‘‘ राष्ट्रीय हित में, बैंक कर्मियों ने शपथ ली है कि वे मोदी को उनके इस ख़तरनाक पथ पर आगे नहीं बढ़ने देंगे और वे प्रतिरोध में अब संघर्षशील किसानों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाते हुए आंदोलन का रास्ता अपनाएंगे। ”
अभी दो, इसके बाद चार, और अंत में एक छोड़कर सभी बारह! इस तरह से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, यानी पीएसबीज़ का निजीकरण होगा। निर्मला सीतारमन की बजट घोषणा के बाद, कि शुरू में दो पीएसबीज़ (PSBs) का निजीकरण इस वित्तीय वर्ष में किया जाएगा, अब यह आधिकारिक बात बन गई है। यद्यपि इसपर आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है कि कौन से दो बैंक बलि चढ़ाए जाएंगे, रहस्य सर्वविदित है-बैंक ऑफ इंडिया और द इंडियन ओवरसीज़ बैंक।
टार्गेट लिया गया है कि 2021-22 में विनिवेश के माध्यम से 1.75 लाख करोड़ की उगाही होगी। इसमें से 1 लाख करोड़ वित्तीय संस्थाओं के निजीकरण/विनिवेश से आएंगे। इन दो प्रस्तावित बैंकों के अलावा एक जनरल इंश्योरेंस कम्पनी का भी निजीकरण होगा। इसके अलावा एलआईसी (LIC) में विनिवेश, जो पिछले वर्ष आरंभ किया गया था, इस साल पूरा कर दिया जाएगा। बैंक ऑफ इंडिया और इंडियन ओवरसीज़ बैंक के अलावा, बैंक ऑफ महाराष्ट्र और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के नाम भी निजीकरण की लिस्ट में हैं। पर यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार इस प्रक्रिया को इसी वित्तीय वर्ष में शुरू करेगी या नहीं।
पिछले बजट 2020-21 में निर्मला जी ने टार्गेट रखा था कि 2.1 लाख करोड़ उगाही केवल निजीकरण और सरकारी कम्पनियों में माइनॉरिटी स्टेक्स (minority stakes) बेचकर किया जाएगा। इसमे शामिल था 1.20 लाख करोड़, जो केद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों (PSUs) में स्टेक्स बेचकर आना था और 90,000 करोड़ वित्तीय संस्थाओं में स्टेक्स (stakes) बेचकर आना था। पर, अंत में वह केवल 32,000 करोड़ की उगाही ही कर पायीं। सरकार ने इसपर सफाई भी नहीं दी। आखिर हमारी सरकार जवाबदेही और आत्मविश्लेषण के लिए तो कभी तैयार नहीं होती। ‘सब चलता है’ वाला रवैया ही रहता है। इस वित्तीय वर्ष के लिए फिर 1.75 करोड़ का विनिवेश टार्गेट लिया गया है। इस टार्गेट का क्या हश्र होगा हम समझ सकते हैं, जब अस्थिर स्टॉक मार्केट प्रति सप्ताह 800 से लेकर 1200 पॉयन्ट गिरते हैं और फिर रिकवर करते हैं।
अधिकारियों और कर्मचारियों के बैंक यूनियन 15-16 मार्च 2021 को हड़ताल पर हैं। वे सार्वजनिक क्षेत्र बैंकों के बेचे जाने का विरोध कर रहे हैं। इसके चलते करीब 50,000 बैंक ऑफ इंडिया कर्मचारी और 26,000 इंडियन ओवरसीज़ बैंक कर्मचारियों की नौकरियां दांव पर लग गईं हैं। पिछले वर्ष बैंकिंग क्षेत्र के लिए सरकारी ऐजेंडा था बैंकों का विलय, यानी कमजोर बैंकों को स्वस्थ बैंकों पर मढ़ देना; और चार बैंकों से इतिश्री की गई। उस समय भी बैंक यूनियनें हड़ताल पर गईं और उन्होंने चेतावनी दी थी कि यह दरअसल निजीकरण की तैयारी है। उनकी बात एक साल में ही सही साबित हो गई। इस वर्ष का ऐजेंडा खुलकर निजीकरण करने का है- शुरू करने के लिए दो बैंको की बात हो रही है पर मकसद है केवल एक बैंक को बचाकर रखने का, यानी एसबीआई (SBI) को, और बाकी को पूरी तरह खत्म कर देने का। अभी बैंक कर्मचारी दो दिवसीय हड़ताल पर हैं। शुरुआती रिपार्टें बता रही हैं कि यह 3.8 लाख बैंक कर्मियों की सफल राजनीतिक हड़ताल होगी!
