भविष्य में किसानों के विरोध से कैसे बच सकती है मोदी सरकार, सुधार से पहले परामर्श बेहतर उपाय

इला पटनायक – राधिका पांडेय 

परामर्श और भागीदारी की प्रक्रिया के ज़रिए बदलाव किए जाने पर लोग बगैर टकराव के नए विचारों के अभ्यस्त हो सकते हैं. बुरे प्रस्तावों को छोड़ा जा सकता है जबकि अच्छे को बेहतर बनाया जा सकता है.

ये विडंबना ही है कि किसानों के फायदे के लिए कृषि बाज़ार व्यवस्था में उदारीकरण लाने वाले सुधारों को लागू करने वाली सरकार को व्यापक विरोध का सामना करना पड़ रहा है.

ये सुधार किसानों के लिए अपनी उपज को अपनी मर्जी से किसी को भी सीधे बेचना संभव बनाते हैं. उन्हें नए कानूनों का स्वागत करना चाहिए था क्योंकि वे उन्हें बिचौलियों के चंगुल से मुक्त करते हैं और उन्हें उनकी उपज का बेहतर मूल्य प्रदान कर सकते हैं. लेकिन इसकी बजाय, किसानों को डर है कि सुधारों के बहाने सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर कृषि उपज की खरीदारी के अपने दायित्व से मुंह मोड़ने का मौका मिल सकता है.

सरकार एमएसपी पर खरीद से पीछे नहीं हटने का आश्वासन दे चुकी है लेकिन विरोध जारी है. नए कानूनों का विरोध इतना उग्र है कि किसान उनमें संशोधन की बजाय दुर्भाग्य से उसे निरस्त करने की मांग कर रहे हैं.

अन्य देशों में मौजूद परामर्श व्यवस्था

चूंकि नियम-कानूनों में बदलाव आधुनिकीकरण की राह पर चल रहे समाजों की एक आम विशेषता है, इसलिए कई देशों ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि जिसके ज़रिए असहमतियों को नए कानूनों के कार्यान्वयन से पहले ही दूर किया जा सके.

उदाहरण के लिए, यदि हम आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) देशों को देखें तो वहां नागरिकों, व्यवसायों, सिविल सोसायटी आदि समेत कानून से प्रभावित विभिन्न पक्षों और नियामक संगठनों के साथ परामर्श के लिए संस्थागत तंत्र बने हुए हैं.

ओईसीडी की नियामक नीति में हितधारकों के साथ विमर्श की सर्वोत्तम प्रक्रियाओं के मुताबिक हितधारकों के साथ विचार-विमर्श किए जाने से प्रस्तावित नियम-प्रावधानों की गुणवत्ता बढ़ती है क्योंकि इस प्रक्रिया में संभावित समस्याओं पर हितधारकों के विचारों, विशेषज्ञताओं और प्रमाणों के साथ-साथ संभावित समाधानों से संबंधित जानकारियां एकत्रित होती हैं. इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना होता है कि कानून शासित लोगों की जरूरतों के अनुरूप हो, शासन में भरोसे को बढ़ाए और अनुपालन सुनिश्चित कराए.

कई देशों में प्रचलित विधायी और नियामक प्रक्रिया की एक और अच्छी व्यवस्था है— नियामक प्रभाव आकलन (आरआईए). कानून, नीति, नियमन या नियम तैयार करते समय सरकारों को इसके संभावित प्रभावों पर विचार करने की ज़रूरत होती है. अक्सर सरकारी हस्तक्षेप की एक लागत होती है जो अपेक्षित लाभों पर भारी भी पड़ सकती है. नतीजतन, बुरी तरह से तैयार कानूनों के नकारात्मक परिणाम देखने को मिलते हैं जो समाज के छोटे, असंगठित और सीमांत तबकों को अधिक प्रभावित करते हैं.

आरआईए सार्वजनिक नीति के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए सर्वाधिक अनुकूल नियामक नीति चुनने में सरकारों की मदद करते हैं. ओईसीडी ने अपने सिद्धांतों के अनुरूप आरआईए प्रणालियों के कार्यान्वयन का एक ढांचा तैयार कर रखा है. प्रत्येक आरआईए में समस्या की एक स्पष्ट परिभाषा, कानूनी और नियामक हस्तक्षेप के ज़रिए अपेक्षित उद्देश्य, विधायी प्रस्ताव का विवरण, उपलब्ध विकल्पों का उल्लेख, फायदे और लागत का विश्लेषण, अपेक्षित समाधान का जिक्र तथा निगरानी और मूल्यांकन तंत्र की जानकारी शामिल होनी चाहिए.

