यह वेब सीरीज़ लालू यादव-राबड़ी देवी की कहानी नहीं है, लेकिन उनकी जैसी राजनीति को क़रीब से देखने का प्रयास किया गया है। यह सीरीज़ लोगों को बिहार की वह पीड़ा दिखलाने में सहायक हुई है, जो बिहार की बहुसंख्यक दलित, मुस्लिम और पिछड़ी जातियों ने भोगी थी।लोकतंत्र में राजनीति अब किसी की विरासत नहीं बची है, वह एक ऐसा खेल है जिसमें एक राजनेता को लोक कल्याण के लिए भी कई तरह के खेल खेलने पड़ते हैं और नाच भी नाचना पड़ता है। विधायिका में अपने अनुरूप बहुमत जुटाये रखने के लिए उसी खेल का सहारा लेना पड़ता है जिसके लिए कई बार उसे वितृष्णा भी होती है। किंतु याद रखना चाहिए यह लोकतंत्र ही है, जिसने हर मूक को वाणी दी। अन्यथा सामंती काल में तो सिर्फ़ ‘राजा का बाजा’ बजाना पड़ता था।
हाल ही में सोनी लिव पर आई वेब सीरीज़ ‘महारानी’ इस राजनीति के खेल को काफ़ी नज़दीकी से देखती है। कुल दस कड़ियों की इस वेब सीरीज़ ने एक राज्य की राजनीति, नेता और सांवैधानिक पद पर बैठे महामहिम के करप्शन को बेहतर तरीक़े से उघाड़ा है। हालाँकि इसमें राज्य के रूप में बिहार की कल्पना की गई है पर वह देश का कोई भी राज्य हो सकता है। और अस्सी से शुरू हुई एक नए राजनीतिक परिदृश्य का खुलासा भी।
मैंने कल शाम पाँच बजे के आसपास सोनी लिव पर महारानी वेब सीरीज़ देखनी शुरू की तो उसके मोह-पाश में बँधता ही चला गया। एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी कड़ी। इस तरह उत्सुकता बढ़ती ही गई और मैंने एक साथ उसकी सारी दस सीरीज़ एक सिटिंग में ही देख डालीं। और पाँच बजे से रात साढ़े बारह बजे तक मैं एक ही जगह बैठा महारानी को देखता रहा। इसके बाद मेरे मुँह से एक ही शब्द निकला- अद्भुत!!!
मैंने फ़ौरन मुंबई में अपने साथी उमा शंकर सिंह को फ़ोन किया, और कहा कि उमा तुम कमाल के लेखक हो। तुम्हारा विज़न, लेखन-शक्ति और समाज की वास्तविकताओं को पहचानने में तुम्हारा सानी नहीं। मैंने यह भी नहीं सोचा कि रात साढ़े 12 बजे किसी को फ़ोन करना, सिर्फ़ यह बताने के लिए कि तुमने बहुत बढ़िया लिखा है, कहाँ का शिष्टाचार है। ठीक है उमा से मेरे अनौपचारिक रिश्ते हैं, उसने मेरे साथ काम ही नहीं किया है, बल्कि छोटे भाई जैसा है। एक बार जब मैं दिल्ली से मेरठ अमर उजाला का संपादक हो कर चला गया, तब उमा दिल्ली से मुंबई चला गया था, सिनेमा-जगत में अपना कौशल दिखाने। एक साल बाद वह दिल्ली आया तो बस पकड़ कर मेरठ भी आया और सारी रात सिनेमा में वास्तविक जीवन को दिखाती फ़िल्मों के भविष्य पर अपन बात करते रहे।
अब आते हैं महारानी वेब-सीरीज़ पर। बिहार के बारे में 1975 तक मेरे दिमाग़ में एक ऐसे अराजक स्टेट की छवि बनी थी। जहाँ बड़े-बड़े नरभक्षी ज़मींदार हैं। आपको याद दिला दूँ कि रविवार पत्रिका में 1979 में एक कवर स्टोरी थी- पलामू का आदमखोर! जिसमें बताया गया था कि कैसे एक कांग्रेसी नेता ने वहाँ हज़ारों एकड़ ज़मीन पर अपना अधिपत्य फैला रखा है और उसके अत्याचारों का विरोध करने पर वह लोगों को मार देता है। इसके बाद मैंने 1980 में कल्याण मुखर्जी और राजेंद्र यादव की एक पुस्तक पढ़ी, ‘भोजपुर: बिहार में नक्सलवादी’। इसे पढ़ कर महसूस हुआ कि बिहार में जातिवाद ने किस तरह से कुछ जातियों को सामाजिक हायरार्की का पुरोधा बना दिया है। इन तथाकथित अगड़ी जातियों के पास खेती भले एक या आधा एकड़ हो, लेकिन गाँव में वे किसी भी मझोले या संपन्न पिछड़ी जाति के काश्तकारों के साथ उनका व्यवहार अपमानजनक होता है तथा दलितों के तो घर-परिवार पर भी वह अपना हक़ समझते हैं। उनके साथ सदैव नीचा व्यवहार और ओछे शब्दों का प्रयोग कॉमन है। इसी बीच 1980 की दिसंबर में मुझे दैनिक जागरण की तरफ़ से भागलपुर आँख फोड़ो कांड को कवर करने भेजा गया। सुबह चार बजे कानपुर से विक्रमशिला एक्सप्रेस पकड़ी और शाम क़रीब साढ़े सात बजे भागलपुर पहुँचे। मेरे साथ हमारे फ़ोटोग्राफ़र राम कुमार सिंह भी थे। मैंने पाया कि अपराधी बता कर जिनकी आँखें फोड़ी गईं वे सभी पिछड़ी जातियों के यादव और जिन पुलिस वालों ने आँखें फोड़ीं वे सभी अगड़ी जातियों के थे विशेषकर सिंह साहिबान। यूँ भी पुलिस फ़ोर्स में इन्हीं की संख्या अधिक है।
