फ़लस्तीन की चौहद्दी क्या है? क्या उसका प्रधानमंत्री भी अपनी मर्जी से कहीं आ-जा सकता है, बाकी लोगों की बात ही छोड़ दीजिए? फ़लस्तीन की ज़मीन कहाँ है? किसके कब्जे में है? ये सरल प्रश्न हैं। लेकिन कोई पूछता नहीं। कहा जाता है, यह मामला ज़रा पेचीदा है।
“देखो, पृथ्वी, हम सबसे ज़्यादा फिजूलखर्च निकले।” इज़रायली और यहूदी कथाकार डेविड ग्रॉसमैन ने 2006 में यित्ज़ाक राबिन स्मृति व्याख्यान में कवि शाउन चेर्नेकोव्स्की की 1938 की इस पंक्ति को उद्धृत किया। कवि का विषाद यह था कि इज़रायल की भूमि के भीतर हमने हर कुछ वक्त पर अपने जवानों को दफ़न किया है। नौजवानों की मौत भयानक, विक्षोभकारी बर्बादी है।
ग्रॉसमैन आगे कहते हैं जितना भयानक यह है, “उससे कम भयानक यह अहसास नहीं कि इज़रायली राज्य ने कई वर्षों से न सिर्फ अपने नौजवान बेटे-बेटियों की जिंदगियाँ मुजरिमाना तरीके से बर्बाद की हैं बल्कि उसे इस भूमि पर घटित एक चमत्कार को भी व्यर्थ कर दिया है, एक दुर्लभ अवसर जो इतिहास ने उसे प्रदान किया था, एक प्रबुद्ध, सुचारू जनतांत्रिक राज्य जो यहूदी और सार्वभौम मूल्यों के अनुसार गढ़ा जाएगा। एक देश जो राष्ट्रीय घर होगा और पनाहगाह। यह ऐसी जगह भी होगी जो यहूदी वजूद को नए मायने देगी। एक ऐसा देश जिसमें उसकी यहूदी पहचान का महत्वपूर्ण, अनिवार्य हिस्सा होगा गैर यहूदियों को पूरी बराबरी और इज्ज़त।”
उम्मीद तो यह थी। हुआ क्या? आगे ग्रॉसमैन कहते हैं, “और देखिए क्या हुआ! देखिए कि इस युवा, जीवंत देश, आवेगमय आत्मा से युक्त देश का क्या हुआ! कैसे एक तीव्र क्षरण में अपनी शैशवावस्था, बचपन और जवानी में ही इज़रायल पर कितनी तेजी से उम्र हावी हो गई और वह कैसे एक चिढ़, शिथिलता और खोए हुए अवसरों की चिरन्तन अवस्था में कैद हो गया।”
“यह कैसे हुआ? आखिर कब हमने वह उम्मीद भी खो दी कि हम किसी एक दिन एक बेहतर, अलग किस्म की ज़िंदगी जी सकेंगे? उससे भी अधिक, आखिर यह कैसे हुआ कि हम किनारे खड़े हो कर सम्मोहित देख रहे हैं जबकि फूहड़पन, बददिमागी, हिंसा और नस्लवाद ने हमारे घर पर कब्जा कर लिया है?”
इज़रायल को फटकार
डेविड ग्रॉसमैन को यह अफ़सोस करने का, अपने देश इज़रायल को जवानी में ही उसके पतन पर फटकारने का पूरा हक था। इसलिए नहीं कि इस व्याख्यान के कुछ पहले हेज़बुल्लाह के खिलाफ जंग में उनके 20 साल का बेटा युरी मारा गया था। वे शोक में बोल रहे हैं, यह मानकर उनके शब्दों को सह लेने की ज़रूरत नहीं, कथाकार ने अपने इज़रायली श्रोताओं को कहा।
हाँ! वे शोक में थे लेकिन शोक से ज़्यादा उन्हें इस बात से आघात लगा था कि इतने कम वक्फे में इज़रायल में हृदयहीनता, कमजोर, गरीब और पीड़ित के प्रति क्रूरता इस कदर भर गई थी। उसमें अरब अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ गहरा, सांस्थानिक नस्लवाद घर कर गया है।
आज फिर इज़रायल गाज़ा पट्टी पर लगातार बमबारी कर रहा है। उसके पक्ष में तर्क यह है कि वह अपनी रक्षा कर रहा है। क्या गाजा पट्टी से उस पर रॉकेट नहीं दागे जा रहे?
