अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ क्यों गिरा रही हैं भारत की रेटिंग?

अरविंद मोहन

अनेक अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने जब आर्थिक कामकाज और प्रदर्शन पर भारत की रेटिंग गिरानी शुरू की तो इस बार संसद में पेश आर्थिक सर्वेक्षण में बाजाप्ता इस बात की शिकायत की गई है कि हमारी आर्थिक स्थिति जैसी है वह बाहर की रेटिंग में क्यों प्रदर्शित नहीं होती। कई लोग मानते हैं कि सरकारी आँकड़े कुछ भी कहें दुनिया उसे मान ले यह ज़रूरी नहीं।

आज़ादी मापने की चीज है या नहीं, अनुभव करने की चीज है या नहीं या फिर देश और नेता के नाम पर सब कुछ भूल जाने की आदत डाल लेनी चाहिए? यह सवाल अमेरिका की संस्था, केटो इंस्टीट्यूट और कनाडा की संस्था फ्रेजर इंस्टीट्यूट द्वारा जारी दुनिया के 162 देशों की रैंकिंग के बाद ढंग से उठाए जाने चाहिए थे क्योंकि इसमें भारत की आज़ादी को ‘आधी’ बता दिया गया है और उसकी रैंकिंग 94वें स्थान से गिरकर 111 स्थान पर आ गई है। और इसे आधार बनाकर जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी देश के लोकतांत्रिक न होने का दावा करते हैं तो बीजेपी और संघ परिवार बड़ी सुविधा से इस बहस को शुरू होने से पहले ही हवा में उड़ा देने का प्रयास करते हैं। 

इस रिपोर्ट के साथ जो नक्शा लगाया गया है वह और चौंकाने वाला है क्योंकि उसमें पूरे जम्मू और कश्मीर को बाहर कर दिया गया है। और हैरानी की बात है कि इतनी बड़ी चूक या शरारत के बाद भी भारत सरकार, भारतीय जनता पार्टी या संघ परिवार की तरफ़ से इस बात पर आपत्ति भी नहीं की गई है। यह काम भी एक कांग्रेसी सांसद ने किया।

यह चुप्पी संदेह को गहराती है कि कहीं सब कुछ योजनाबद्ध ढंग से दबाने या उजागर करने की कोई बड़ी योजना तो काम नहीं कर रही है। टूलकिट प्रकरण से लेकर किसान आन्दोलन समर्थक पत्रकारों को परेशान करना मात्र संयोग नहीं है। इसी बीच इंडियन एक्सप्रेस अख़बार और ‘कारवाँ’ पत्रिका एक साथ यह ख़बर भी सामने लाने की कोशिश करते हैं कि सरकार पत्रकारों को अलग-अलग रंग की ग्रेडिंग देकर सरकारी ख़बरों के ख़िलाफ़ रुख अपनाने वाले पत्रकारों की घेराबन्दी कर रही है और इसके लिए बाजाप्ता ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर बना है और कोरोना काल में ही उसकी पाँच बैठकें हो चुकी हैं। 

जहाँ तक इस रेटिंग का सवाल है तो यह हर साल होती है और केटो इंस्टीट्यूट तो अमेरिका की सबसे पुरानी संस्थाओं (एनजीओ) में एक है। पिछले साल भारत को 94वाँ स्थान मिला था। एक साल में सत्रह स्थान नीचे आना एक बड़ा मसला है। सबसे बड़ी बात भारत को ‘आज़ाद’ वाली ग्रेडिंग से नीचे करके ‘हाफ़ फ्री’ की श्रेणी में डाल देना है।

ख़ुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और नरेंद्र मोदी को सबसे लोकप्रिय नेता कहने वाले मुल्क की सरकार के लिए यह रेटिंग किसी तमाचे से कम नहीं है।

और यह बात इसलिए भी महत्व की है कि मोदी जी और हमारी सरकार, अभी तक ऐसी रेटिंग या अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं के कवर पर मोदी की तसवीर आने का जश्न मनाती रही है। मुश्किल यह है कि रेटिंग में गिरावट की यह अकेली घटना नहीं है। 