जब आधिकारिक घोषणा हो जाएगी कि कौन से दो बैंक निजीकरण के हत्थे चढ़ेंगे, कई प्रतिरोध कार्यक्रमों का सिलसिला शरू होगा। मोदीजी को समझ में आएगा कि किसानों की भांति बैंक कर्मी भी तबतक लड़ेंगे जबतक निजीकरण की पहल वापस नहीं ली जाती।
भारत के बैंक आजकल प्रतिदिन 12.5 करोड़ डिजिटल लेन-देन (digital transactions) करते हैं, इसका कुल मूल्य 5 लाख करोड़ होता है। आरबीआई के अनुसार यह संख्या अगले पांच सालों में बढ़कर प्रतिदिन 150 करोड़ ट्रांजैक्शन तक हो जाएगी, जिसका कुल मूल्य होगा 15 लाख करोड़ प्रतिदिन! एक दिन की हड़ताल भी देश के आर्थिक कारोबार की रीढ़ तोड़ देने के लिए काफी है। यद्यपि हड़ताल 2 दिन की है, यह शनिवार और रविवार के बाद हो रही है। इसके मायने हैं कि 4 दिनों तक बैंक का कारोबार ठप्प हुआ। मोदी सरकार को आगे आने वाले कठिन दौर का पूर्वाभास तो हो जाना चाहिये। मंदी की चपेट से अर्थव्यवस्था निकल नहीं पायी है तो क्या वह अनिश्चितकालीन बैंक हड़ताल झेल सकेगी?
अगर हम आकलन करें, तो यदि सरकार बैंक ऑफ इंडिया और इण्डियन ओवरसीज़ बैंक में अपने शेयर घटाकर 51 प्रतिशत तक ले आती है फिर भी वह केवल 12,000 करोड़ की उगाही कर पायेगी। यदि वह अपने 100 प्रतिशत स्टेक बेच दे, और पूर्ण निजीकरण करे तो भी वह मात्र 28,600 करोड़ की उगाही कर सकती है। वित्तीय दृष्टि से यह नगण्य है। दूसरी बात यह है कि 2019-20 के अंत तक बैंक ऑफ इंडिया के एनपीए 61,500 करोड़ थे व इंडियन ओवरसीज़ बैंक के सकल एनपीए 2019 वित्तीय वर्ष के अंत में 17,660 करोड़ थे। क्या कोई निजी कॉरपोरेट या व्यवसायी इतना मूर्ख होगा कि 28,000 करोड़ रुपये देकर 80,000 करोड़ की देनदारी स्वीकार करेगा? यह तय है कि सट्टेबाज़ (speculators) और बेईमान व्यावसायिक (fly-by-night operators) व लाखों सीधे-सादे मध्यम-वर्गीय निवेशकर्ता इन शेयरों को खरीदेंगे। पर सट्टेबाज़ गुर्गे ही बैंको को हथिया लेंगे, उन्हें नष्ट करेंगे, अपने एनपीए (NPA) और रीयल एस्टेट परिसंपत्ति (real estate assets) किसी एआरसी (ARC), यानी ऐसेट रीकंस्ट्रक्शन कम्पनी (asset reconstruction company) को बेचकर उन्हें लूट भी ले सकते हैं। इसके कारण कर्मचारी तो सड़क पर आ जाएंगे। मोदीनॉमिक्स क्या एक कबाड़ीवाले की अर्थव्यवस्था ही बन कर रह जाएगी? क्या यह विमुद्रीकरण (नोटबंदी) जैसे समय का आभास नहीं करा रहा है?