“हर देश को अपनी रक्षा का अधिकार है।”, क्या इस बात से कोई असहमत हो सकता है? इसमें ‘हर देश’ महत्वपूर्ण पद है। आज यह वाक्य इज़रायल के पक्ष में इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन अगर हर देश को रक्षा का अधिकार है तो वह जितना इज़रायल को है, उतना ही फ़लस्तीन को भी है। अगर इज़रायल पर हमला हो तो उसे ज़रूर जवाब देना चाहिए लेकिन अगर फ़लस्तीन पर हो?
फ़लस्तीन क्या मुल्क है?
और यहीं हम चक्कर खा जाते हैं। फ़लस्तीन? क्या फ़लस्तीन भी कोई देश है? “हाँ!” इसका सीधा जवाब है। वह एक मुल्क है। औपचारिक तौर पर 138 देशों ने उसे मान्यता दे रखी है। उनमें भारत भी एक देश है। भारत इज़रायल को भी एक देश मानता है, साथ ही फ़लस्तीन को भी। भारत के कई मित्रों ने अब तक उसे मान्यता नहीं दी है। जैसे अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस, जापान।
मुल्क होने की शर्त है सरहदों से घिरा एक भूभाग और उसपर उस मुल्क के लोगों का अधिकार। उस मुल्क में बिना किसी रोक-टोक कहीं भी आने-जाने की आज़ादी। अपने तरीके से अपनी हुकूमत चुनने की आज़ादी। अपना पासपोर्ट और अपनी सीमा में दूसरे मुल्कों को आने की इजाजत देने न देने का अधिकार।
यह सारा कुछ इज़रायल के पास है। फ़लस्तीन की चौहद्दी क्या है? क्या उसका प्रधानमंत्री भी अपनी मर्जी से कहीं आ-जा सकता है, बाकी लोगों की बात ही छोड़ दीजिए? फ़लस्तीन की ज़मीन कहाँ है? किसके कब्जे में है? ये सरल प्रश्न हैं। लेकिन कोई पूछता नहीं। कहा जाता है, यह मामला ज़रा पेचीदा है।
भारत की आज़ादी की लड़ाई
उतना पेचीदा भी नहीं। अपने ही देश से कुछ उदाहरण लें। खुदीराम बोस ने बम फेंका। प्रफुल्ल चाकी ने भी। मदनलाल धींगड़ा ने अंग्रेज अफ़सर को मार डाला। भगत सिंह ने भी। वे सब हिंसक कार्रवाइयां थीं। हम जैसे लोग इस तरीके से असहमत हों, कई लोग मानते हैं कि इन सबकी प्रतिक्रिया जायज़ थी। अंग्रेजों को हमारी ज़मीन पर आकर हमें घेर लेने और अपना मातहत बनाने का अधिकार न था। उनकी कानूनी हिंसा के जवाब में इस तरह के विस्फोट, भले ही हमें गलत लगें, अस्वाभाविक कतई न थे।
उनका दावा था कि वे हमसे अधिक श्रेष्ठ थे और उन्हें हमें अपना उपनिवेश बनाने का और अनुशासित करने का अधिकार था। हम इस दावे को ठीक ही मुजरिमाना मानते थे। वे इसे दैवी मानते थे। भारतीयों को हीनतर मनुष्य।
गाँधी को जब चम्पारण में सरकार का प्रवेश निषेध का फरमान मिला तो उन्होंने यही कहा, यह हमारा मुल्क है और इसमें कहीं आने-जाने के लिए मुझे किसी से अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं।
फर्ज कीजिए भगत सिंह ने धमाका न किया होता, अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ अलग-अलग तरीकों से प्रतिरोध न होता रहता, तो क्या भारत के अस्तित्व का दुनिया को पता भी चलता? अंग्रेजों ने भारत पर डाका डाला था और हम उसका ठीक ही विरोध कर रहे थे। उसी तरह फ़लस्तीन की ज़मीन पर डाका डाला गया है और यह डकैती दिन दहाड़े पिछले 70 साल से चल रही है।
बेगाने हो गए फ़लस्तीनी
पूरी दुनिया इसे देखते हुए खामोश है कि सदियों से जिस ज़मीन पर फ़लस्तीनी रहते चले आ रहे हैं, जहाँ उनके पुरखों के लगाए जैतून के दरख़्त खड़े हैं, यकायक यहूदी घुसकर उसपर कब्जा करते हैं, उन्हें उनके घरों से निकाल बाहर करते हैं, जैतून काट डालते हैं। फ़लस्तीनी उन्हीं की ज़मीन पर बेगाने किए जा रहे हैं। अपने ही मुल्क में आने-जाने के लिए उन्हें इज़रायलियों की इजाज़त की ज़रूरत पड़ती है।
आपके साथ अगर यह रोजाना हो तो क्या आप कभी फट नहीं पड़ेंगे? जितनी भी ताकत आपके पास हो उसी के साथ? क्या आप यह सोचकर कि डाकू कहीं ताकतवर है, निगाह झुकाए, लगातार अपने कदम पीछे खींचते रहेंगे? क्या फिर भी आप अपनी निगाह में इंसान रह जाएँगे?
