ईशा
सफ़दर हाशमी एक कम्युनिस्ट आर्टिस्ट, अभिनेता, कवि, गीतकार और सामाजिक कार्यकर्ता थे। उनका जन्म 12 अप्रैल 1954 को दिल्ली में हुआ था। उनके माता-पिता भी कम्युनिस्ट विचारधारा से तालुक्क रखते थे और एक प्रगतिशील वामपंथी माहौल में ही सफ़दर की परवरिश हुई। दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने के दौरान वह स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया (एसएफआई) के सांस्कृतिक विभाग के सदस्य बने। इसी दौरान वे इंडियन पीपल्स थियेटर एसोसियेशन (इप्टा) से भी जुड़े।
“पढ़ो, कि हर मेहनतकश को
उसका हक़ दिलवाना है
पढ़ो अगर इस देश को
अपने ढंग से चलवाना है”
ये है सफ़दर हाशमी की कविता ‘पढ़ना लिखना सीखो’ का एक छोटा सा अंश, जिसे राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के तहत दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया था। इस छोटी बाल कविता में भी कवि की क्रांतिकारी विचारधारा साफ़ झलकती है, जिसके लिए उन्हें आज तक याद किया जाता है। सच में, पढ़ना, लिखना हम सबका मौलिक अधिकार ही नहीं बल्कि नागरिक होने के नाते कर्तव्य भी है। यह चेतना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि लोग सरकार से सवाल पूछें। ऐसे लोग अपने अधिकारों के बारे में जागरूक होते हैं और आगे जाकर समाज में बदलाव लाते हैं। जिस बदलाव को लाने के लिए सफ़दर हाशमी ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया था।
इप्टा में अपने सहकर्मियों के साथ ही 1973 में उन्होंने ‘जन नाट्य मंच’ की स्थापना की। जन नाट्य मंच भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के साथ जुड़ा हुआ था और इस संस्था का मकसद था नाटक और संगीत के माध्यम से आम जनता से जुड़ने और वर्तमान सामाजिक मुद्दों के बारे में उन्हें जागरूक करने का। जन नाट्य मंच के ज़्यादातर नाटक नुक्कड़ नाटक थे ताकि उनका संदेश ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंच सके। इनमें से कुछ प्रमुख नाटक हैं ‘कुर्सी कुर्सी कुर्सी’, जो इंदिरा गांधी के शासनकाल में किए गए चुनावी अनाचार के बारे में है, ‘तीन करोड़’ बेरोज़गारी पर और ‘गांव से शहर तक’ किसानों की समस्याओं पर आधारित थे। थिएटर के अलावा सफ़दर हाशमी इमरजेंसी के दौरान कुछ साल अंग्रेज़ी साहित्य के प्रोफ़ेसर रहे थे, जब राजनीतिक नाटकों के प्रदर्शन पर पाबंदी लगा दी गई थी। वे प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया और द इकोनॉमिक टाइम्स में पत्रकार भी रहे थे। साल 1984 में अपनी नौकरी छोड़ वे पूरी तरह अपने नाटकों के माध्यम से सामाजिक संदेश का प्रचार करने में लग गए।
1 जनवरी 1989 के दिन ग़ाज़ियाबाद के पास झंडापुर गांव में सफ़दर हाशमी अपने मशहूर नाटक ‘हल्ला बोल’ का प्रदर्शन कर रहे थे। ये उनके एक पुराने नाटक ‘चक्का जाम’ का संस्करण था, जो दिल्ली और ग़ाज़ियाबाद में हुए मज़दूर हड़ताल पर आधारित था। भारतीय कांग्रेस पार्टी के कुछ पार्टी कार्यकर्ताओं ने सफ़दर हाशमी को बुरी तरह से पीटा जिससे उन्हें गंभीर चोट पहुंची और कुछ ही समय बाद उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली। उनकी मौत के दो दिन बाद उनकी पत्नी और सहकर्मी मलयश्री हाशमी वापस उसी जगह पर गईं और दोबारा ‘हल्ला बोल’ नाटक का प्रदर्शन किया। यह दृढ़ता और साहस का एक शानदार परिचय था। सफ़दर हाशमी की पूरी ज़िंदगी इसी दृढ़ता, साहस और बगावत की कहानी थी।
सफ़दर हाशमी की ज़िंदगी से हम यह सीखते हैं कि जो कला सिर्फ़ मनोरंजन के लिए बनी हो, उससे कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है वह कला है जिसके माध्यम से समाज में शिक्षा और जागरूकता फैले, जो सत्ताधारियों से सवाल पूछने और उनकी आलोचना करने में न कतराए, और बदलाव और सामाजिक क्रांति लाने में जिसकी अहम भूमिका रहे। कलाकारों की ज़िम्मेदारी है अपनी कला के ज़रिए दर्शकों को इस तरह प्रभावित करना कि वे अपने आसपास हो रही नाइंसाफियों को देख पाएं और उनके खिलाफ़ अपनी आवाज़ उठाएं। लोगों को जागरूक करने के लिए सिर्फ़ शिक्षा ही काफ़ी नहीं है, बल्कि इसमें संगीत, चित्रकला, सिनेमा, थियेटर भी एक बहुत ज़रूरी भूमिका निभा सकते हैं।
सिर्फ़ 34 साल की उम्र में सफ़दर हाशमी की हत्या उन ताकतों ने कर दी थी जिन पर अपनी कला के माध्यम से वे आए दिन सवाल उठाया करते थे। कलाकारों और बुद्धिजीवियों को निशाना बनाना, जनता को ज़रूरी मुद्दों पर सोचने को मजबूर करने के लिए उन्हें दण्डित करना सरकारों के लिए कोई नई बात नहीं है। चाहे वह किसी की भी सरकार क्यों न हो। आज भी कुछ ख़ास बदला नहीं है। अगर तब सरकार की आलोचना करने के लिए एक नाट्य कलाकार की दिनदहाड़े हत्या की जाती थी, आज भी लेखकों, फ़िल्मकारों, स्टैंड-अप कमीडियंस पर सरकार और सामाजिक या धार्मिक रूढ़िवाद पर व्यंग्य करने के लिए ‘राष्ट्रद्रोह’ या ‘धार्मिक भावनाएं आहत’ करने का इल्ज़ाम लगाया जाता है। उन्हें धमकियां दी जाती है, शारीरिक नुकसान पहुंचाया जाता है, या कठोर कानूनों के तहत जेल भेजा जाता है।
नए साल की शुरुआत का जश्न मनाने के साथ-साथ यह भी याद रखना बेहद ज़रूरी है कि 1 जनवरी के दिन एक बागी और साहसी कलाकार की खुलेआम हत्या की गई थी, जो किसान और मज़दूरों के अधिकारों के लिए हमेशा मुखर थे। जिन्होंने सरकार से सवाल पूछने से कभी संकोच नहीं किया। हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम उनके योगदान को याद रखें। फ़ासीवादी और तानाशाही ताकतों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते रहें और लोगों को उनके हक़ के बारे में जागरूक करते रहें। एक स्वस्थ और सुंदर भविष्य बनाने में मदद करें, जहां न्याय और सच्चाई को अहमियत दी जाती हो।
ईशा युवा लेखिका हैं, दिल्ली में रहती हैं। ये उनके निजि विचार हैं। सौज- एफआईआई