आमतौर पर दलीय-राजनीतिज्ञ इस तरह से सच नहीं बोला करते! लेकिन भाजपा वाले उनके सच बोलने से भी नाराज़ हैं। …लेकिन इतना ही नहीं अपने कहे का जवाब तलाशने के लिए राहुल गांधी को अपने उत्तर-भारतीय समाज और स्वयं अपने दलीय राजनीतिक इतिहास में झांकने की ज़रूरत है। वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश का आलेख
केरल और उत्तर के हिंदी-भाषी क्षेत्र की राजनीति पर तुलनात्मक टिप्पणी करते हुए कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जो कुछ कहा, उसमें गलत जैसा कुछ भी नहीं! भारतीय समाज और राजनीति का कोई भी अध्येता ऐसी टिप्पणी कर सकता है। इसमें कुछ भी असामान्य नहीं! पर राहुल गांधी जैसे एक बड़े कांग्रेसी नेता की यह टिप्पणी असामान्य जरूर कही जायेगी। उनकी इस टिप्पणी में एक भोलापन है। सच को सहजता से व्यक्त करने का अराजनीतिक-अंदाज है। आमतौर पर दलीय-राजनीतिज्ञ इस तरह से सच नहीं बोला करते! लेकिन भाजपा वाले उनके सच बोलने से भी नाराज हैं और सत्ताधारी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर तमाम मंत्री-सांसद अब तक राहुल गांधी पर बरस चुके हैं। उऩकी मुख्य दलील है कि राहुल ने अपने इस बयान से उत्तर भारतीयों का अपमान किया है। देश की जनता के बीच उत्तर-दक्षिण का ऐसा विभाजन निंदनीय है। अपने राजनीतिक स्वभाव के अनुसार भाजपा अब राहुल के उक्त बयान का भी अपने हक में इस्तेमाल कर रही है। राहुल को उत्तर-भारत विरोधी से लेकर राजनीतिक-धोखेबाज बता रही है। आरोपों-प्रत्यारोपों के ऐसे अनर्गल और निरर्थक बौछार को नजरंदाज कर अगर हम राहुल गांधी के तिरुवनंतपुरम में दिये बयान के व्यापक राजनीतिक संदर्भ को देखें तो कई महत्वपूर्ण पहलू उभरते हैं।
अगर हम केरल या दक्षिण के ज्यादातर राज्यों से उत्तर के हिंदी-भाषी राज्यों, खासकर यूपी-बिहार आदि की तुलना करें तो राहुल के बयान का सच ज्यादा विराट रूप में सामने आता है। दोनों क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था, समाज-व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य और आम जनजीवन के स्तर के सरकारी आंकड़ों से भी इस बात की पुष्टि होती है कि केरल जैसे राज्य में प्रशासनिक संरचना और उसकी कार्य-प्रक्रिया बेहतर व सुसंगत रही है। अपनी कतिपय सीमाओं के बावजूद तमिलनाडु का रिकार्ड भी बेहतर रहा है। सामाजिक-सुधार और लोगों के सोच में बदलाव के साथ जनपक्षी राजनीति के विस्तार से ही केरल जैसे राज्यों ने तरक्की की है।
उन्नीसवीं सदी में स्वामी विवेकानंद ने जाति-वर्ण की संकीर्णताओं और अज्ञान के अंधेरे में घिरे केरल को देखकर इसे भयावह ‘पागलखाने’ की संज्ञा दी थी। वही राज्य बीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध आते-आते भारत में एक प्रगतिशील, सुंदर और अपेक्षाकृत बेहतर समाज के रूप में विकसित हुआ तो निश्चय ही इसके लिए वहां की जनता, वहां के समाज-सुधारकों और सियासतदानों को श्रेय देना होगा!
