आख़िर यूपी में बीजेपी को क्यों लग रहा है हार का डर?

रविकान्त

योगी पहले मुख्यमंत्री हैं जिनके ख़िलाफ़ उनकी पार्टी के 100 से अधिक विधायक विधानसभा में धरना दे चुके हैं। कई विधायक कैमरे पर अपना विरोध जता चुके हैं। अगर बीजेपी उन्हें हटाती है तो निश्चित तौर पर वे बगावत कर बैठेंगे। उनका इतिहास भी ऐसा ही रहा है। कोरोना आपदा के बीच बीजेपी का मिशन यूपी 2022 कई सवाल पैदा करता है। क्या पंचायत चुनावों में खेत रही बीजेपी को विधानसभा चुनाव में हार का डर सता रहा है? आख़िर बीजेपी इतनी उतावली क्यों है? एक तर्क यह दिया जा सकता है कि चूँकि चुनाव अपने समय पर होते हैं, इसलिए तैयारी ज़रूरी है। सभी दल चुनावी तैयारी करते हैं तो बीजेपी के मिशन यूपी पर सवाल क्यों? 

बुनियादी सवाल है कि राम जन्मभूमि आंदोलन और हिंदुत्व की पहली प्रयोगशाला यूपी में बीजेपी को हार का डर क्यों सता रहा है? पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में विपक्षियों का सूपड़ा साफ करने वाली बीजेपी इतनी बेचैन क्यों है? इसका जवाब तलाशने के लिए बीजेपी की पिछली जीतों का विश्लेषण करना ज़रूरी है। 2017 का विधानसभा चुनाव ब्रांड मोदी, सांप्रदायिकता और सामाजिक इंजीनियरिंग के बलबूते जीता गया। 

दरअसल,  2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी की विदेशी यात्राओं से विदेशी पूँजी निवेश की आकांक्षा और बदलते नामों वाली योजनाओं के तय लक्ष्यों से उपजे सब्जबाग में मोदी ब्रांड छाया हुआ था। गोदी मीडिया भारत को आर्थिक महाशक्ति और विश्वगुरु बनाने में तत्पर था। अर्थव्यवस्था मज़बूत हो रही थी। 2014-15 में जीडीपी की विकास दर 7.5 से बढ़कर 2015-16 में 8.0 फ़ीसदी हो गई थी। इन प्रत्याशाओं के बीच हिंदुत्व के हार्टलैंड यूपी में बीजेपी को पहले ही मनोवैज्ञानिक बढ़त मिल चुकी थी। विपक्षी हारे मन से बीजेपी का मुक़ाबला करने के लिए मैदान में थे। ‘यूपी को साथ पसंद है’ जैसे नारे के साथ अखिलेश यादव और राहुल गांधी एक मोर्चे पर थे। 

सामाजिक न्याय को भुलाकर सर्व समाज की राजनीति का दावा करने वाली मायावती दूसरे मोर्चे पर थीं। उन्होंने बीजेपी के हिंदू सांप्रदायिक कार्ड के मुक़ाबले अल्पसंख्यकों को अपने पक्ष में करने के लिए मुसलमानों को 100 से अधिक टिकट दिए। लेकिन चुनाव परिणामों में विरोधी हवा में ताश के पत्तों की तरह बिखर गए। सपा- कांग्रेस गठबंधन को 54 और बसपा को केवल 19 सीटें प्राप्त हुईं। जबकि बीजेपी ने 403 में से 324 सीटों पर ऐतिहासिक जीत दर्ज की।

अब 2019 के लोकसभा की बारी थी। अब तक काफ़ी कुछ बदल चुका था। भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने के मीडिया द्वारा दिखाए गए सब्जबाग की हक़ीक़त सामने आने लगी थी। 2016 में घोषित नोटबंदी ने गांवों और 2017 में लागू जीएसटी ने शहरी क्षेत्रों को उजाड़ दिया। नोटबंदी से असंगठित क्षेत्र की कमर टूट गई। जबकि जीएसटी के अविवेकपूर्ण कार्यान्वयन ने उत्पादन का बाज़ार में पहुँचना ही रोक दिया। इन दोनों योजनाओं का आर्थिक प्रक्रिया पर गहरा प्रभाव पड़ा। देश की अर्थव्यवस्था डांवाडोल होने लगी। महंगाई, बेकारी और ग़रीबी बढ़ने लगी। मोदी सरकार नवरत्न कंपनियों को बेचकर ख़र्च चला रही थी। बैंक दिवालिया होने लगे। लेकिन नीरव मोदी और विजय माल्या जैसे डिफाल्टरों को कर्ज दिया जा रहा था; जो बाद में देश छोड़कर भाग गए। अंबानी और अडानी की संपत्ति कुलांचें भर रही थी। 

