कोविड महामारी के भारत में दस्तक देने के बाद इस बीमारी का इलाज खोज निकालने का दावा करने वालों में बाबा रामदेव शायद सबसे पहले व्यक्ति थे. बाबाओं के क्लब के अग्रणी सदस्य बाबा रामदेव, सत्ता प्रतिष्ठानों के नज़दीक हैं. उन्होंने अपने गुरु से योग सीखा और योग शिक्षक से रूप में लोकप्रियता हासिल की. बाद में वे दवाईयां बनाने लगे, जिनमें गौ उत्पाद शामिल थे. इस समय उनकी कम्पनी देश के बड़े कॉर्पोरेट हाउसों में शामिल है. उनके साथी आचार्य बालकृष्ण, उनकी कम्पनी पतंजलि आयुर्वेद में साझेदार हैं. देश की दवा कम्पनियों में पतंजलि एक बड़ा नाम है. रामदेव और बालकृष्ण कितने पढ़े-लिखे हैं, इस बारे में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है.
बाबा ने कोरोना के इलाज के रूप में कोरोनिल को प्रस्तुत किया. इस दवा ने पूरे देश का ध्यान खींचा. पहले कहा गया कि कोरोनिल को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अनुमोदित किया है. बाद में इस दावे को कुछ संशोधित करते हुए बताया गया कि कोरोनिल को विश्व स्वास्थ्य संगठन के ‘मार्गनिर्देशों के आधार पर’ बनाया गया है. यह दावा भी किया गया कि इस दवा से कोविड का मरीज़ सात दिनों में ठीक हो जायेगा. कोरोनिल की प्रभावोत्पादकता को साबित करने के लिए एक अध्ययन का हवाला दिया गया. बाद में पता चला कि इस कथित अध्ययन में कोई दम नहीं था. यह दिलचस्प है कि कोरोनिल के लांच के अवसर पर दो केंद्रीय मंत्री मंच पर मौजूद थे.
पिछले एक साल में इस खतरनाक बीमारी के कई इलाज सामने आ चुके है. आयुष मंत्रालय ने नथुनों में तिल या नारियल का तेल अथवा गाय का घी लगाने का सुझाव दिया. कुछ लोगों ने भाप लेने की बात कही. मालेगांव बम धमाके मामले में आरोपी और भोपाल से लोकसभा सदस्य प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने दावा किया कि गौमूत्र का सेवन करने के कारण वे कोरोना से बची हुईं हैं. मध्यप्रदेश की संस्कृति मंत्री उषा ठाकुर का कहना था कि हवन लोगों को कोरोना से सुरक्षा देता है.
स्वामी चक्रपाणी महाराज ने गौमूत्र सेवन और गोबर लेपन को प्रोत्साहन देने के लिए गौमूत्र पार्टी का आयोजन किया. ऐसा ही कुछ गुजरात में कुछ साधुओं द्वारा भी किया जा रहा है. इस सिलसिले में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री का बयान गज़ब का था. उन्होंने आम लोगों को कुम्भ स्नान के लिए आमंत्रित करते हुए कहा कि दैवीय शक्तियां पवित्र स्नान करने वालों की रोगों और हर प्रकार की मुसीबतों से रक्षा करेंगीं. यह अलग बात है कि कुछ साधु कुम्भ के दौरान ही कोरोना से पीड़ित होकर अपनी जान गँवा बैठे और कुछ अन्य इस रोग के वायरस लेकर अपने-अपने स्थानों को सिधारे.
इस तरह की सोच की गंगोत्री का प्रवाह प्रधानमंत्री से शुरू हुआ जिन्होंने पिछले साल अप्रैल में पांच बजे, पांच मिनट तक थालियाँ और बर्तन पीटने का और नौ बजे नौ मिनट तक मोमबत्तियां और मोबाइल की लाइट जलाने का आव्हान किया था.
भाजपा के एक अन्य परमज्ञानी नेता संकेश्वर ने हाल में यह रहस्योद्घाटन किया कि नाक के जरिये नींबू का रस पीने से खून में ऑक्सीजन के स्तर में 80 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है. उनके अनुसार, अपने 200 रिश्तेदारों और मित्रों पर किये गए अध्ययन से वे इस नतीजे पर पहुंचे.