गीडियन लेवी का लेख
डेविड ग्रॉसमैन से कहीं अधिक मुखर यहूदी लेखक और पत्रकार गीडियन लेवी अपने देश इज़रायल को मुजरिम मानते हैं। उनका कहना है कि जब तक रॉकेट न दागे जाएं दुनिया को गाज़ा का ख़्याल भी नहीं आता। फ़लस्तीन को भूमिविहीन कर देने के इज़रायल के षड्यंत्र और फ़लस्तीनियों को धूर्तता से अलग-अलग तरीके से बाँटते जाने की उसकी तिकड़म पर वे पिछले 30 साल से लगातार लिख रहे हैं। वैसे ही जैसे दूसरी यहूदी और इज़रायली पत्रकार आमिरा हास।
लेवी का कहना है कि इस वक्त दुनिया का सबसे बड़ा पिंजड़ा या कैदखाना गाजा पट्टी है। वह दरअसल एक कंसंट्रेशन कैंप है। गाजा के फिलस्तीनी जो रोजमर्रा का अपमान झेलते हैं, उसे देखते हुए रॉकेट दागे जाने पर जो हैरानी जता रहे है, लेवी उनकी ईमानदारी पर शक करते हैं। जिल्लत के इस दबाव का ही नतीजा ये विस्फोट हैं।
ताज्जुब इसका है कि दुनिया के सारे आधुनिक हथियारों के बावजूद इज़रायल हमास के आगे अभी भी असुरक्षित बना हुआ है। हमास के रॉकेट तकरीबन आदिम ज़माने के हैं। लेकिन उन्हीं के माध्यम से फ़लस्तीन अपना प्रतिरोध जाहिर कर रहा है।
बीजेपी समर्थक इज़रायल के साथ
भारत में बहुत सारे लोग ऐसे हैं और वे प्रायः बीजेपी की बहुसंख्यक राजनीति और विचारधारा के समर्थक हैं जो गाज़ा पर इज़रायली हमले पर खुशी जता रहे हैं। वे हस्पतालों, अखबारों के दफ्तरों पर बमबारी को उचित ठहरा रहे हैं। वे 39 बच्चों की हत्या, उनके साथ 140 फ़लस्तीनियों की हत्या पर खुशी जाहिर कर रहे हैं। इनके बारे में कुछ कहने की ज़रूरत नहीं।
लेकिन जो इज़रायल को समझना चाहते हैं, उन्हें लेवी, हास, अंशेल फैफेर, याइर आसुलिन को पढ़ना चाहिए। उन्हें हारेत्ज़ अखबार पढ़ना चाहिए। वह इज़रायल से ही निकलता है और उसके लेखक प्रायः यहूदी ही हैं। लेकिन वे आपको इज़रायल की क्रूरता, हिंसा, उसके नस्लवाद के बारे में खुलकर बताएँगे।
जाहिर है, वे इज़रायल में लोकप्रिय नहीं हैं। उन नौजवानों में जो अरब लोगों के खिलाफ हिंसा पर जश्न मनाते हुए, नाचते-गाते हुए देखे जा सकते हैं। लेवी ने कई बार बताया है कि एक समय ऐसा था कि वे भी मानते थे कि बेचारे इज़रायली ही नाइंसाफी के शिकार हैं। वे भी एक जियानवादी थे। वे भी इज़रायली श्रेष्ठता पर विश्वास करते थे।
फिर उन्होंने पश्चिमी तट के फ़लस्तीनियों की रोजमर्रा की ज़िंदगी देखनी शुरू की। गाज़ा जाना शुरू किया। और फिर वे जियानवादी नहीं रह गए। इस यहूदी ने तय किया कि वह अपने देश की नाइंसाफी के बारे में ही लिखेगा। सो, वे हर हफ्ते अब पश्चिमी तट जाते हैं क्योंकि गाज़ा जाना अब नामुमकिन कर दिया गया है।
वे मानते हैं कि हमास के रॉकेट से इज़रायलियों को खतरा है। अमन होना चाहिए। इज़रायल अमन चाहता है। लेकिन वह इंसाफ नहीं चाहता। वह दावा करता है कि वह जनतंत्र है लेकिन अरब लोगों को वह दोयम दर्जे पर रखना चाहता है। यह सीधा-सीधा नस्लभेद है। वही जिसके चलते दक्षिण अफ्रीका का सभ्य संसार ने बहिष्कार किया था।
तो क्या इज़रायल का नस्ल भेद इसलिए कबूल है कि उसके शिकार मुसलमान हैं? अगर यह नस्लभेद है तो फिर इज़रायल के साथ कारोबार कैसे हो सकता है?
