ओपी नैयर : जो तालियों, सीटी और घोड़े की टापों से संगीत निकालते थे

अंजलि मिश्रा

अक्खड़पन और स्वछंदता ओपी नैयर की पहचान थी और शायद इसी असर ने उनके संगीत को इतना लोकप्रिय बनाया यदि विद्रोह किसी के व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है तो उसका जिद्दी होना भी कोई असामान्य बात नहीं है. नैयर जिद्दी भी खूब थे. तभी तो लता मंगेशकर जैसी गायिका से कभी न गवाने की जिद पर आखिर तक डटे रहे.

आज से करीब एक सदी पहले भी पंजाब में लोहड़ी का उत्साह पूरे हफ्ते भर रहता था. लेकिन उस साल लाहौर के नैयर परिवार के लिए यह उत्साह और खुशी दो-गुनी थी और कई हफ्तों चलने वाली थी. लोहड़ी के तीन दिन बाद यानी 16 जनवरी, 1926 को उनके घर के एक बेटे ने जन्म लिया था. उसका नाम रखा गया ओम प्रकाश. जिसे हम ओपी नैयर के नाम से जानते हैं.

सिर्फ संगीत की वजह से ही नहीं ओपी नैयर को अपनी शख्सियत की वजह से भी बॉलीवुड के सबसे अलहदा संगीतकारों में शुमार किया जाता है. इस शख्सियत की पहली खासियत थी विद्रोही स्वभाव. कहते हैं कि उनके पिता परम अनुशासित व्यक्ति थे. बचपन में नैयर ने पिता जी से इतनी मार खाई कि विद्रोह तब से ही उनके स्वभाव का हिस्सा बन गया. ऐसा विद्रोह, ऐसी सख्ती जिसे उनके भीतर बह रहा संगीत का तरल बहाव भी नरम नहीं कर पाया और एक दिन किसी बात का विरोध करते हुए उन्होंने घर ही छोड़ दिया.

पढ़ाई-लिखाई की नहीं थी, संगीत में थोड़ा-बहुत मन रमता था सो ओपी नैयर ने लाहौर के ही एक गर्ल्स स्कूल में संगीत शिक्षक की नौकरी कर ली. मगर कुछ ही दिनों में उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी. वजह यह थी कि स्कूल की हेड मास्टरनी नैयर साहब के इश्क में पड़ गई थीं और स्कूल प्रबंधकों को यह गवारा न हुआ. वहां से निकलने के बाद आकाशवाणी में नौकरी कर ली. उस वक्त के लोकप्रिय गायक सीएच आत्मा के लिए गीत बनाया, जिसके बोल थे ‘प्रीतम आन मिलो’. ‘प्रीतम आन मिलो’ के साथ ओपी नैयर भी मकबूल हुए. मेहनताना मिला बारह रुपये. इन बारह रुपयों से शुरू हुआ सिलसिला बाद में लाख रुपये प्रति फिल्म तक भी पहुंचा. ओपी नैयर अपने जमाने के सबसे महंगे संगीतकार थे. उस दौर में वे लाहौर के ही बाशिंदे हुआ करते थे. जब विभाजन हुआ तो उस त्रासदी के दौर में भी जो कुछ सौगातें पाकिस्तान से हिन्दुस्तान के हिस्से आईं उनमें से एक ओपी नैयर भी थे.

लाहौर से पंजाब पहुंचने वाले ओपी नैयर अब शराब और शबाब के शौकीन हो गए थे. यहां वे नौकरियां करते-छोड़ते रहे, माशूकाओं का दिल तोड़ते रहे. एक दिन मुंबई जाने का खयाल आया तो चल पड़े. संगीतकार बनने के लिए नहीं, हीरो बनने के लिए. हीरो बनने के लिए उनके पास सिर्फ शक्ल थी. सिर्फ शक्ल की बदौलत हीरोगिरी नहीं चलेगी, यह समझने की अक्ल भी उन्हें जल्दी ही आ गई.

लाहौर से पंजाब पहुंचने वाले ओपी नैयर अब शराब और शबाब के शौकीन हो गए थे. यहां वे नौकरियां करते-छोड़ते रहे, माशूकाओं का दिल तोड़ते रहे

हीरो छोड़ कुछ दिन गायक बनने की भी कोशिश की. एक दिन घूमते-फिरते उनकी कृष्ण केवल से मुलाकात हो गई. कृष्ण केवल उन दिनों ‘कनीज (1949)’ बनाने की सोच रहे थे और उन्हें इस फिल्म के लिए कंपोजर की जरूरत थी. कनीज में नैयर साहब ने बैकग्राउंड स्कोर दिया.

