कृषि क़ानूनों को ख़ारिज करने का मतलब यह भी होगा कि भाजपा सरकार को कुछ महत्वपूर्ण नव-उदारवादी क़दमों को वापस लेना होगा।नरेंद्र मोदी सरकार ने पहले तो छोटे उत्पादन क्षेत्र की लाभप्रदता पर खुला हमला बोला जिसमें पहले नोटबंदी की गई, फिर इस क्षेत्र पर असमान जीएसटी लगा दिया, और अब अंत में इसके माध्यम से, और अब तीन कृषि-कानून के मामध्यम से बड़ा हमला बोल दिया है।
पिछले कुछ वर्षों में भारत की विशेषता बने कॉर्पोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ के प्रभुत्व को समाप्त करने की दिशा में किसानों का आंदोलन एक बड़ा कदम है। किसान, काश्तकार, कारीगर और मछुआरों जैसे अन्य छोटे उत्पादक, नवउदारवाद नीतियों के सबसे ज्यादा शिकार रहे हैं, जिन नीतियों ने उनके डोमेन का अतिक्रमण कर बड़ी पूंजी की सहज प्रवृत्ति के खिलाफ सभी जंजीरों को तोड़ दिया है। यद्यपि नवउदारवाद के तहत श्रमिकों के खिलाफ हमलों के बारे में सभी अच्छी तरह से जानते है, लेकिन छोटे उत्पादन क्षेत्र पर इसके प्रणालीगत हमले को कम समझा गया है।
पहले समय के परिचालित निज़ाम ने छोटे उत्पादन के क्षेत्र में पूंजीवादी सेक्टर के अतिक्रमण को रोकने के लिए विभिन्न प्रकार के अवरोधों को लगा दिया था: जिसमें हथकरघा क्षेत्र की कुछ वस्तुओं को आरक्षित करने की नीति के द्वारा; सरकार द्वारा किसानों और “बाहरी” दुनिया के बीच न्यूनतम समर्थन और खरीद मूल्य प्रदान करके; विभिन्न प्रकार की सब्सिडी के प्रावधान द्वारा; छोटे उत्पादन क्षेत्र को बचाया गया था।
गौर करने की बात है कि यह सब भी छोटे उत्पादकों के क्षेत्र में भेदभाव को न रोक सका; उपरोक्त निज़ाम भी इस क्षेत्र के भीतर पूंजीवादी प्रवृत्ति को उभरने से नहीं रोक पाया। लेकिन इसने बाहरी पूंजीवादी क्षेत्र को छोटे उत्पादन में घुसने या उसका अतिक्रमण करने पर एक बाधा का काम जरूर किया था।
यहां तक कि जब नव-उदारवादी नीतियों की शुरुआत की गई थी, तब भी कांग्रेस सरकार पूरी तरह से सुरक्षात्मक छत्रछाया को तोड़ नहीं पाई थी। सब्सिडी को कम कर दिया गया था और खरीद की कीमतें नहीं बढ़ाई गई थीं, जैसा कि किया जाना चाहिए था। और नकदी फसलों के मामले में, किसानों को समर्थन देने के लिए बाजार में हस्तक्षेप को सरकार ने पूरी तरह से छोड़ दिया गया था।
इन उपायों ने कृषि की लाभप्रदता को निचोड़ कर रख दिया और किसान को असंभव कर्ज़ के बोझ तले दबा दिया, यह वक़्त 1930 के दशक की याद दिलाता है जब किसान महामंदी की चपेट में आए थे। इस तरह के भयंकर कर्ज के परिणामस्वरूप लाखों किसान नव-उदारवादी नीतियों की शुरुआत से ही आत्महत्या कर चुके हैं।
लेकिन किसान को जिस तरह निचोड़ा गया था वह कमोबेश पुरानी व्यवस्था की तरह था, हालांकि सामान्य तौर पर वह नवउदारवाद की सामान्य प्रवृत्ति के अनुरूप था; लेकिन इसने कृषि (और अन्य छोटे उत्पादन क्षेत्रों) को पूरी तरह से निरंकुश बाजार की दया पर ही नहीं छोड़ा, बल्कि पूरी तरह से बड़ी पूंजी के अतिक्रमण के लिए भी खोल दिया।
इस संकट की शुरुआत के साथ, हालांकि, नव-उदारवाद ने हिंदुत्व का नया सहारा बनने के लिए एक गठबंधन की पेशकश की, क्योंकि पुराना जुमला जिसके मुताबिक “विकास-आखिरकार-सबको लाभ-देगा” अब वह विश्वसनीय नहीं रह गया था क्योंकि एक ऐसी अवधि देखी गई जिसमें विकास अपने आप में सूख गया है। इस गठबंधन के तहत, छोटे उत्पादन पर हमला आक्रामक रूप से तेज़ हुआ है।
नरेंद्र मोदी सरकार ने पहले तो छोटे उत्पादन क्षेत्र की लाभप्रदता पर खुला हमला बोला जिसमें पहले नोटबंदी की गई, फिर इस क्षेत्र पर असमान जीएसटी लगा दिया, और अब अंत में इसके माध्यम से, और अब तीन कृषि-कानून के मामध्यम से बड़ा हमला बोल दिया है।