अनेक अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने जब आर्थिक कामकाज और प्रदर्शन पर भारत की रेटिंग गिरानी शुरू की तो इस बार संसद में पेश आर्थिक सर्वेक्षण में बाजाप्ता इस बात की शिकायत की गई है कि हमारी आर्थिक स्थिति जैसी है वह बाहर की रेटिंग में क्यों प्रदर्शित नहीं होती। हम जानते हैं कि शासन में आने के बाद जब मोदी सरकार ने सकल घरेलू उत्पादन समेत अन्य गणनाओं के आधार में बदलाव कराया तब भी काफ़ी शोर मचा था क्योंकि उसमें लगभग दो फ़ीसदी का झोल सबको दिखता था। सो कई लोग मानते हैं कि सरकारी आँकड़े कुछ भी कहें दुनिया उसे मान ले यह ज़रूरी नहीं।

इस बार की रेटिंग में भारत को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मामले में दस में से 6.30 अंक मिले हैं तो आर्थिक स्वतंत्रता के मामले में 6.56 और नागरिक स्वतंत्रता के मामले में 6.43। कुल 76 पैमानों के आधार पर यह रेटिंग हुई है और इसमें स्वीडन और नॉर्वे जैसे देश अधिकांश पैमानोंं पर अव्वल बताए गए हैं। 

पिछले दिनों जब फ्रेजर इंस्टीट्यूट ने एक भारतीय एनजीओ के साथ मिलकर ग्लोबल इकोनॉमिक फ्रीडम की रैंकिंग की थी तब उसमें भी भारत 79वें स्थान से गिरकर 105वें पर पहुँच गया था।

एक अन्य अमेरिकी संस्था फ्रीडम हाउस ने जब अपनी रैंकिंग दी थी तब उसमें भी इंटरनेट की आज़ादी के मामले में भारत लगातार तीसरे साल नीचे लुढका। जिस हिसाब से भारत में सबसे ज़्यादा बार इंटरनेट सेवा बाधित की जा रही है उसे देखते हुए यह कुछ अटपटा भी नहीं लगता। लेकिन रेटिंग पर एक हद तक सहमत होने का यह मतलब नहीं है कि भारत के नक़्शे में छेड़छाड़ या कश्मीर को भारत से अलग दिखाने पर भी सहमति है। यह घोर निन्दनीय काम है और सच कहें तो रेटिंग करने वालों की अपनी रेटिंग को ही कम करता है।

यह भी सही है कि रेटिंग का खेल भी कोई एकदम साफ़ सुथरा या विवादों परे का नहीं होता। ख़ास तौर से आर्थिक रेटिंग के पीछे साफ़ व्यावसायिक खेल होते हैं। पर दो बातें नहीं भूलनी चाहिए। एक तो यह कि यह काम इस हिसाब से और एक हद तक पारदर्शी तरीक़े से किया जाता है और इसका यश दिनोंदिन बढ़ता गया है। और उससे ज़्यादा बड़ी बात यह है कि इन पर दुनिया भरोसा करती और उसके अनुसार आचरण करती है। आर्थिक रेटिंग गिरने या चढ़ने का मतलब पूंजी का पलायन या भरपूर नई पूंजी का आगमन होता है।

फिर यह भी देखना होगा कि दोष एजेंसियों में है या हमारे अंदर भी है। मीडिया, न्यायपालिका, कार्यपालिका, राजनैतिक विपक्ष, लोकतांत्रिक और प्रशासनिक संस्थाओं का हाल देखकर तो लगता है कि रेटिंग कम गिरी है, हालात ज़्यादा ख़राब हुए हैं।

अरविंद मोहन वरिष्ठ पत्रकार हैं और समसामयिक विषयों पर लिखते रहते हैं। ये उनके निजी विचार हैं। सौज- सत्यहिन्दी

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