँ — यह तो तत्काल शुऱू हो जाएगा । और तभी यह भी साफ हो गया था कि दुनिया की जो भी सरकार लोगों में खुद ऐसी एक नई संहित के प्रति स्वीकार्यता की चेतना पैदा नहीं कर पाएगी, वह इस महामारी से लड़ने में विफल रहेगी । जनतंत्र के इस काल की सरकारों के सामने यह एक सबसे बड़ी चुनौती होगी । नागरिक के अधिकारों और राज्य के अधिकारों के बीच सही संतुलन कायम करने की एक नई चुनौती पूरी दुनिया के सामने खड़ी होगी । अब तक के विश्व वाणिज्य संबंध उलट-पुलट जाएंगे । शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की बाजार-केंद्रित नीतियों की उपयोगिता गहरी जांच का विषय बन जाएगी । यहां तक कि इससे स्कूलों-कालेजों और अस्पतालों के वर्तमान स्वरूप पर भी तत्काल गहरा असर पड़ सकता है ।
मानव अस्तित्व पर यह संकट सिर्फ हमारे भौतिक जीवन के स्वरूपों को ही प्रभावित नहीं करेगा, यह अपने साथ एक बिल्कुल नई वैश्विक नैतिकता की चुनौती भी पेश करेगा ।
यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध के काल में जब मनुष्यता के अस्तित्व पर ख़तरा महसूस किया जाने लगा था, तब बौद्धिक जगत में प्लेग और हैज़ा जैसी महामारियों से जूझते हुए इंसान के अस्तित्वीय संकट के वक़्त को याद किया गया था । क़ामू और काफ़्का का आज अमर माना जाने वाला लेखन उसी भय और उससे जूझने की व्यक्तिगत और सामूहिक अनुभूतियों की उपज था ।
नई मानवता के अस्तित्ववादी दर्शन का जन्म भी उसी पृष्ठभूमि में हुआ था जिसमें अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये जूझते मनुष्य में श्रेष्ठतम नैतिक मूल्यों के उदय को देखा गया था । साफ़ कहा गया था कि मनुष्य की प्राणीसत्ता अपने अस्तित्व की रक्षा के क्रम में ही नए मानव मूल्यों का सृजन करने के लिए प्रेरित होती है । व्यक्ति के आत्मबल को ही समाज और पूरी मानवता के आत्मबल के रूप में देखा गया था।
तब उस समय के मार्क्सवादियों ने नये मनुष्य के निर्माण में उसकी अन्त: प्रेरणा के तत्व को प्रमुखता देने के कारण इस दर्शन की आलोचना की थी । इसे सामाजिक अन्तर्विरोधों पर आधारित परिवर्तन के सत्य का परिपंथी माना था। और, इसी आधार पर इसे वर्ग-संघर्ष पर टिके समाजवाद के लिये संघर्षों का विरोधी बताते हुए मानव-विरोधी तक कहा गया । जनवादी लेखक संघ जैसे संगठन के घोषणापत्र में भी कोई इस प्रकार के सूत्रीकरण को देख सकता है ।
लेकिन सार्त्र सहित तमाम आधुनिक अस्तित्ववादियों ने अपने जीवन और राजनीतिक विचारों से भी बार-बार यह साबित किया कि हर प्रकार के अन्याय के खिलाफ संघर्ष की अग्रिम पंक्ति में शामिल होने से उन्होंने कभी परहेज़ नहीं किया । वियतनाम युद्ध से लेकर अनेक मौक़ों पर वे वामपंथी क्रांतिकारियों के भी विश्वस्त मित्र साबित हुए थे ।
यह मानव-केंद्रित एक ऐसा सोच था जिसमें जीवन को बनाने में मनुष्यों के आत्म की भूमिका को प्रमुखता प्रदान की गई थी । इसके प्रणेता माने गये किर्केगार्द आदमी के अपने आत्म को ही उसके जीवन के लिये मुख्य रूप से ज़िम्मेदार मानते थे । हाइडेगर और नित्शे, जिनके विचारों में हिटलर के व्यक्तिवाद की प्रेरणा देखी जाती थी, वे भी प्राणीसत्ता की तात्त्विकता पर बल देने के नाते अस्तित्ववादी माने गये । सार्त्र इस धारा के सबसे मुखर सामाजिक प्रतिनिधि हुए ।
बहरहाल, आज कोरोना वायरस के इस काल में अस्तित्ववादी सोच का महत्व कुछ अजीब प्रकार से सामने आ रहा है । वायरस मानव शरीर की आंतरिक प्रक्रियाओं की उपज होता है ; मनुष्य के अपने शरीर के अंदर के एक प्राकृतिक उत्पादन-चक्र का परिणाम । शरीर के भौतिक अस्तित्व से उत्पन्न चुनौती । इसके कारण किसी बाहरी कीटाणु में नहीं होते हैं। इसकी संक्रामकता के बावजूद अक्सर इसका शरीर के अंदर ही स्वत: शमन हो जाता है ।
लेकिन जब किसी भी वजह से यह शरीर की प्रतिरोध-शक्ति को परास्त करने लगता है, तब यह जानलेवा बन जाता है । कोरोना एक ऐसा ही वायरस है जिसका संक्रमण कल्पनातीत गति से हो रहा है और यह अनेक लोगों के लिए प्राणघाती भी साबित हो रहा है।
