हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेगे
इक बाग़ नहीं इक खेत नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे ( फैज़)
फैज़ साहब की नज़्म आजदिल्ली की सीमाओं पर साकार होती नज़र आ रही है। हाड़ कंपाती ठंड में लगभग डेढ़ माह से दिल्ली सीमा पर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे किसानों का मोर्चा धीरे धीरे सामाजिक संघर्ष में तब्दील होता जा रहा है। किसी भी लड़ाई का चरम बिंदु होता है जब वो पूरे समाज को स्वीकार्य होकर समाज की लड़ाई बन जाता है, समाज के हर वर्ग और एक एक व्यक्ति का संघर्ष बन जाता है।
आजादी की लडाई से इस चरम को समझा जा सकता है। 1857 के बाद अनेक स्तर पर आजादी के लिए अलग अलग क्षमताओं में संघर्ष किए जाते रहे मगर महात्मा गाधी ने स्वराज और आजादी के अहसास को धीरे धीरे आम जन तक पहुंचाया और इसमें महिलाओं और निचले तबके के उपेक्षित लोगों को जोड़ा। आजादी की लड़ाई में यह एक इंकलाबी मोड़ साबित हुआ और उनकी इस कोशिश व सोच ने आजादी की लड़ाई को पूरे समाज, देश की अस्मिता और एक एक व्यक्ति की अस्तित्व की लड़ाई में बदल डाला। व्यक्तिगत सत्याग्रह इसी एहसास के वृहत्तर संघर्ष में बदल जाने की परिणीति थी।
किसान आंदोलन भी धीरे धीरे पूरे समाज की सहानुभूति अर्जित करता जा रहा है। जहां एक ओर पंजाब के गांव गांव से बच्चों से लेकर बुज़ुर्ग तक इस आंदोलन से जुड गए हैं वहीं देश विदेश के लाखों युवा अपनी सामर्थ्य से आगे जाकर इन किसानों के साथ जुड़ते जा रहे हैं। अप्रवासी भारतीय लगातार विदेशों में बी किसान आंदोलन के समर्थन में सड़कों पर निकल रहे हैं और विदेशों में स्थित भारतीय दूतावासों के सामने प्रदर्शन कर रहे हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है । अब तक देखा गया कि विभिन्न आंदोलनों में आर्थिक सहायता तो की जाता रही मगर ऐसा पहली बार हो रहा है जब आर्थिक के साथ साथ सक्रिय रूप से भौतिक व नैतिक समर्थन में लोग घरों से निकल कर खुलकर सीधे तौर पर बाहर आ रहे हैं। यह उल्लेखनीय बदलाव और ट्रेंड स्पष्ट रूप से इस आंदोलन की महत्वपूर्ण उपलब्धि कही जा सकती है।
सबसे सुखद पहलू है इस आंदोलन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी। लोग इस बात से अक्सर आंख मूंद लेते हैं कि कृषि में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से कम नहीं है। इस आंदोलन में महिलाएं सिर्फ महिला होने के नाते नहीं बल्कि एक कृषक के रूप में भाग ले रही हैं और आंदोलन स्थल के विभिन्न मंचों से अपनी बात रख रही हैं। देश में महिला कृषकों की तादात बहुत ज्यादा है मगर अफसोसनाक बात ये है कि आज तक इस पर न कोई ठोस आंकड़े एकत्रित किए गए और न ही इन्हें स्वतंत्र मान्यता ही दी गई । कृषक महिलाओं के साथ ही कॉलेज की युवतियां भी बढ़ चढ़ कर आंदोलन में भागीदीरी कर रही हैं।
मीडिया की भूमिका इस आंदोलन को लेकर शुरुवात से ही असहयोगात्मक ही नहीं बल्कि नकारात्मक ही रही है । लोकतंत्र में जनअभिव्यक्ति का ससक्त माध्यम माना जाने वाला मीडिया शासक और सरकार का पक्षधर हो जाए इससे बड़े दुख और शर्म की कोई बात नहीं हो सकती। मुख्यधारा का मीडिया आम जन की नज़रों में अपनी विश्वसनीयता और सम्मान खो चुका है। इसके जवाब में इस आंदोलन में मीडिया के एक नए रूप का उदय हुआ । आंदोलनकारियों ने बिकाऊ मीडिया और सरकारी प्रचार तंत्र के खिलाफ खुद अपना मीडिया आंदोलन स्थल से ही प्रारंभ कर एक नई परंपरा की शुरुवात की। इसके साथ ही इंटरनेट और सोशल मीडिया पर भी उन्होंने खुद का मीडिया शुरु कर दिया । यह एक क्रांतिकारी और अभिनव पहल कही जा सकती है। किसानों के साथ आम जन की भागीदारी का ही परिणाम है कि सोशल मीडिया पर ट्रोल आर्मी के खिलाफ आंदोलनकारियों के साथ साथ राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आम जनता ने भी करारा प्रतिवाद व प्रहार करना प्रारंभ किया जिसके परिणामस्वरूप किराए के पिट्ठूओं की बोलती बंद है।
सरकार का पूरा जोर तो शुरुवात से ही आंदोलन को राजनैतिक षड़यंत्र के रूप में स्थापित करने पर ही केन्द्रित रहा है। इस बात के लिए किसान संगठनों की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने अपने आंदोलन को किसी भी राजनैतिक दल के नेतृत्व के शरणागत होने से बचाए रखा है। यह भी गौरतलब है कि गैरराजनैतिक होने की वजह से ही दिन ब दिन जन सहानुभूति, जन भावना , और जन समर्थन किसानों के साथ बढ़ता जा रहा है और जमीनी स्तर पर जनभागीदारी और व्यापक जनसमर्थन मिल रहा है।
सबसे दुखद पहलू सरकार का असंवेदनशील रवैया है । अपनी ट्रोल आर्मी के माध्यम से सोशल मीडिया के जरिए आंदोलनकारियों को खलिस्तानी और आतंकी जैसे विश्लेषणों का घृणित उपयोग करने के साथ साथ मुख्यधारा के अधिकांश मीडिया को मैनेज कर पूरे आंदोलन को बदनाम करने की असफल कोशिशों से सरकार की छवि धूमिल ही हुई है। सूचना के मुताबिक अब तक 56 किसान अपनी जान गंवा चुके हैं मगर सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही । सरकार अपनी जिद पर अडी हुई है और किसानों की बात गंभीरता से सुनने की बजाय किसानों को खलिस्तानी, आतंकी से संबोधित कर अपनी ट्रोल आर्मी के जरिए आमजन में किसानों के प्रति नफरत फैलाने की कोशिशों पर ज्यादा मेहनत करती रही है।
सरकार के तमाम षड़यंत्रों व बिकाऊ मीडिया की चालबाजियों और ट्रोल आर्मी, इन सबसे जूझता लड़ता किसानों का यह आंदोलन एक बेहद सुनियोजित एवं संगठित रूप से लगातार मजबूत होता जा रहा है। यही इस आंदोलन का महत्वपूर्ण हासिल है । बहुत अरसे के बाद किसी आंदोलन में सामाजिक भागीदीरी हुई है सरकार इसीविए बैकफुट पर है । इसकी सफलता संभवतः आंदोलनो की नई दिशा तय करने में महत्वपूर्म कदम साबित होगी। आज मेहनतकश अपने खेत अपनी ज़मीन का हक मांग रहा है आज अगर सत्ताधारी नहीं सुने तो बहुत जल्द वो सारी दुनिया छीन लेगा।
आंदोलन को समझने के लिए दृष्टिकोण का सकारात्मक पहलू।