मोदी पर कारपोरेट को फायदा पहुँचाने के आरोप लग रहे थे। किसानों की आत्महत्याएँ बढ़ रही थीं। ऐसे में 2019 के लोकसभा चुनाव आ गए।

मोदी सरकार की नाकामी से विपक्षी मुतमईन तो थे लेकिन आपस में उनकी कोई समझदारी नहीं थी। इसके बाद 14 फ़रवरी को पुलवामा में आतंकी हमला हुआ, जिसमें 39 भारतीय सैनिक शहीद हुए। फिर इसके जवाब में 26 फ़रवरी को पाकिस्तान के बालाकोट में एयर स्ट्राइक हुई। मीडिया, सोशल मीडिया और चौक-चौराहों पर पाकिस्तान के बहाने मुसलमानों को खलनायक बनाया जाने लगा। अब चुनाव पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता पर केंद्रित हो गया। 2019 में मोदी को पिछले चुनाव के 282 के मुक़ाबले 303 सीटें प्राप्त हुईं।

यूपी में बीजेपी का सीधा मुक़ाबला सपा बसपा गठबंधन से था। इस गठबंधन को दलित, पिछड़े और मुसलमानों के एकजुट होने के रूप में देखा गया। लेकिन यह सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दो नेताओं का गठजोड़ साबित हुआ। ज़मीन पर दलित और पिछड़ों का रसायन तैयार नहीं हो सका। बीजेपी ने गठबंधन पर हमला बोलते हुए कहा कि दोनों परिवारवादी और भ्रष्ट राजनीतिक पार्टियाँ, डूबने से बचने के लिए साथ आ गईं। अन्य कमजोर दलित पिछड़ी जातियों के मुखौटों को आगे करके बीजेपी ने इनका वोट हासिल किया। नतीजा यह हुआ कि सपा को 5 और बसपा को 10 सीटें प्राप्त हुईं। जबकि बीजेपी ने सर्वाधिक 62 सीटें जीतीं।

अब सवाल यह है कि क्या बीजेपी हिंदुत्व के हार्टलैंड यूपी को जीत पाएगी? दरअसल, बीजेपी-संघ यूपी को किसी भी क़ीमत पर नहीं गँवाना चाहते क्योंकि यूपी की पराजय 2024 के लिए वाटरलू साबित हो सकती है। यही कारण है कि बीजेपी-संघ पूरी गंभीरता से चुनाव की तैयारी में जुट गए हैं। 

चुनाव विश्लेषक और पत्रकार इस चुनाव को बहुत गंभीरता देख रहे हैं। चुनाव विश्लेषक अंकगणित के सहारे कहते हैं कि बीजेपी के लिए यूपी जीतना बहुत मुश्किल नहीं है। उनका तर्क है कि 28 फ़ीसदी वोट पाकर 2007 में बीएसपी ने और 27 फ़ीसदी वोट हासिल करके 2012 में सपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। जबकि लोकसभा चुनाव में बीजेपी को यूपी में ऐतिहासिक 50 फ़ीसदी से अधिक वोट मिला था। 18 फ़ीसदी सवर्ण मूलाधार वाली बीजेपी के लिए 30 फ़ीसदी वोट हासिल करके सत्ता प्राप्त करना बहुत कठिन नहीं है। लेकिन अंकगणित और सामाजिक रसायन में कई बार बहुत फासला होता है। अगर अंकगणित से ही जीत होती तो लोकसभा चुनाव में सपा बसपा गठबंधन को कोई नहीं हरा सकता था। यूपी में केवल जाटव (10), यादव (9) और मुस्लिम (18) मिलकर ही 37 फ़ीसदी वोट होते हैं।

बहरहाल, बीजेपी के सामने आज कई चुनौतियाँ हैं। अब ब्रांड मोदी की हवा निकल चुकी है। नोटबंदी, जीएसटी से देश पहले ही मंदी की चपेट में आ चुका है। कोरोना आपदा की कुव्यवस्था ने लोगों की ज़िंदगी को ही ख़तरे में डाल दिया है। महंगाई चरम पर है। बेकारी बढ़ती जा रही है। देश ग़रीबी और भुखमरी की कगार पर आ गया है। मध्यवर्ग की कमर टूट चुकी है। यही कारण है कि अमेरिकी सर्वे एजेंसी मॉर्निंग कंसल्ट के अनुसार, मोदी का कट्टर समर्थक रहे शहरी मध्यवर्ग में मोदी की लोकप्रियता में 22 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज हुई है। रायटर्स और सी-वोटर के सर्वे में भी मोदी की लोकप्रियता तेज़ी से घटी है।