भागलपुर में डीआईजी से लेकर एसपी तक तथा मंडलायुक्त से लेकर डीएम तक सबने पहले तो यह पूछा कि आप किस जाति के हैं और कहाँ से आए हैं? तब मैं अपना नाम सिर्फ़ शंभूनाथ ही लिखता था और बताता भी यही था। शुक्ल तो मेरे जनसत्ता आने पर जोड़ दिया गया। जब मैं अपनी जाति का खुलासा करता तो फ़ौरन अधिकारियों का रवैया घरेलू हो जाता और वे गाहे-बगाहे अपराध की दुनिया में पिछड़ी जातियों को गिनाने लगते। और उम्मीद करते कि शुक्ल होने के कारण मैं उनका ही पक्ष रखूँगा। परंतु वहाँ के मशहूर सर्वोदयी नेता रामजी भाई ने एक अलग कहानी बताई। लेकिन बिहार के बारे में यह पक्का हो गया कि यहाँ जो भी नक्सलवाद उभर रहा है, उसकी कोख में जाति और भूमि का असमान बँटवारा है। फिर अस्सी के दशक में लालू यादव का उभार हुआ। जब वे विपक्ष में थे तब भी और जब सत्ता में आए तब भी मीडिया में उनकी छवि एक ऐसा नेता के तरह पेंट की गई, जो औपचारिक शिष्टाचार (प्रोटोकोल) से परे है और जिसने मुख्यमंत्री के पद को मज़ाक़ बना दिया है। एक तरह से नॉन-सीरियस नेता। लेकिन अपनी इसी छवि के बूते लालू यादव पिछड़ों, मुसलमानों और दलितों के बीच मज़बूत होते चले गए। 1990 के बाद 1995 में भी वे मुख्यमंत्री बने। उसके बाद चारा-घोटाला में उनको जेल हो जाने के कारण उन्होंने अपनी जगह अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनवा दिया। राबड़ी देवी भी तीन बार मुख्यमंत्री रहीं। किंतु इस दम्पति के कार्यकाल को मीडिया ने घोर पिछड़ावादी और अपराधियों को संरक्षण देने वाला कार्यकाल बताया। इसके बाद नीतीश कुमार आए। ये भी स्वयं तो पिछड़ी जाति से थे किंतु इनकी कार्यशैली अगड़ों जैसे राजनीतिक शिष्टाचार को फ़ालो करने वाली थी। इसीलिए अगड़ों ने इन्हें सिर-माथे लिया। इसी दौरान शूल, गंगाजल और अपहरण जैसी फ़िल्मों ने भी देश के जन-मानस में लालू-राबड़ी देवी की छवि को ख़राब करने में बड़ी भूमिका निभाई।
लेकिन यह महारानी वेब-सीरीज़ लोगों को बिहार की वह पीड़ा दिखलाने में सहायक हुई है, जो बिहार की बहुसंख्यक दलित, मुस्लिम और पिछड़ी जातियों ने भोगी थी। इन जातियों के किसी राजनेता को कैसे सत्ता-संतुलन के लिए एक राजनेता को उल्टे-सीधे समझौते करने पड़ते हैं, इसका काफ़ी नज़दीक से देखने का प्रयास किया गया है। हालाँकि यह वेब सीरीज़ लालू यादव-राबड़ी देवी की कहानी नहीं है, लेकिन उनकी जैसी राजनीति को क़रीब से देखने का प्रयास किया गया है।
इस सीरीज़ में एक आम घरेलू और अनपढ़ स्त्री की व्यथा को भी उकेरा गया है। परिस्थितियाँ उसे मुख्यमंत्री बना देती हैं लेकिन वह तो ‘लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर’ (अनपढ़) है। जो स्त्री अपना शपथ-पत्र नहीं पढ़ पाती उसी का जब आत्म-सम्मान जागता है तो वह अपने गँवई अंदाज़ में विपक्ष के नेता का मुँह बंद करा देती है। उसके बाद जो घटनाओं का सिलसिला चलता है, उसमें वह अपनी पति, जो स्वयं मुख्यमंत्री था, को भी जेल भेजने में गुरेज़ नहीं करती। “थोड़ी हक़ीक़त और थोड़ा फ़साना” के ज़रिए यह वेब सीरीज़ कुल दस कड़ियों में बेमिसाल संदेश दे जाती है।
यह वेब सीरीज़ ‘जॉली एलएलबी’ फ़िल्म और उसका सीक्वल बनाने वाले सुभाष कपूर ने बनाई है। और मुख्य भूमिका में हैं हुमा क़ुरैशी, जिन्होंने एक सामान्य गृहणी और फिर संयोग से बनी मुख्यमंत्री का अद्भुत रोल किया है। यह कहना ग़लत न होगा कि उन्होंने इस महारानी में जान डाल दी। इसे लिखा है बिहार को क़रीब से समझने वाले उमाशंकर सिंह ने। एडीशनल स्क्रीनप्ले और डायलॉग भी उन्हीं के हैं। इस कहानी को विकसित किया है सुभाष कपूर और नंदन सिंह ने। दस कड़ियों की प्रत्येक सीरीज़ क़रीब पौन घंटे की है। सीरीज़ का निर्देशन करण शर्मा का है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) सौज- न्यूजक्लिक