कोरोना के चलते आज जो बात फिर एक बार बिल्कुल साफ़ तौर पर सामने आई है वह यह कि आदमी का यह भौतिक शरीर अजर-अमर नहीं है । बल्कि यह अपने स्वयं के कारणों से ही क्षणभंगुर है । इसीलिये सिर्फ़ इसके भौतिक अस्तित्व के भरोसे पूरी तरह से नहीं चला जा सकता है, बल्कि इसकी रक्षा के लिये ही जितनी इसकी अपनी प्रतिरोधक क्षमता को साधने की ज़रूरत है, उतनी ही एक भिन्न प्रकार के आत्म-बल की, मनुष्यों के बीच परस्पर सहयोग और समर्थन की भी ज़रूरत है । यह मनुष्य के प्रयत्नों के एक व्यापक सामूहिक आयोजन की माँग करता है, जैसा कि अब तक चीन, वियतनाम, क्यूबा ने दिखाया है । चीन के डाक्टरों के जत्थे इटली की मदद के लिये चल पड़े हैं, तो क्यूबा अपने तट पर इंग्लैंड के कोरोना पीड़ित जहाज़ के यात्रियों की सहायता कर रहा है । सारी दुनिया में कोरोना के परीक्षण की मुफ़्त व्यवस्था है । दुनिया के कोने-कोने में हर रोज़ ऐसे तमाम प्रेरक उदाहरण सामने आ रहे हैं । इसने एक भिन्न प्रकार से, मानव-समाज के आत्म बल को साधने की, अस्तित्ववादी दर्शन की सामाजिक भूमिका को सामने रखा है ।
आज हम एक बदली हुई, परस्पर-निर्भर, आपस में गुँथी हुई दुनिया में रह रहे हैं । इसमें सभी मनुष्यों के सामूहिक सहयोगमूलक प्रयत्नों के बिना, जब तक इसका प्रतिषेधक तैयार नहीं हो जाता, इस प्रकार के वायरस का मुक़ाबला संभव नहीं है । और क्रमश: यह भी साफ़ है कि इससे मुक़ाबले का कहीं भी और कोई भी प्रतिषेधक विकसित होने पर वह सारी दुनिया के लोगों को मुफ़्त में ही उपलब्ध कराया जाएगा ।
अमेरिका में जो ट्रंप वहाँ की जन-स्वास्थ्य व्यवस्था को ख़त्म करने पर उतारू था, कोरोना ने उसके अमानवीय मूर्खतापूर्ण सोच की सीमाओं को बेपर्द कर दिया है । डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बर्नी सैन्डर्स की यह माँग कि मुफ़्त सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं का सिर्फ़ राष्ट्रीय नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय ढाँचा तैयार किया जाना चाहिए, कोरोना की चुनौती के सम्मुख मानव समाज की एक सबसे ज़रूरी और प्रमुख माँग दिखाई पड़ती है ।
कोरोना की चुनौती ने सचमुच राष्ट्रीय राज्यों के सीमित सोच की व्यर्थता को उजागर कर दिया है । यह न धनी-गरीब में भेद करेगा, न हिंदू, मुसलमान, बौद्ध और ईसाई में । महाकाय अमेरिकी बहु-राष्ट्रीय निगम भी अमेरिका को इसके प्रकोप से बचाने में असमर्थ है । इसने मनुष्यों के अस्तित्व की रक्षा के लिये ही पूरे मानव समाज की एकजुट सामूहिक पहल की ज़रूरत को रेखांकित किया है । इसीलिये जो भी ताकतें स्वास्थ्य और शिक्षा की तरह के विषय की समस्याओं का निदान इनके व्यवसायीकरण में देखती है, वे मानव-विरोधी ताकते हैं । हमारे शास्त्रों तक में न्याय, शिक्षा और स्वास्थ्य को पाशुपत धर्म के तहत, मनुष्य का प्रकृतिप्रदत्त अधिकार माना गया है । आज कोरोना से पैदा हुआ अस्तित्व का यह संकट शुद्ध रूप से निजी या संकीर्ण राष्ट्रीय स्वार्थों के लिये भी आपसी खींचतान की व्यर्थता को ज़ाहिर करता है ।
आदमी का अपने भौतिक अस्तित्व की चुनौतियों से जूझना ही द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है और इसी संघर्ष की आत्मिक परिणतियों का एक नाम अस्तित्ववाद है । सच्चा द्वांद्वात्मक भौतिकवाद आदमी के आत्म को भी उसकी भौतिक सत्ता से अभिन्न रूप में जोड़ कर देखता है । जीवन का सत्य इन दोनों स्तरों पर ही, शरीर और भाषा दोनों स्तरों पर, अपने को प्रकट किया करता है ।
आज की अपनी वार्ता की इस पहली किस्त को फिलहाल यहीं तक सीमित रखने के बाद अपनी दूसरी किस्त में हम और भी ठोस रूप में इसी विषय के आर्थिक पहलुओं पर चर्चा करेंगे ।
अरुण माहेश्वरी लेखक विचारक हैं । समसामयिक मसलों पर वे लगातार लिखते रहे हैं । कलकत्ता में रहते हैं ।- संपादक