इस फिल्म के बाद नैयर साहब ने कुछ संगीतकारों के साथ इक्का-दुक्का गीत बनाए. 1952 में आई फिल्मों ‘आसमान’ और ‘छम छमा छम’ में उन्होंने पहली बार स्वतंत्र रूप से संगीत दिया था. बतौर संगीतकार ‘आसमान’ नैयर की पहली फिल्म कही जाती है. हालांकि फिल्में कुछ कमाल नहीं कर पाईं लेकिन इनके जरिए फिल्म जगत में नैयर की जान-पहचान का दायरा जरूर बड़ा हो गया.

ओप नैयर की अच्छी परिचितों में गीता दत्त भी शामिल थीं. उन्होंने इस बुरे वक्त में उन्हें गुरुदत्त से मिलने की सलाह दी. इस बात का अंदाजा शायद नैयर को भी नहीं होगा कि यह मुलाकात उनको क्या से क्या बनाने जा रही है. गुरुदत्त ने उन्हें ‘आर-पार (1954)’ का संगीत रचने की जिम्मेदारी दी. उनकी अगली फिल्म ‘मिस्टर एंड मिसेस 55 (1955)’ का संगीत भी ओपी नैयर ने दिया था. इन दोनों फिल्मों की कामयाबी ने उन्हें हिंदी फिल्म जगत में स्थापित कर दिया. इसके बाद जो हुआ वो कहानी सब जानते हैं मगर फिर भी रस्मी तौर पर कुछ फिल्मों का नाम लेना जरूरी है, जैसे ‘तुमसा नहीं देखा,’ ‘बाप रे बाप,’ ‘हावड़ा ब्रिज,’ ‘सीआईडी,’ ‘फागुन’ वगैरह-वगैरह. ‘सीआईडी’ में ओपी नैयर ने आशा भोंसले को पहली बार मौका दिया और इस जोड़ी ने बाद में कई हिट गाने दिए.

नैयर की अच्छी परिचितों में गीता दत्त भी शामिल थीं. उन्होंने इस बुरे वक्त में उन्हें गुरुदत्त से मिलने की सलाह दी. इस बात का अंदाजा शायद नैयर को भी नहीं होगा कि यह मुलाकात उनको क्या से क्या बनाने जा रही है

‘संगीतकार’ ओपी नैयर ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा नहीं ली थी. उस दौर में लोगों को यकीन दिलाना मुश्किल था कि एक इंसान जिसने न स्कूल की पढ़ाई ढंग से की, न संगीत की वह ‘तू है मेरा प्रेम देवता (कल्पना)’ जैसे गीत को पूरी समझ के साथ कैसे कंपोज कर सकता है. इस गाने के बोल शुद्ध हिंदी में है और धुन शास्त्रीय संगीत पर है.

कुछ इसे अजीब बात मानेंगे तो कुछ करिश्मा लेकिन संगीत के अपने सीमित ज्ञान के सहारे ही ओपी नैयर ने अपनी तिलिस्मी धुनें रची हैं. कुछ गाने जैसे ‘मांग के साथ तुम्हारा’ या ‘जरा हौले हौले चलो मोरे साजना’ सुनते हुए जो टक-टुक टक-टुक सी घोड़े की टापों की आवाज सुनाई देती है, वह ओपी नैयर की पहचान है. ऐसे ही नया दौर के मशहूर गाने ‘उड़े जब जब जुल्फें तेरी’ में तालियों का इस्तेमाल गाने को शानदार शुरुआत देता है. मुखड़े और अंतरे के बीच सितार का सोलो प्रयोग सिर्फ नैयर के संगीत में मिलेगा. वे तालियां, सीटी और घोड़ों की टापों से संगीत निकालते थे.

ओपी नैयर से जुड़ी एक मजेदार बात है कि संगीत के साथ उनकी ‘प्रयोगधर्मिता’ भले ही श्रोताओं को लुभाती हो लेकिन 1950 में आकाशवाणी ने उनके गानों पर प्रतिबंध लगा दिया था. तर्क यह था कि इन गानों को संगीत की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. नैयर की प्रयोगधर्मिता सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं थी. वे कई मामलों में ट्रेंड सेटर कहे जा सकते हैं. जैसे कॉमेडियन के लिए पूरे तीन मिनट का गाना बनाना, अभिनेत्रियों से संगीत के हिसाब से अदाएं करवाना वगैरह.