ये कृषि कानून न्यूनतम समर्थन और खरीद मूल्य, और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की पुरानी व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त कर देंगे। ये कानून देश की खाद्य आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त खाद्यान्नों के उत्पादन में कमी पैदा करेंगे (भले ही अब तक प्राप्त आत्मनिर्भरता उपभोग के निम्न स्तर पर रही हो); और बड़ी पूंजी के अतिक्रमण के लिए कृषि क्षेत्र को खोल देंगे।
ये कानून प्रतिशोध की भावना से नव-उदारवादी एजेंडा को आगे बढ़ाएंगे; और इसमें भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अमेरिकी प्रशासन से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तक मोदी के इन तीन कृषि कानूनों के उद्देश्यों का पूरा समर्थन करते है, हालांकि यह बात अलग है कि वे भी मोदी सरकार द्वारा किसानों के आंदोलन को संभालने की आलोचना कर रहे है।
किसान और अन्य छोटे उत्पादक इस प्रकार शुरू से ही नवउदारवाद के निशाने पर रहे हैं, जैसे कि शहरी मजदूर, वह मजदूर जिस पर लगातार हमले होते हैं और जिन हमलों को बेहतर ढंग से जाना और समझा जाता है, उन मजदूरों ने आंदोलनों और प्रतिरोध के काम को आगे बढ़ाया है।
शुरुआत में, उत्पीड़ित लोगों के अन्य वर्गों की तरह, किसानों ने धैर्य से और चुपचाप रहकर इस हमले का सामना किया। लाखों किसानों ने आत्महत्या कर ली, लेकिन उन्होने नव-उदारवादी हमले के खिलाफ कोई महत्वपूर्ण लड़ाई नहीं लड़ी। हालाँकि, तीनों कानून, सिद्ध कर चुके हैं कि अब पानी सर से ऊपर जा चुका है।
किसानों का आन्दोलन, इसकी व्यापकता और दृढ़ संकल्प के अलावा, कम से कम इसकी तीन उल्लेखनीय विशेषताएं हैं। पहला इस आंदोलन का अखिल भारतीय चरित्र है। पहले के कई किसान आंदोलन कुछ खास क्षेत्रों, या खास राज्यों तक ही सीमित रहे हैं और उन्होंने कुछ खास सरकारी कदमों का विरोध किया था, जैसे जल शुल्क या बिजली दरों में बढ़ोतरी जैसे मुद्दे। लेकिन यह आंदोलन हालांकि भौगोलिक रूप से मुख्यत उत्तर भारत में स्थित है, इसकी मांग ऐसी है कि इसे पूरे देश में सहानुभूतिपूर्ण और समर्थन मिल रहा है, जैसा कि महाराष्ट्र, ओडिशा, तमिलनाडु, तेलंगाना और अन्य जगहों पर हुए किसान मार्च से स्पष्ट है।
दूसरी विशेषता वह विशाल बदलाव है जो किसानों के स्वयं के दृष्टिकोण में नज़र आता है। यह किसी भी महत्वपूर्ण जन आंदोलन की एक बानगी होती है जो इसमें शामिल होने वाले लोगों के दृष्टिकोण में क्रांति की लहर पैदा करती है। यह तथ्य कि विभिन्न धर्मों और विभिन्न जातियों के किसान और खेतिहर मजदूर, जो कुछ महीने पहले तक एक-दूसरे के विरोधी थे, अब तीन कृषि-कानूनों के खिलाफ एक साथ संघर्ष कर रहे हैं, भारतीय राजनीति में एक समुद्री बदलाव का प्रतिनिधित्व करती हैं।
यह याद किया जाना चाहिए कि 2014 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जीत उत्तर प्रदेश की बड़ी संख्या में जीती गई सीटों की वजह से संभव हो पाई थी, जहां हाल ही में मुजफ्फरनगर में हुए दंगों ने एक तेज सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया था। हिंदू जाटों और मुसलमानों के बीच विरोधाभास तब से काफी तेज हो गया था। लेकिन, इन विरोधाभासों को अब पृष्ठभूमि में धकेला जा रहा है, क्योंकि संघर्ष उन्हें एक साथ ले आया है और उनके बीच एक नई एकता कायम हुई है।