परामर्थ प्रक्रिया का एक और उदाहरण है— ऑस्ट्रेलिया का उत्पादकता आयोग. यह एक सरकारी संगठन है जो सरकारों को निष्पक्ष परामर्श और जानकारी उपलब्ध कराता है तथा हितधारकों के साथ विचार-विनिमय में मदद करता है. आयोग सरकार और हितधारकों के बीच सेतु का काम करता है.

कुछ देश अर्थव्यवस्था और समाज की ज़रूरतों को बेहतर तरीके से पूरा करने के उद्देश्य से पुराने कानूनों को बदलने की प्रस्तावित प्रक्रिया पर नीति और निर्देशों से संबंधित दस्तावेज़ प्रकाशित करते हैं. इन नीतिगत दस्तावेज़ों को सरकार और हितधारकों के बीच संवाद के महत्वपूर्ण चैनल के रूप में देखा जाता है. प्रस्ताव को कानून का रूप देने से पहले इस तरह के दस्तावेज़ों की एक श्रृंखला जारी की जाती है और उन पर जनता की राय मांगी जाती है.

उदाहरण के लिए, 2011 में दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने एक दस्तावेज़ जारी किया था जिसमें वैश्विक वित्तीय संकट के मद्देनज़र वित्तीय प्रणाली को मजबूत करने के लिए वित्तीय नियामक तंत्र में बदलाव का प्रस्ताव था. उसके बाद 2013 में सरकार ने एक और दस्तावेज़ जारी किया जिसमें 2011 के प्रस्तावों के कार्यान्यवन के बारे और अधिक विस्तार से जानकारी दी गई थी. इसे वित्तीय नियामक संस्थानों के अधिकारियों की एक समिति द्वारा तैयार किया गया था.

इस प्रक्रिया की अगली कड़ी के रूप में दिसंबर 2013 में वित्तीय क्षेत्र विनियमन विधेयक का पहला मसौदा प्रकाशित किया गया जिस पर जनता की राय मांगी गई. लोगों की राय एकत्रित करने और हितधारकों के साथ विचार-विमर्श के कई दौर के बाद दिसंबर 2014 में विधेयक का दूसरा मसौदा सार्वजनिक विमर्श के लिए जारी किया गया. आखिरकार 2017 में आकर मसौदे को अधिनियम का रूप दिया गया.

भारत में सुधार प्रक्रिया

भारत में सुधार प्रक्रिया, खासकर वित्तीय सेक्टर में कमेटी आधारित रही है. हितधारकों से परामर्श के लिए विभिन्न विशेषज्ञ समूहों और समितियों का गठन किया जाता है. उदाहरण के लिए, लक्षित मुद्रास्फीति का तंत्र बनाने का प्रस्ताव मिस्त्री समिति, राजन समिति, वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग (एफएसएलआरसी) और उर्जित पटेल समिति द्वारा किया गया था. प्रस्तावित सुधारों पर चर्चा वर्षों तक चली. आमूल बदलावों वाले कई विचारों पर विस्तृत चर्चा की गई और समय के साथ, सवाल ये नहीं रह गया कि इन सुधारों की क्या ज़रूरत है बल्कि ये पूछा जाने लगा कि सरकार इन सुधारों को लागू करने में इतनी देर क्यों कर रही है.

जब परामर्श और भागीदारी की प्रक्रिया के माध्यम से परिवर्तन लाया जाता है तो उसमें संभावित खतरों और अनपेक्षित परिणामों पर चर्चा करने का समय होता है. यह लोगों को बिना टकराव के और भरोसा खोए बिना नए विचारों के अभ्यस्त होने का मौका भी देता है. बुरे प्रस्तावों को छोड़ा जा सकता है जबकि अच्छे को बेहतर बनाया जा सकता है.

गलतफहमियों और झूठी दलीलों से बचते हुए संस्थागत परामर्श प्रक्रिया सुधार विरोधी राजनीतिक लामबंदी को असरहीन बना सकती है और सुधारों को वापस लिए जाने के खतरे को टाल सकती है.

भारत भी इसी तरह सुधारों के लिए विशेषज्ञ समिति आधारित व्यवस्था, लागत-लाभ विश्लेषण, आरआईए, श्वेत पत्र और परामर्श प्रक्रिया जैसे उपायों को अपना सकता है.

(इला पटनायक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं और राधिका पांडेय एनआईपीएफपी में कंसल्टेंट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं) सौज- दप्रिंट

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *