स्वाधीनता ‘स्व’ की चेतना है। स्वाधीनता संग्राम में देश के प्रमुख साहित्यकारों, विचारकों और राजनेताओं की गतिविधियाँ राष्ट्र के ‘स्व’ की तलाश करती हैं और उसी ‘स्व’ के आधार पर स्वतंत्रता के विचार को अमलीजामा पहनाती हैं। राजधानी कॉलेज, हिंदी विभाग की साहित्यिक संस्था ‘हिंदी साहित्य परिषद्’ द्वारा डिजिटल प्लेटफॉर्म पर ‘स्वाधीनता आंदोलन और हिंदी साहित्य’ विषय पर आयोजित व्याख्यान में सुप्रसिद्ध आलोचक प्रोफ़ेसर विजय बहादुर सिंह ने उक्त विचार व्यक्त किए।
प्रो. विजय बहादुर सिंह ने कहा कि किसी भी दौर में स्वाधीनता की चेतना का होना जरूरी है, क्योंकि बिना स्वाधीनता की चेतना के स्वतंत्रता की संकल्पना करना भी मुश्किल है। स्वाधीनता की यह चेतना तब आएगी, जब वह शिक्षा में और परिवेश में व्याप्त हो। उसके लिए निरंतर स्वाध्याय के साथ स्वयं को विकसित करने की और एक सांस्कृतिक माहौल निर्मित करने की आवश्यकता है। फ़िलहाल, जिसका आभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। उन्होंने कहा कि आज़ादी मिलने से पहले देश ग़ुलाम था लेकिन लोग आज़ाद थे जबकि आज़ादी मिलने के उपरांत देश तो आज़ाद हो गया है लेकिन लोग ग़ुलाम हो गए हैं। ऐसा हुआ, क्योंकि हमारी चेतना का केंद्र खो गया। ‘स्व’ का अनुसंधान समाप्त हो गया है। और जहाँ भी ऐसा होता है, वहां अनेक अमानवीय शक्तियों द्वारा स्वाधीनता छीन ली जाती है। मैकाले इसलिए सफल हुआ क्योंकि उसने भारत में ही अंग्रेज पैदा करने में सफलता प्राप्त की। आज हिंदुस्तानी तो दीखते हैं किंतु औपनिवेशिक मानस के चलते वे हिंदुस्तानी हैं नहीं। बाजार की गुलामी एक नए तरह के और अधिक गहरे संकट की तरफ इशारा कर रही है। जहाँ गुलामी स्वतंत्रता के नाम पर बेची जा रही है।
उन्होंने स्वाधीनता का अर्थ बताते हुए कहा कि स्वाधीनता में ‘स्व’ और ‘अधीनता’ शब्द होते हैं। अधीनता के चलते प्रायः ‘स्व’ समाप्त हो जाता है। उस ‘स्व’ की प्रतिष्ठा के साथ स्वाधीनता मनुष्य की बुनियादी जरूरत है। क्योंकि तभी कोई व्यक्ति सही मायनों में स्वतंत्र हो सकता है। कविता में जब कवि लिखता है ‘आओ मिलकर विचारें ये समस्याएं सभी’ तो वह हमें मिलकर यही विचार करने की प्रेरणा देती है। आज़ादी की लड़ाई केवल राजनीतिक मोर्चे पर ही नहीं लड़ी गयी, अपितु साहित्यकार, पत्रकार, लोकगायक, लोक कलाकार इत्यादि लोगों ने स्वाधीनता की चेतना को जागृत करने का कार्य किया है। ‘स्व’ को तलाश करने का कार्य किया। राजा राम मोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे अनेक समाज सुधारकों और धर्म सुधारकों ने अपने-अपने ढंग से यह कार्य किया है।
भारत में धर्म की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि धर्म अफ़ीम नहीं है। हमारे यहाँ वह संप्रदाय शब्द का पर्यायवाची नहीं रहा है। इसलिए धर्म को अफ़ीम मानने वाले भी गलत हैं और उसे जड़वादी लाठी बनाने वाले भी। पूरी चेतना के साथ मनुष्य बनने की प्रक्रिया ही धर्म है। यदि स्वाधीन चेतना को बनाये रखना है तो हिंदुस्तान को अपने मूल केंद्रों की तरफ लौटना ही होगा और वास्तविक स्वतंत्रता की तलाश करना होगा। किंतु धर्म का अर्थ जब पतित हो जाता है, तब वह कर्मकांड में परिवर्तित हो जाता है, जड़वाद का अस्त्र बन जाता है, जो कि वर्तमान में हो रहा है।
व्याख्यान के उपरांत प्रश्नोत्तरी सत्र में उन्होंने साहित्य और संस्कृति से जुड़े हुए अनेक प्रश्नों का उत्तर देते हुए बताया कि इस जमीन की चेतना कितनी समर्थ, सार्थक और उज्जवल रही है। उनके सहज और आत्मीय उत्तर ने विद्यार्थियों के मन में विषय से सम्बंधित अनेक जिज्ञासाओं को शांत किया।
स्वागत व्यक्तव्य देते हुए कॉलेज प्राचार्य डॉ. राजेश गिरि ने कहा कि कोरोना संकट के समय डिजिटल प्लेटफॉर्म को हमने अपनी ताकत बनाया है, इसलिए हम लगातार अध्यापन सुनिश्चित करते हुए इस तरह के महत्वपूर्ण आयोजन करने में सफल हो रहे हैं और विद्यार्थियों को तरह-तरह से सीखने को प्रेरित और लाभान्वित कर पा रहे हैं। उन्होंने कहा कि स्वाधीनता के सन्दर्भों को बार-बार तलाशने की आवश्यकता है, तभी हम उत्तम चरित्र निर्माण के साथ एक तार्किक और बेहतर भारत के निर्माण का कार्य कर सकेंगे। विस्तृत विषय प्रवेश तथा वक्ता परिचय कार्यक्रम के संचालक तथा हिंदी साहित्य परिषद्, राजधानी कॉलेज के संयोजक डॉ. राजीव रंजन गिरि ने किया। उन्होंने विस्तार से वक्ता के साहित्यिक और सांस्कृतिक योगदान को रेखांकित किया। इस अवसर पर लगभग 130 विद्यार्थियों की उपस्थिति के साथ, हिंदी विभाग तथा कॉलेज के शिक्षक, अनेक विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों के शिक्षक तथा संस्कृतकर्मी उपस्थित रहे। कार्यक्रम का समापन हिंदी विभाग के प्रभारी डॉ. सत्यप्रकाश सिंह के धन्यवाद ज्ञापन से हुआ।