ताज्जुब तो यह है कि बार-बार तबाह किए जाने के बावजूद फ़लस्तीन अपना वजूद जता पा रहा है। इस बार भी अधिक बर्बादी उसी की होगी। लेकिन क्या इज़रायल इसके बाद भी चैन से रह पाएगा? यहूदियों को फ़लस्तीन पर कब्जा करने में उनका समर्थन करने वाले यूरोप के देशों और अमेरिका ने जर्मनी में उनके दमन के बाद उनके मुँह पर अपने दरवाजे बंद कर दिए थे। अपने अपराध को छिपाने के लिए उन्होंने एक दूसरे सतत अपराध को जन्म दिया और उसका समर्थन कर रहे हैं।
ये संघर्ष नहीं है
लेकिन जो भी इंसाफ़ पसंद हैं, जो भी समानता और आज़ादी का पक्षधर है, वह फ़लस्तीन की तरफ से बोलने को मजबूर है। उसे कहना पड़ता है कि अभी जो हो रहा है उसे फ़लस्तीनियों और इज़रायलियों के बीच संघर्ष कहना बेईमानी है। ज़ुल्म का जवाब देने का हक बुनियादी इंसानी हक से है। उससे फ़लस्तीन की जनता को वंचित नहीं किया जा सकता।
फ़लस्तीन की ज़मीन चुरा ली जा सकती है लेकिन फ़लस्तीनियों के दिलों से उनके वतन का ख्वाब मिटाया नहीं जा सकता। अमेरिकी फ़लस्तीनी कवि नाओमी शिहाब नाई को पढ़िये और और खोए और खोजे जा रहे मुल्क का दर्द महसूस कीजिए:
क्या? तुम्हें अपने ही देश में अपना-सा नहीं लगता/
तकरीबन रातोंरात?
वे सारी सादा चीज़ें
जिनकी फिक्र करते थे तुम
शायद मान बैठे थे कि हैं ही हमेशा के लिए।।।
तुम महसूस करते हो
अपमानित, अदृश्य?
जैसे कि हो ही नहीं वहाँ?
लेकिन तुम तो हो।
जहाँ तुम पहले आज़ादी से घुलते-मिलते थे।।।
उन लोगों को सराह सकते थे
जो ठीक तुम्हारी तरह न थे।।।
इस याद के साथ फ़लस्तीन की रूह और उसकी आवाज़ महमूद दरवेश को पढ़िए यह समझने के लिए कि क्यों फ़लस्तीन मरना भूल गया है, क्यों वह ज़िंदा बचा हुआ है:
येरुशलम में, मेरा मतलब है, उन प्राचीन प्राचीरों के बीच मैं एक ज़माने से दूसरे ज़माने में चलता चला जाता हूँ बिना किसी याद के सहारे।।।
मैं नींद में चलता हूँ। मैं देखता हूँ नींद में। मैं देखता हूँ कोई मेरे पीछे नहीं । मैं किसी को अपने आगे नहीं देखता। यह रौशनी मेरे लिए है। मैं चलता हूँ ।मैं हल्का हो जाता हूँ। मैं उड़ता हूँ और फिर कोई और हो जाता हूँ। रूपांतरित। इसाया के दूत के मुँह से घास की तरह अँकुराते हैं शब्द:“अगर तुम यकीन नहीं करोगे तुम महफूज़ नहीं रहोगे।”
मैं चलता हूँ जैसे मैं कोई और हूँ। और मेरा ज़ख्म एक सफ़ेद बाइबिल का गुलाब। और मेरे हाथ जैसे जो कबूतर सलीब पर उड़ते हुए और पृथ्वी को ढोते हुए मैं चलता नहीं, मैं उड़ता हूँ, मैं कोई और हो जाता हूँ।
।।। कोई काल नहीं, न कोई स्थान, फिर कौन हूँ मैं फिर मैं सोचता हूँ , सिर्फ पैगंबर मोहम्मद ही क्लासिकी अरबी बोलते थे: “और फिर क्या?” फिर क्या? एक औरत फौजी चिल्लायी, “तो तुम फिर से यहाँ? क्या मैंने तुम्हें मार नहीं डाला था?” और मैं कहता हूँ, “तुमने मुझे मार डाला था और मैं तुम्हारी तरह ही मरना भूल गया था।
अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं।ये उनके निजी विचार हैं। सौज- सत्यहिन्दी