केरल रातों-रात विकसित नहीं हो गया। इसके बदलाव की प्रक्रिया उन्नीसवीं सदी के समाज-सुधार आंदोलनों के साथ ही शुरू हो गई थी। श्रीनारायण गुरू और अय्यंकली जैसे महान् संतों-सुधारकों ने इसकी जमीन तैयार की। फिर आजादी के बाद वामपंथियों ने सरकार में आने के बाद जिस तरह के बड़े राजनीतिक-आर्थिक सुधारों को अमलीजामा पहनाया, उसके चमत्कारिक नतीजे सामने आने लगे। इस नयी राजनीति ने केरल के अवाम और यहां तक कि विपक्षी दलों, सामाजिक संगठनों, संस्थाओं और प्रोफेशनल समूहों को भी प्रभावित किया। यही कारण है कि केरल की कांग्रेस या कोई अन्य गैर-वामपंथी पार्टी भी यूपी-बिहार की अपनी ही प्रांतीय इकाइयों से गुणात्मक रूप से काफी कुछ अलग दिखने लगीं।
राहुल गांधी को आज अगर केरल के लोगों में वास्तविक मुद्दों के प्रति सजगता दिखाई देती है और उत्तर के हिंदी-भाषी राज्यों की तरह जाति-वर्ण-सांप्रदायिक विभाजन आधारित ध्रुवीकरण की भयावह सियासी-तस्वीर नहीं दिखाई देती तो इसके पीछे लंबी और सतत सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया की अहम् भूमिका है। बड़े सामाजिक-सुधारों और राजनीतिक-प्रशासनिक ठोस कदमों से यह सब संभव हुआ! उस तरह के सुधार और कदम उत्तर के हिंदी-भाषी राज्यों में नहीं उठाये जा सके! ऐसा क्यों नहीं हो पाया, इसके लिए राहुल गांधी को अपने उत्तर-भारतीय समाज और स्वयं अपने दलीय राजनीतिक इतिहास में झांकने की जरूरत है।
सन् 1947 से अब तक के दौर में उत्तर के हिंदी भाषी राज्यों पर सबसे ज्यादा वक़्त कांग्रेस ने ही राज किया। सन् 47 से पहले भी लंबे समय तक वह उत्तर के इन सूबों में बड़ी राजनीतिक ताकत थी। सन् 37 से वह प्रशासकीय स्तर पर भी बड़ी किरदार रही। कांग्रेस को किसने मना किया था, केरल की तरह इन क्षेत्रों में भी मुकम्मल भूमि सुधार और शिक्षा सुधार का कदम उठाने से?
पता नहीं, राहुल जी ने केरल का आधुनिक राजनीतिक इतिहास पढ़ा कि नहीं? केरल में उनकी पार्टी-कांग्रेस ने नेहरू जी के तरक्कीपसंद दौर में भी भूमि सुधार और शिक्षा सुधार के ईएमएस नंबूदिरीपाद सरकार के कदमों का विरोध किया था। सन् 1959 में नंबूदिरीपाद की अगुवाई वाली निर्वाचित वामपंथी सरकार बर्खास्त तक कर दी गयी। उस वक्त नेहरू प्रधानमंत्री और इंदिरा गांधी कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष थीं। केरल में कांग्रेस और केंद्र की जन-विरोधी और विकास-विरोधी भूमिका का स्वयं फिरोज गांधी ने भी विरोध किया था। इंदिरा गांधी और उऩके पति फिरोज गांधी के निजी सम्बन्धों में खटास पैदा होने के कई कारणों में एक पहलू केरल का भी था। बहरहाल, केरल में वामपंथी अपने कामों के बल पर कुछ अंतराल के बाद फिर सत्ता में आये और उन्होंने राजनीतिक-प्रशासनिक सुधार का एजेंडा आगे बढ़ाया और इस तरह केरल के कायान्तरण की प्रक्रिया तेज हुई।