कुल मिलाकर, ऐसे दावे किए जा रहे हैं और ऐसी बातें कही जा रहीं हैं जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. विज्ञान सत्य का संधान करने के लिए विस्तृत कार्यपद्धति अपनाता है. इस समय जिस तरह के दावे किये जा रहे हैं वे आस्था और सामान्य समझ पर आधारित हैं. गाय हमारे वर्तमान सत्ताधारियों के लिए एक राजनैतिक प्रतीक रहा है. उसके मूत्र और गोबर में रोग प्रतिरोधक ही नहीं वरन रोग को हरने की क्षमता भी है, ऐसा दावा किया जा रहा है. पशुविज्ञान हमें बताता है कि मूत्र और गोबर, पशुओं के शरीर के अपशिष्ट पदार्थ होते हैं और वे मनुष्यों के शरीर को लाभ पहुंचा सकते हैं इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है.
गाय के शरीर में 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास है, यह भी आस्था पर आधारित दावा है जिसका प्रचार-प्रसार सत्ताधारी दल द्वारा किया जा रहा है. यज्ञ और उसमें दी जाने वाली आहुति के सम्बन्ध में भी कई तरह की बातें कही जा रही हैं. भाजपा के पितृ संगठन के स्वयंसेवक हवन आदि करने की विधियों का प्रचार करने में जुटे हुए हैं.
इसी बीच, बाबा रामदेव ने एलोपैथी को मूर्खतापूर्ण और दिवालिया विज्ञान निरुपित किया. इस पर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने जबरदस्त विरोध जताया. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री के पत्र के बाद रामदेव ने अपना बयान वापस ले लिया है. ये वही बाबा रामदेव हैं जो कुछ दिनों के उपवास के बाद आईसीयू में भर्ती रहे थे. उनके साझेदार बालकृष्ण हाल में एक एलोपैथिक अस्पताल में भर्ती थे.
सम्प्रदायवादी हिंदुत्व राजनीति के उदय के साथ ही पिछले कुछ दशकों से आस्था पर आधारित अतार्किक बयानों औए नीतियों की बाढ़ आ गई है. धार्मिक राष्ट्रवाद हमेशा जातिगत और लैंगिक पदक्रम के पूर्व-प्रजातांत्रिक मूल्यों का हामी रहता है. प्रजातान्त्रिक समाज के उदय के साथ ही अंधश्रद्धा और अंधविश्वासों के खिलाफ संघर्ष शुरू हो गया था. यही कारण है कि पश्चिमी देशों के प्रजातान्त्रिक समाजों में अंधश्रद्धा, अंधविश्वासों और अतार्किक व पश्चगामी आचरणों के लिए न के बराबर स्थान बचा है.
भारत में भी राष्ट्रीय आन्दोलन के उदय और महिलाओं और दलितों से सम्बंधित सामाजिक सुधारों के साथ ही वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा मिला. स्वाधीनता आन्दोलन समाज में तार्किकता को बढ़ाने वाला था. इसके विपरीत, धार्मिक राष्ट्रवाद में यकीन करने वाले न केवल समाजसुधार और औपनिवेश-विरोधी संघर्ष के खिलाफ थे वरन वे वैज्ञानिक सोच के भी विरोधी थे. उनका जोर आस्था पर था क्योंकि आस्था ही समाज में असमानता को वैधता प्रदान कर सकती थी.
हमारा संविधान राज्य से अपेक्षा करता है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रोत्साहन को वह अपनी नीति का अंग बनाए. विघटनकारी राष्ट्रवाद के उदय के साथ ही तार्किक सोच पर हमले तेज हुए हैं. डॉ दाभोलकर, कामरेड पंसारे, एमएम कलबुर्गी और गौरी लंकेश ही हत्या इसी का नतीजा है. हमारे सत्ताधारियों की पूरे विचारधारा ही आस्था और अंधश्रद्धा पर आधारित है. आश्चर्य नहीं कि महामारी के सम्बन्ध में भी अवैज्ञानिक बातें कही जा रही हैं. ये बातें महामारी से मुकाबले करने में बाधक है. रामदेव और उनके जैसे अन्य, आस्था-आधारित ज्ञान के पिरामिड के शीर्ष पर विराजमान हैं परन्तु उनके नीचे असंख्य ऐसे लोग हैं जो इस तरह की चीज़ों का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं. हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना होगा. बर्तन ठोकने और लाइटें जलाने-बुझाने से कुछ होने वाला नहीं है.
लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित है (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (