प्रताप भानु मेहता
सुप्रीम कोर्ट अब एक ऐसे बेढब दिखने वाले फंतासी पात्र की तरह दिखने लगा है, जो जैसा दिखता है वैसा होता नहीं है। इसका स्वरूप रहस्यमय तरीके से बदलता रहता है, मासूम चेहरा इसकी ज़हरीली फुफकार को ढँक देता है, और ज़रूरत के हिसाब से आकार बदलता रहता है। अदालत संवैधानिक क़ानूनों पर फ़ैसला नहीं सुनाता। वैधानिकता की जगह वह प्रशासनिक और राजनीतिक प्रबंधन के मामलों में चहलक़दमी करता है।
संसदीय प्रणाली का मज़ाक़ उड़ाते हुये वह अपने को लोकतंत्र के प्रहरी की तरह पेश करता है। संकट निराकरण की आड़ में एक्सपर्ट कमेटी का दिखावा करता है। वह स्वांग करता है कि मौजूदा संकट महज़ तकनीकी है। वह लोकतांत्रिक विरोध को ख़त्म करने के बहाने खोजता है। लेकिन वह विधिसम्मत अनुशासित विरोध को स्थापित नहीं करता।
निष्पक्षता की भाषा
यह सरकार को इसलिये कठघरे में खड़ा करता है कि वह विरोध प्रदर्शन को सुलझाने की कोशिश नहीं करता जबकि खुद समयबद्ध तरीक़े से संवैधानिक और विधिक मसलों पर फ़ैसला नहीं सुनाता। वह निष्पक्षता की भाषा बोलता है, पक्षपात से ऊपर होने का दावा करता है, पर लोकतंत्र में सामान्य राजनीतिक आचार व्यवहार को भंग करने की कोशिश करता है। कृषि क़ानूनों को सस्पेंड करने का फ़ैसला एक ग़लत मिसाल है। यह हक़ीक़त में कोई फ़ैसला नहीं है। इसमें से सनक की गंध आती है ।
कृषि क़ानून का मसला सामान्य नहीं है। यह बहुत उलझा हुआ है। आप किसी भी पक्ष में हों, लेकिन जिस तरह से अब सुप्रीम कोर्ट अपने अधिकार क्षेत्र को परिभाषित कर रहा है, उससे आप को चिंतित होना चाहिये। उसने कृषि क़ानूनों को सस्पेंड कर दिया है, विशेषज्ञों की कमेटी बना दी है। लेकिन यह साफ़ नहीं है कि क़ानून को सस्पेंड करने का आधार क्या है। पहली नज़र में अदालत का फ़ैसला सत्ता के विभक्तीकरण के सिद्धांत का उल्लंघन है। यह ये ग़लत संदेश भी देता है कि इस तरह का संकट न्यायिक और तकनीकी तरह से हल किया जा सकता है।
राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप
राजनीतिक विवाद के मामलों में बीचबचाव करना अदालत का काम नहीं है। इसका काम है असंवैधानिकता को तय करना। तीनों कृषि क़ानूनों को सस्पेंड करते समय यह बताना चाहिये कि क़ानून में क्या गड़बड़ी है। वह अगर, क़ानून के मूल तत्व, जैसे कि क्या इससे संघवाद को संभावित ख़तरा है या फिर शिकायत निवारण प्रक्रिया के संबंध में कोई दिक़्क़त है, का परीक्षण करता और तब सस्पेंड करता तो बेहतर होता। पर वह बस किसानों की शिकायतों को सुनने के लिये एक विशेषज्ञ कमेटी बना देता है और इस तरह वह राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप करता है।
कृषि मामलों की दिक़्क़तों को दूर करने के लिये सुधार की ज़रूरत है। सुधारों का लक्ष्य होना चाहिये कि किसानों की आय बढे, उनका कल्याण हो, दूसरी तरह की फ़सलों की ओर रुझान बढ़े, खेती और पर्यावरण अनुकूल हो, सब्सिडी ज़्यादा नुक़सानदायक न हो, खाद्य महंगाई कम हो, और हर शख़्स को उचित पोषण मिले। पंजाब जैसे राज्यों में इन लक्ष्यों की पूर्ति आसान नहीं है।
नई व्यवस्था बनाने के लिये किसानों का विश्वास जीतना ज़रूरी है। कृषि सुधारों के मसले पर सरकार की सोच ठीक है। लेकिन सुधार की इसकी प्राथमिकता सही नहीं है।
किसानों का विरोध प्रदर्शन
असली मुद्दों के समाधान की जगह “व्यापारियों के चयन” में उसकी दिलचस्पी अधिक है। जिस वजह से चारों तरफ़ अनिश्चितता का वातावरण बन गया है। किसानों की असली चिंता का समाधान खोजने की जगह सरकार किसानों का विश्वास खो रही है। किसानों का विरोध प्रदर्शन जायज़ है। वे बडे संयम से अपना विरोध प्रदर्शित कर रहे हैं जबकि सरकार की तरफ़ से लगातार उनको देश विरोधी बताने की कोशिश की जा रही है। फ़िलहाल मामला उलझ गया है। मामलों को सुलझाने की हर कोशिश का स्वागत होना चाहिये । लेकिन बीच बचाव की कोशिश सरकार और जनता के बीच होनी चाहिये। यह एक राजनीतिक प्रक्रिया है। और अगर कोई असंवैधानिकता नहीं हुई है तो संसद को हल खोजना चाहिये।
मेरे हिसाब से सुप्रीम कोर्ट ने जो किया है, वह ख़तरनाक है। वैधानिक पहलुओं की उचित सुनवाई किये बग़ैर कृषि क़ानूनों को सस्पेंड करना एक ग़लत मिसाल स्थापित करता है। न्यायिक प्रक्रिया की सारी हदें गडमड्ड हो गयी हैं।
यह स्पष्ट नहीं है कि अदालत में अलग अलग विधि वेत्ताओ की भूमिका क्या है, न्यायिक प्रार्थनायें क्या है, और अदालत कैसे उनका निराकरण करने की सोच रही है। फ़ैसला सुनाते समय अदालत ने किसानों का पक्ष पूरी तरह से नहीं सुना। यह एक बड़ी भारी विडंबना है क्योंकि अदालत की अपनी प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है और वो सरकार को उत्तरदायी बनाने में तुली है। यह जनहित याचिका पर सुनवाई नहीं है, यह पूरे मामले को स्टेरायड पर चढ़ाने जैसा है ।
ज़िम्मेदारी किसानों पर?