दरअसल यह आकलन कि कुल 28,600 करोड़ की उगाही हो सकेगी, बजट के समय का आकलन था। इन दो बैंकों के नाम और यह आंकड़ा जानबूझकर एक प्रमुख आर्थिक दैनिक पत्रिका को वित्त मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा लीक किया गया ताकि इन दोनों बैंकों के शेयरों की कीमत में उछाल आए। 15 दिनों में, यानी 16 फरवरी तक दोनों बैंकों के शेयरों की कीमत 20 प्रतिशत तक बढ़ गई और अब और भी अधिक होगी। अब बढ़े हुए स्टॉक कीमतों के अनुरूप इन दोनों बैंकों में 100 प्रतिशत विनिवेश से 50,000 करोड़ से अधिक की उगाही होगी। भोले-भाले मध्यम वर्ग के निवेशकर्ता तो घाटे में जाएंगे, जबकि सट्टेबाज़ इनकी कीमत पर मालामल हो जाएंगे।
बैंकों का निजीकरण मंदी के वर्ष में बजटीय संसाधन बढ़ाने की मात्र एक वित्तीय पहल नहीं है, बल्कि इसका स्वरूप अधिक बुनियादी किस्म का है। मोदी सरकार का बुनियादी दर्शन तो यह है कि सरकार की व्यवसायिक कार्यवाही में कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होनी चाहिये। पर यह एक गलत व विकृत दर्शन है। सौम्य दत्त, महासचिव स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ऑफिसर्स एसोसिएशन (SBI Officers’ Association) के अनुसार ‘‘आत्मनिर्भर भारत, बैंक-निर्भर भारत है।” भारत यदि आत्मनिर्भर होगा तो पब्लिक सेक्टर बैंकों के बल पर। इनके बिना तो अर्थव्यवस्था चक्रव्यूह में फंस जाएगी।
उदाहरण के लिए आप कृषि को ही ले लें, जो हमारी अर्थव्यवस्था की नींव है। भारत का कृषि उत्पाद केवल इसलिए वहनीय है कि वह व्यापक पैमाने पर कृषि ऋण पर निर्भर है, जिसका टार्गेट 2020-21 में 15 लाख करोड़ था। 2021-22 के लिए यह टार्गेट 16.5 लाख करोड़ है। कृषि को ही पब्लिक सेक्टर बैंकों से 2020 में कुल संस्थागत ऋण का 75.7 प्रतिशत मिला था और निजी व सहकारी बैंकों से बाकी का 24.3 प्रतिशत हिस्सा मिला। यदि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण हो जाता है तो क्या निजी बैंक कृषि क्षेत्र के संपूर्ण ऋण आवश्यकता को पूरा कर पाएंगे? तब खाद्य सुरक्षा और खाद्य उत्पादों के दामों का क्या होगा? मैक्रोइकनॉमी के दृष्टिकोण से देखें तो यह एक आत्मघाती कदम है, जो विमुद्रीकरण से भी अधिक बड़ी मूर्खता है।
पब्लिक सेक्टर बैंक किसानों को कृषि लोन 7 प्रतिशत ब्याज प्रति वर्ष पर देते हैं और कार्यकारी पूंजी निवेश के लिए सावधि लोन 10 प्रतिशत ब्याज पर देते हैं; इसमें ट्रैक्टर लोन भी शामिल है। क्या निजी बैंक इतने कम ब्याज पर कभी ऋण मुहय्या करा सकेंगे? मस्लन एचडीएफसी (HDFC) इन्हीं कर्जों के लिए क्रमशः 9 प्रतिशत और 20 प्रतिशत ब्याज लेता है। आईसीआईसीआई (ICICI) क्रमशः 10 प्रतिशत और 15.33 प्रतिशत ब्याज लेता है और इंडसइण्ड (IndusInd) बैंक क्रमशः 10 प्रतिशत और 14.75 प्रतिशत ब्याज पर ऋण देता है। क्या किसान ब्याज के इस अतिरिक्त बोझ को वहन कर सकेंगे? क्या इससे कृषि संकट नहीं बढ़ेगा और किसान आत्महत्याओं का नया सिलसिला नहीं शुरू होगा?