कुछ गाने जैसे ‘मांग के साथ तुम्हारा’ या ‘जरा हौले हौले चलो मोरे साजना’ सुनते हुए जो टक-टुक टक-टुक सी घोड़े की टापों की आवाज सुनाई देती है, वह ओपी नैयर की पहचान है

यदि विद्रोह किसी के व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है तो उसका जिद्दी होना भी कोई असामान्य बात नहीं है. नैयर जिद्दी भी खूब थे. तभी तो लता मंगेशकर जैसी गायिका से कभी न गवाने की जिद पर आखिर तक डटे रहे. लता और ओपी नैयर के बीच इस बेरुखी के पीछे भी एक किस्सा है. हुआ यूं कि ओपी नैयर की पहली फिल्म ‘आसमान’ के आठ गानों में से एक गाना सहनायिका पर फिल्माया जाना था. नैयर यह गाना लता मंगेशकर से गवाना चाहते थे. लता मंगेशकर उस समय की सबसे सफल गायिका थीं. इस बड़ी गायिका ने सहनायिका के लिए गाना अपना अपमान समझा और मना कर दिया. बस यही बात नैयर साहब को चुभ गई और उन्होंने लता जी से तौबा कर ली. आशा भोंसले और गीता दत्त से ही अपने सारे (करीब 150) गाने गवाए. हालांकि अपने जिद्दी और अक्खड़ मिजाज के चलते में नैयर साहब की गीता दत्त, आशा भोसले और मोहम्मद रफी से भी अनबन की खबरें आती रहीं. आशा भोसले से अनबन का नतीजा था कि 1974 में दोनों ने मिलकर साथ काम न करने का फैसला किया.

ओपी नैयर ने हमेशा मझोले फिल्मकारों के साथ काम किया. फिर भी वे अपने दौर के सबसे महंगे संगीतकार रहे. बीआर चोपड़ा की ‘नया दौर’ इकलौती ऐसी फिल्म है जिसमें उन्होंने किसी बड़े बैनर तले काम किया. 1949 से लेकर 1974 के बीच सिर्फ 1961 ही एक ऐसा साल था जब उनकी कोई फिल्म नहीं आई. हालांकि 1974 में आशा भोंसले का साथ छूटने बाद नैयर का करियर ढलान पर आ गया. उन्होंने दिलराज कौर, वाणी जयराम, कविता कृष्णमूर्ति सबसे गवाया, पर गीतों में ‘वो’ बात नहीं आ पाई. नब्बे के दशक में भी दो-तीन फिल्में आईं, मगर उनका भी हश्र वही रहा.

शादी की पहली ही रात पत्नी सरोज मोहिनी को ये बता दिया कि उनके प्रेम प्रसंग के किस्से सुनकर अगर वो बाद में कलह करने वाली हैं तो तुरंत घर छोड़कर जा सकती हैं

नैयर का स्वभाव, उनकी साफगोई उनके पारिवारिक जीवन पर भी भारी पड़ा. जिसने पिता का अनुशासन नहीं माना वो जिंदगी का क्या मानता. शादी की पहली ही रात पत्नी सरोज मोहिनी को ये बता दिया कि उनके प्रेम प्रसंग के किस्से सुनकर अगर वे बाद में कलह करने वाली हैं तो तुरंत घर छोड़कर जा सकती हैं. नैयर ने साफ-साफ कहा कि जो किस्से उन तक पहुंचेंगे उनमें से ज्यादातर सच होंगे. उस समय तो सरोज मोहिनी ने बड़प्पन दिखाते हुए हामी भर दी. लेकिन आम जीवन में ऐसा होता नहीं है सो एक दिन बच्चों सहित उन्हें छोड़कर चली गईं.

परिवार छोड़ ही गया था, अब गिनती के कुछ दोस्तों से ही ताल्लुक बचे थे. ओपी नैयर को संगीत से इतर ज्योतिष और होम्योपैथी की भी जानकारी थी. कहते हैं कि रिटायरमेंट के बाद उनके प्रशंसक मरीज बनकर उनसे मिलने आते थे.

जो विद्रोही स्वभाव, जिद और अक्खड़पन नैयर को बचपन में ही मिल गया था वह आखिरी वक्त तक उनके साथ रहा. 28 जनवरी 2007 को उनकी मृत्यु हुई थी लेकिन जाते-जाते भी उन्होंने अपनी जिद नहीं छोड़ी. अंत्येष्टि में परिवार का कोई व्यक्ति शामिल न हो, यही आखिरी जिद थी. जो उनके परिवार वालों ने ससम्मान पूरी की. संगीत हो या नैयर खुद, उनकी नकल नामुमकिन है.

सौज- सत्याग्रहः लिंक नवीचे दी गई है-

https://satyagrah.scroll.in/article/26244/op-nayyar-work-profile

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