भाजपा सरकार द्वारा हर तरह के बेरहम क़ानूनों जैसे कि गैरकानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम या यूएपीए जैसे कठोर कानूनों के तहत गिरफ्तार किए लोगों के प्रति किसानों ने सहानुभूति दिखाई है जो अपने में एक बड़ा बदलाव है। उदाहरण के लिए, भीमा-कोरेगांव के गिरफ़्तारियों की दुर्दशा पर पर बहुत अधिक सहानुभूति जताना जो कुछ सप्ताह पहले प्रदर्शनकारियों के बीच ज्यादा चिंता का विषय नहीं था, वह अब देखने को मिलती है।
तथ्य यह कि आंदोलन लोगों को एकजुट करता है इस बात का सबूत इससे मिलता है कि किसानों को गांवों से और पड़ोस की औद्योगिक इकाइयों में श्रमिकों से बड़े पैमाने पर मदद मिल रही है।
इस आंदोलन की तीसरी महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह संघर्ष नव-उदारवाद के खिलाफ लड़ा जा रहा है। बेशक, संघर्ष की मांग तीन कृषि-कानूनों को खारिज करने की है, लेकिन ऊपर बताए गए कानून, नव-उदारवादी एजेंडे को भी आगे बढ़ाते हैं। वे साम्राज्यवादी मांगों के अनुरूप हैं; वे सीधे देश के कुछ कॉर्पोरेट घरानों को लाभान्वित करते हैं जो अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं; और वे छोटे उत्पादन क्षेत्र को कमजोर करने में व्यापक योगदान देते हैं। ये सब नवउदारवाद का विचार हैं।
तीन कृषि-कानूनों को खारिज करने से कम से कम इस क्षेत्र में नव-उदारवाद की भूमिका खत्म हो जाएगी, यदपि नव-उदारवाद को प्रस्तुत काटना एक बात है, लेकिन एक खास और महत्वपूर्ण क्षेत्र में नवउदारवाद को वापस लेना बड़ी बात है।
इस मामले में मोदी की असहिष्णुता और उनके फुले हुए अहंकार को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, उनकी सबसे अधिक इच्छा इस मिथक को बनाए रखने की है कि वे सबसे अच्छी तरह से जानते हैं कि किसानों के लिए क्या अच्छा है। इस आरोप पर कोई संदेह नहीं है, लेकिन इस मिथक के बने रहने का सिर्फ मोदी के कुछ मनोवैज्ञानिक लक्षणों से लेना-देना नहीं है; बल्कि यह नव-उदारवादी एजेंडा को आगे बढ़ाने का एक उपकरण है।
यदि मोदी को सबसे बेहतर पता है कि सभी के लिए क्या अच्छा है, और अगर मोदी को लगता है कि नव-उदारवादी एजेंडा सभी के लिए फायदेमंद है, इसलिए ऐसा होना चाहिए। इस प्रकार अपने अहंकार को गुदगुदाने वाले मोदी की सर्वज्ञता का मिथक भी नवउदारवाद के मामले में एक कार्यात्मक भूमिका निभाता है, जिसे वह बनाए रखना चाहते हैं।
किसनों ने जो किया है वह इस मिथक को विराम देने का काम किया है। और कृषि-कानूनों को खारिज करना केवल इस मिथक को पंचर करने की पुष्टि करेगा। महत्वपूर्ण बात ये है की नव-उदारवादी कदमों को वापस लेना होगा, जिसे अगर एक बार वापस ले लिया गया तो उसे फिर से लागू नहीं किया जा सकेगा।
यही कारण है कि सरकार केवल कानूनों के भीतर, बदलाव करने, समायोजन करने के लिए तैयार है, लेकिन कानूनों को पूरी तरह से खारिज करने का विरोध करती है। कानूनों के भीतर ऐसे सभी बदलाव, जब तक ये कानून बने रहेंगे, तब भी नव-उदारवादी एजेंडा जारी रहेगा।
हालांकि, किसान जो मांग कर रहे हैं, वह उस एजेंडे को भी धता बता रहा है जो कि एकाधिकार पूंजी यानि बड़े कोरपोरेट को छोटे उत्पादन में अतिक्रमण करने से रोकता है। यही कारण है कि नवउदारवाद की कसम खाने वाला कॉर्पोरेट-हिंदुत्व गठबंधन किसानों की मांगों के विरोध में है। ये दोनों खुद को एक गठबंधन में पाते है क्योंकि ये देख पा रहे है कि इनका प्रभुत्व उनकी खुद की आंखों के सामने दफन हो रहा है।
सौज- न्यूजक्लिकः अनुवाद- महेश कुमार । इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें–