“हमको मिटा सके ये जमाने में दम नहीं….” जिगर मुरादाबादी ने हमेशा फिल्मी दुनिया से दूरी बनाए रखी
ये इश्क़ नहीं आसां इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
यह एक बहुत ही मशहूर शेर है, जिसे न सिर्फ खत-ओ-किताबत के दौरान खूब इस्तेमाल किया गया, बल्कि यह शायर मिजाज लोगों की जुबान पर अपनी इब्तिदा से ही छाया रहा है और आज भी गाहे-ब-गाहे इस शेर को लोगों को गुनगुनाते हुए देखा जा सकता है. इस शेर को लिखने वाले का नाम है ‘मोहब्बत बांटने वाले अपने दौर के अजीम शायर’ जिगर मुरादाबादी.
जिगर साहब को इस फानी दुनिया से गए हुए आधी सदी से भी ज्यादा वक्त हो गया, मगर इनकी शायरी आज भी लोगों की धड़कनों पर राज करती है. इन्हें अपने दौर में जो शोहरत मिली, शायद ही वह इनके रहते किसी और को मिली हो. इनके कलाम की उम्दगी का अंदाजा इनके एक और शेर से लगाया जा सकता है-
दुनिया के सितम याद, न अपनी ही वफ़ा याद
अब मुझको नहीं कुछ भी मोहब्बत के सिवा याद
जिगर मुरादाबादी 6 अप्रैल, 1890 को मुरादाबाद में एक ऐसे परिवार में पैदा हुए थे, जहां तकरीबन सभी लोग शायरी का शौक रखते थे. जिगर के परदादा हाफ़िज़ नूर मुहम्मद, दादा हाफ़िज़ अमजद अली, वालिद मुहम्मद अली नज़र और घर के दूसरे लोग सभी शायरी कहने-लिखने के खूब शौकीन थे. इस तरह जिगर साहब को शायरी विरासत में मिली थी. इन्हें अपने दादा हाफ़िज़ अमजद अली का यह शेर बहुत पसंद था, जिसकी तारीफ करते ये कभी थकते नहीं थे-
लुत्फ़-ए-जानां रफ़्ता-रफ़्ता आफ़त-ए-जां हो गया
अब्र-ए-रहमत इस तरह बरसा कि तूफ़ां हो गया
14 की उम्र में गजल, तो 15 की उम्र में इश्क
जिगर मुरादाबादी का असली नाम अली सिकंदर था. मजहबी तालीम के बाद अंग्रेजी तालीम हासिल करने के लिए इन्हें लखनऊ इनके चाचा के पास भेज दिया गया, जहां इन्होंने नौवीं जमात तक तालीम हासिल की. चूंकि अंग्रेजी तालीम में इनकी कोई ज्यादा दिलचस्पी न थी, इसलिए नौवीं जमात में दो बार फेल हुए और बस यहीं से इन्होंने तालीम को अलविदा कह दिया.
छोटी-सी उम्र में ही जिगर साहब शायरी करने लगे थे. अपने यार-दोस्तों के बीच जब ये शेर पढ़ते तो इनके शेर सुनकर वे वाह-वाह कर उठते. इन्होंने 14 साल की उम्र में पहली गजल कही थी, जिसके बारे में खुद जिगर साहब ने बयान किया है कि “मैं जब अपने ताऊ के साथ लखनऊ आया था, तो वहीं मैंने अपनी पहली गजल कही थी.”
जिगर साहब जब 15-16 की उम्र को पहुंचे तो इश्क में गिरफ्तार हो बैठे और इश्क भी किया तो तहसीलदार की बीवी से और बात यहां तक जा पहुंची कि इन्होंने उनसे अपनी मुहब्बत का इजहार भी कर दिया. बात तहसीलदार को पता चली तो उन्होंने इसका जिक्र जिगर के चाचा से किया और चाचा ने जिगर को अपने आने का खत लिख भेजा. चाचा के आने की खबर पाकर जिगर नौ-दो ग्यारह हो गए.
जोश मलीहाबादी के साथ ताल्लुकात
जिगर साहब के ‘शायर-ए-इंकलाब’ के नाम से मशहूर होने वाले जोश मलीहाबादी के साथ गहरे ताल्लुकात थे. जोश मलीहाबादी दुनियावी आदमी थे और उनकी मजहब में कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी. यही वजह है कि वे मजहबी लोगों पर तंज कसने से खुद को नहीं रोक पाते थे. चूंकि जिगर मजहबी आदमी थे, इसलिए जोश इन पर भी खूब तंज कसा करते थे. एक-बार जोश मलीहाबादी ने जिगर साहब को तंजियाना अंदाज में कहा-
“क्या इबरतनाक हालत है आपकी, शराब ने आपको रिंद से मौलवी बना दिया और आप अपने मुकाम को भूल बैठे. मुझे देखिए, मैं रेल के खंभे की तरह अपने मुकाम पर आज भी वहां अटल खड़ा हूं, जहां आज से कई साल पहले था.”
शायर-ए-मोहब्बत
शायरी की दुनिया में दाग देहलवी एक बहुत बड़ा नाम है. पहले जिगर इन्हीं के शागिर्द थे. फिर ये अब्दुल हफ़ीज़ नईमी और बाद में ‘तस्लीम’ के शागिर्द के बने. इनकी शायरी का आलम यह था कि इनकी शायरी रोज-ब-रोज परवान चढ़ती जा रही थी. कोई इन्हें ‘शायर-ए-मुहब्बत’ कहकर बुलाता था तो कोई ‘हुस्न-ओ-इश्क’ का शायर. पेश हैं इश्क-ओ-मोहब्बत से लबरेज इनके कुछ शेर-
हमने सीने से लगाया दिल न अपना बन सका
मुस्कराकर तुमने देखा दिल तुम्हारा हो गया
इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
कुछ इस अदा से आज वो पहलू-नशीं रहे
जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र तो नज़र का क़ुसूर था
…तो सारे मुल्क की शायरी का रंग ही बदल गया
जिगर साहब एक बड़ी शख्सियत के मालिक थे और इनके गजल कहने के अंदाज से तो आम-ओ-खास सभी मुतास्सिर थे. इन्होंने शायरी की दुनिया में नए-नए आयाम स्थापित कर दिए थे, जिससे सारे मुल्क की शायरी का रंग ही बदल गया था और ऐसा होने लगा था कि उस दौर के बहुत से शायर इनके अंदाज-ए-बयां की नकल करने लगे थे, लेकिन किसी के भी हिस्से वह इतनी शोहरत न आई, जो जिगर को नसीब हुई.
काम आख़िर जज़्बा-ए-बेइख़्तियार आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत से तड़पा उनको प्यार आ ही गया
फिल्मी दुनिया से बनाए रखी दूरी
बहुत से दिग्गजों ने चाहा कि जिगर मुरादाबादी फिल्मी दुनिया का हिस्सा बन जाएं और इसके लिए कोशिशें भी तमाम की गईं, लेकिन इन कोशिशों का हासिल कुछ न रहा और जिगर ने सिरे से फिल्मी दुनिया का हिस्सा बनने से इनकार दिया.
हालांकि इनकी जिंदगी में एक वक़्त ऐसा भी था, जब इन्होंने शराब खूब पी, लेकिन इसके बावजूद ये मजहबी आदमी थे और अपने शराब पीने को लेकर इन्होंने माना कि वह वक्त इनका जाहिलीयत का वक़्त था.
इसलिए इनका मानना था कि फिल्मी दुनिया का हिस्सा बनना किसी बड़े गुनाह से कम नहीं. इन्हें बड़ी-से-बड़ी रकम पेश की गई कि ये फिल्मों के लिए कोई गीत लिख दें या अपनी गजल दे दें, लेकिन इन्होंने हर तरह के लालच को ठुकरा दिया. इस बारे में इन्हीं का एक शेर है, जो इनकी शख्सियत पर खरा उतरता है-
हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं
मुल्क से मोहब्बत की एक जबरदस्त मिसाल…
जिगर साहब को अपने मुल्क भारत से बेपनाह मोहब्बत थी. इन्हें भारत से इतनी मोहब्बत थी कि किसी से भी ये भारत के बारे में जरा भी खिलाफ सुनना पसंद नहीं करते थे. इन्हें यहां तक पेशकश की गई कि अगर ये पाकिस्तान आ जाएं तो इन्हें फौरन पाकिस्तान की नागरिकता के साथ-साथ ऐश-ओ-आराम की सारी सहूलियतें दी जाएंगी, लेकिन जिगर साहब ने हर तरह आसाइश पर मुल्क की मोहब्बत को तरजीह दी और हर तरह की पेशकश और हर तरह के लालच को ठुकरा दिया. इनके नजदीकी दोस्तों में से एक महमूद अली खां जामई, जो पाकिस्तान चले गए थे, उनके विचार इस बारे में उल्लेखनीय हैं-
“जिगर साहब पाकिस्तान बनने के बाद देश छोड़कर यहां नहीं आए और लगातार गोंडा में ही रहते रहे. कई बार सजा-सजाया बंगला और मोटर पेश की गई.कई सौ रुपए माहवार देने का भी वादा किया गया, लेकिन जिगर साहब पाकिस्तान आने के लिए कभी तैयार नहीं हुए.”
अपने बेबाक अंदाज और लाजवाब नगमा-ओ-तरन्नुम की बदौलत शोहरत की बुलंदियों को छूने वाले जिगर मुरादाबादी ने एक से बढ़कर एक रचना रची, जिनमें ‘इंतिख़ाब दीवान-ए-जिगर’, ‘कुल्लियात-ए-जिगर’, ‘शोला-ए-तूर’ और ‘आतिश-ए-गुल’ मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं.
‘आतिश-ए-गुल’ के लिए इन्हें 1958 में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ प्रदान किया गया. शायरी की दुनिया में कहीं ‘देशप्रेमी शायर’ तो कहीं ‘मोहब्बतों का शायर’ जैसे नामों से पुकारे जाने वाले जिगर मुरादाबादी 9 सितंबर, 1960 को दूसरी दुनिया की तरफ कूच कर गए.
दिल को सुकून रूह को आराम आ गया
मौत आ गई कि दोस्त का पैग़ाम आ गया
(एम.ए. समीर कई वर्षों से अनेक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थानों से लेखक, संपादक, कवि एवं समीक्षक के रूप में जुड़े हैं. देश की विभिन्न पत्रिकाओं में इनके लेख प्रकाशित होते रहते हैं. 30 सेअधिक पुस्तकें लिखने के साथ-साथ अनेक पुस्तकें संपादित व संशोधित कर चुके हैं… और यह काम अभी भी जारी है.) सौज-thequint