उत्तर की कांग्रेस सरकारों ने तत्कालीन पूर्व राजा-महाराजाओं, भूस्वामियों और उनके समर्थक-जनसंघियो आदि को ज्यादा नाराज नहीं किया। उनका पक्ष लिया। जम्मू कश्मीर में शेख अब्दुल्ला की सरकार को सन् 1953 में बर्खास्त किया गया और शेख को सत्ता से हटाकर सीधे जेल भेज दिया गया। कई बहाने बनाये गये। पर सच कुछ और था। इतिहास का यह सच जल्दी ही सामने आ गया। जम्मू कश्मीर में शेख की सरकार को भूमि सुधार कार्यक्रम लागू करने के उनके ठोस एजेंडे के चलते बर्खास्त किया गया! कर्नाटक जैसे राज्य में भी देवराज अर्स सरकार के कारण भूमि सुधार के क्षेत्र में अपेक्षाकृत कुछ बेहतर कदम उठाये जा सके। उस समय तक देवराज अर्स कांग्रेस से अलग होकर अपनी नयी क्षेत्रीय पार्टी-क्रांति रंगा बना चुके थे।
उत्तर के हिंदी-भाषी राज्य़ों में जमींदारी-उन्मूलन कानूनों को लागू करने का ऐलान जरूर हुआ। आधे-अधूरे कुछ कदम भी उठाये गये। उन कदमों का काश्तकारों और किसानों को कुछ फायदा जरूर मिला। पर जमींदारी उन्मूलन कानूनों को जमीनी स्तर पर बुनियादी भूमि सुधार अभियान में नहीं तब्दील किया जा सका। यूपी में गोविंद बल्लभ पंत और बिहार में श्रीकृष्ण सिंह की सरकारों ने केरल या कश्मीर जैसे भूमि-सुधार से अपने-अपने बड़े सूबों को वंचित रखा। कुछ ही बरस बाद उसके नतीजे भी सामने आने लगे,जब दोनों सूबों में जन-असंतोष बढ़ता नजर आया। सन् 66-67 आते-आते कांग्रेस के विरूद्ध विपक्षी मोर्चेंबंदियां बढ़ गईं और कई राज्यों में कांग्रेस हारने लगी। संयुक्त विधायक दल की सरकारें बनीं। पर समाजवादियों-जनसंघियों और कुछ अन्य समूहों के गठबंधन से बनी इन मिली-जुली सरकारों के पास सामाजिक-आर्थिक बदलाव का सुसंगत नजरिया नहीं था। उन सरकारों ने भी भूमि सुधार और शिक्षा सुधार को अपने शासकीय एजेंडे में अहम् स्थान नहीं दिया। इससे हिंदी-भाषी सूबों की बेहाली बढ़ती रही। इसका फायदा अंततः हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने उठाया। सांप्रदायिक-विभाजन और वर्णवादी-संकीर्णता की राजनीति आज यहां सत्ता पर काबिज है। इसने सामाजिक प्रगति और लोगों में सुसंगत सोच के विकास की हर संभावना को कुंद कर रखा है।
राहुल गांधी को इस बात का जरूर अंदाज होगा कि सन् 1988-89 से 95-96 के दौर में उनकी पार्टी और उसकी अगुवाई वाली सरकारों के अनेक कदमों से किस तरह सांप्रदायिकता और संकीर्णता की राजनीतिक शक्तियों को बल मिला! अय़ोध्या में ताला खुलवाने का फैसला हो या शाहबानो मामले में गैर-वाजिब राजनीतिक हस्तक्षेप हो या फिर मंडल आयोग की सिफारिशों के विरोध में पानी पी-पीकर संसद में दिया गया तत्कालीन विपक्षी नेता का विवादास्पद भाषण हो, इन सबका देश की राजनीति पर गहरा नकारात्मक असर पड़ा।
फिर उत्तर के हिंदी-भाषी राज्यों और यहां के लोगों की मानसिकता कैसे बदलती? यूपी-बिहार दक्षिण के केरल या कुछ अन्य राज्यों की तरह सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक तौर पर अपेक्षाकृत समुन्नत कैसे होते?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।) सौज- न्यूजक्लिकः लिंक नीचे दी गई है-
https://hindi.newsclick.in/Telling-the-truth-of-hapless-politician-cursed-by-his-own-history
सही कहा है राहुल गाँधी में भोलापन , सहजता है जो राजनीतिज्ञ में नही होती । वे अन्य राजनीतिज्ञ जैसे नहीं है जिनके बोलने के अन्दाज़ में चालाकी होती है । घुमा फिराकर नही बोलते ।