पब्लिक सेक्टर बैंकों से ही 2020 में 66.9 प्रतिशत औद्योगिक ऋण आया था और निजी बैंकों से केवल 33.1 प्रतिशत। जहां तक व्यापारियों के लिए व्यावसायिक लोन की बात है, ये आंकड़े क्रमशः 62.9 प्रतिशत और 37.1 प्रतिशत थे। इन व्यावसायिक ऋणों पर ब्याज पीएसबीज़ से 11.90 प्रतिशत से आरंभ होते हैं और एमएसएमईज़ के लिए ये प्रति वर्ष 7.65 प्रतिशत से आरंभ होते हैं। निजी बैंक एमएसएमईज़् (MSMEs) को ब्याज दर में कोई छूट नहीं देते। वे 50 लाख या अधिक के सभी किस्म के व्यावसायिक लोन्स के लिए 17 प्रतिशत या अधिक का ब्याज दर लगाते हैं। इसका मतलब होगा कि गैर-कृषि व्यवसायों के लिए 5 प्रतिशत ब्याज दर का अतिरिक्त दंड होगा, जबकि वे महामारी और मंदी की मार से अभी उबर तक नहीं पाए हैं। जो लाखों-लाख व्यापारी मोदी की जय-जयकार में लगे थे, और 2019 में उन्हें वापस गद्दी सौंप रहे थे, उन्हें अब समझ आ रहा है कि अम्बानी-अडानी और उनके कुछ संगी-साथियों को छोड़कर प्रधानमंत्री को भारतीय उद्योग की खास परवाह नहीं है।
डी डी रुस्तगी, जो केनरा बैंक कर्मचारी यूनियन के महासचिव व ऑल इंडिया बैंक एम्प्लाइज़ एसोसिएशन (AIBEA) के संयुक्त सचिव रहे हैं, ने न्यूज़क्लिक से कहा, ‘‘राष्ट्रीय हित में, बैंक कर्मियों ने शपथ ली है कि वे मोदी को उनके इस ख़तरनाक पथ पर आगे नहीं बढ़ने देंगे और वे प्रतिरोध में अब संघर्षशील किसानों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाते हुए आंदोलन का रास्ता अपनाएंगे।”
एटीन्थ ब्रूमेयर (Eighteenth Brumaire) में कार्ल मार्क्स ने लिखा था, “A nation and a woman are not forgiven for the unguarded hour in which the first adventurer who came along could violate them” यानी “कोई देश या औरत उस अचेतन घंटे के लिए कभी माफ़ नहीं किये जाते जब कोई आतताई उनपर वार कर देता है।” पहले विमुद्रीकरण और फिर बैंकों का निजीकरण- इस तरह मिस्टर मोदी हमें कार्ल मार्क्स के इन शब्दों को बार-बार याद कराते हैं।
(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) सौज- न्यूजक्लिक
सही आकलन बैंक के निजीकरण का । गरिब लोगों के हाथ से फिसल जाएँगे बैंक । कोई भी निजी बैंक कम ब्याज डर पर किसानो एवं
छोटा व्यवसाय करने वालो को कम ब्याज में loan नही देगा । जनता ख़ास कर गरिब लोग तो बैंक की सीढ़ी चढ़ ही नहीपायेंगे