बीजेपी की दूसरी चुनौती योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली है। गोरखपुर मठ के महंत योगी प्रदेश को एक मठाधीश के ही अंदाज़ में चला रहे हैं। योगी अपने विश्वस्त प्रशासनिक अधिकारियों के सहारे यूपी को संभाल रहे हैं। यहाँ मंत्रियों और बीजेपी विधायकों की भी नहीं सुनी जाती। योगी पहले मुख्यमंत्री हैं जिनके ख़िलाफ़ उनकी पार्टी के 100 से अधिक विधायक विधानसभा में धरना दे चुके हैं। कई विधायक कैमरे पर अपना विरोध जता चुके हैं। योगी का तानाशाहीपूर्ण रवैया बीजेपी के लिए सबसे बड़ी बाधा है। अगर बीजेपी उन्हें हटाती है तो निश्चित तौर पर वे बगावत कर बैठेंगे। उनका इतिहास भी ऐसा ही रहा है। 

योगी के कारण बीजेपी के कोर वोटों में भी दरार पड़ गई है। योगी खुले तौर पर ठाकुरवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। इससे प्रदेश का 10 फ़ीसदी ब्राह्मण नाराज़ है। कई ब्राह्मणों की हत्या से भी विरोध उपजा है।

इतना ही नहीं, बड़े-बड़े प्रशासनिक पदों से लेकर थानों में तैनात दरोगा भी अधिकांश ठाकुर जाति के हैं। 

बीजेपी के लिए एक चुनौती पश्चिमी यूपी है। कभी यह उसका गढ़ हुआ करता था। किसान आंदोलन और महा पंचायतों के कारण यहाँ बीजेपी की स्थिति बहुत ख़राब हो गई है। अगर कृषि बिल वापस नहीं हुए तो पश्चिमी यूपी में बीजेपी का खाता खुलना भी मुश्किल हो जाएगा। 

दरअसल, पश्चियी यूपी का 15 फ़ीसदी जाट (पूरी यूपी में 7 फ़ीसदी) सीधे किसान आंदोलन से जुड़ा है। 2013 के मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक दंगों के बाद परंपरागत जाट मुस्लिम एका बिखर गया था। इसका फायदा बीजेपी को पहले 2014, फिर 2017 और 2019 के चुनावों में मिला। लेकिन किसान आंदोलन के कारण यह एका फिर से मज़बूत हुआ है। हालिया पंचायत चुनावों में बीजेपी को पश्चिमी यूपी से लेकर काशी, मथुरा और अयोध्या में भी हार का सामना करना पड़ा है। इसलिए कहा जा सकता है कि जनता की नाराज़गी किसी भी अंकगणित पर भारी पड़ सकती है। 

बीजेपी-संघ के पास सिर्फ़ एक ही जिताऊ नुस्खा है- हिन्दुत्व की राजनीति और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण। अब यह दिखने भी लगा है। हाल ही में बाराबंकी में प्रशासन द्वारा अवैध निर्माण के आरोप में एक मस्जिद को तोड़ दिया गया और प्रबंध समिति के 7 सदस्यों के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज किया गया। एक सप्ताह पहले मुरादाबाद में शाकिर नाम के एक मुस्लिम नौजवान को स्वयंभू गौरक्षकों ने पीट-पीटकर मार डाला। अभी ऐसी घटनाएँ बढ़ेंगी। फिर सरकारी बना मीडिया इन घटनाओं को लगातार चलाएगा। महामारी की आपदा, अव्यवस्था और आर्थिक तंगी झेल रहे लोगों को सांप्रदायिक उन्माद में फँसाने की कोशिश होगी। लेकिन सबसे मौजूँ सवाल यह है कि स्याह हो चुकी इस पूरी व्यवस्था के बाद भी क्या गोदी मीडिया द्वारा प्रायोजित नैरेशन चल पाएगा? एक सवाल और। क्या कोरोना आपदा के बावजूद आस्था, धर्म, पाखंड, कट्टरता, नफ़रत और हिंसा चुनावी हथियार बने रहेंगे। आखिर रोटी, रोज़गार, दवाई, पढ़ाई जैसे बुनियादी सरोकार कब चुनावी मुद्दे बनेंगे?

लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं। सौज- सत्यहिन्दी

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