मेरा मानना है कि अदालत शायद जानबूझकर ऐसा नहीं कर रही है, लेकिन उसकी वजह से सामाजिक आंदोलनों को नुक़सान पहुँच रहा है। आपके अपने विचार हो सकते हैं कि सरकार सही है या किसान, लेकिन जब तक किसी मसले में असंवैधानिकता न हो, यह जनता और राजनीतिक प्रक्रिया को तय करना चाहिये कि कौन सही है। राजनीतिक आंदोलनों में लोगों के इकट्ठा होने के लिये सामूहिक कदमताल और टाइमिंग बहुत ज़रूरी होता है।
इस वक़्त अदालती फ़ैसले के आने से साफ़ लगता है कि वह तेज़ होते आंदोलन से सरकार को होने वाली किरकिरी से बचाना चाहती है। कमेटी बनाने से साफ़ है कि वह सारी ज़िम्मेदारी किसानों पर डालना चाहती है कि वो आंदोलन को रोके या फिर आंदोलन तर्कसंगत न लगे।
इसी से जुड़े एक और मामले में कि आंदोलन दिल्ली में कैसे आगे बढ़ें, अदालत ने राष्ट्रीय सुरक्षा मामले में अटार्नी जनरल की दलील कि आंदोलन में खालिस्तानी घुस आये हैं, को, बेहद गंभीरता से ले खुद को नियामक नियुक्त कर लिया है। यह तो आंदोलन को ग़लत साबित करना होगा। यह एक तरह से आंदोलन को बड़े पैमाने पर ग़ैरक़ानूनी बताना होगा ।
बीच बचाव के तरीक़े को नया आयाम
एक और संदर्भ में अदालत ने बीच बचाव के तरीक़े को नया आयाम दिया है। अगर कमेटी का काम बीच बचाव है तो अदालत ने बीच बचाव के पहले नियम का उल्लंघन किया है। मध्यस्थता करने वाले सभी को स्वीकार्य होने चाहिये। और सब की सलाह पर नियुक्त होने चाहिये। अगर कमेटी का उद्देश्य तथ्यों की पड़ताल है तो फिर अदालत में खुली सुनवाई हो जहाँ सारे पक्षकार मौजूद हो।
किसानों को अदालत के अभिभावकत्व की ज़रूरत नहीं है। ऐसा लगता है कि वह उसे छोटा दिखाने की कोशिश कर रही है, उसे खुद उसी से बचाने की कोशिश कर रही है, जबकि आज की तारीख़ में ज़रूरत इस बात की है कि जहाँ ज़रूरी है वहाँ क़ानून के मसले पर साफ़गोई हो, राजनीतिक प्रक्रिया और सिविल सोसायटी के ज़रिये उसकी माँगों को सुना जाये।
ज़्यादा चतुर बनने की कोशिश में अदालत ने बहुत विस्फोटक स्थिति पैदा कर दी है। इसने बिना सुनवाई किये क़ानूनों को सस्पेंड कर ग़लत मिसाल क़ायम की है। इसकी वजह से अदालत की मंशा पर किसानों के मन में संशय पैदा हो गया है। अदालत ने दरअसल सरकार की ही किरकिरी की है। ऐसा लगता है कि वो उसे ‘जेल से निकालना’ चाहती थी। आंदोलन के सम्मुख उसे बचाना चाहती थी। इस फ़ैसले से अदालत ने वह चीज़ गँवा दी है, जिसकी उसको सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी – भरोसा ।
(प्रताप भानु मेहता ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में छपे लेख का अनुवाद। )साभार – द इंडियन एक्सप्रेस / सत्यहिन्दी)