भारत ने 41 वर्षों बाद आखिर हॉकी मं पदकों के सूखेसे निजात पाते हुए टोक्यो ओलंपिक में कांस्य पदक जीता। हर भारतीय के लिए एक लम्बे अरसे के बाद मिला यह कांसा भी स्वर्ण से कम नहीं है और हर हॉकी प्रेमी को इस जीत के साथ ही एक अरसे बाद जीत के नशे का एहसास हो रहा है। हमारे जैसे अनेक लोगों के मन में बरसों से दबी जीत की वो कसक को आज जैसे एक झटके में जश्न और अरमानों के पंख लग गए। इस जीत के साथ ही सभी के जे़हन में चार दशक पूर्व के स्वर्णिम दौर की यादें भी ताजा हो गई हैं।
वो दौर था जब हॉकी अपने पूरे शबाबा पर होती थी। उल्लेखनीय है कि उस स्वर्णिम दौर में तात्कालीन मध्यप्रदेश का भी योगदान हुआ करता था जिसमें आज का छत्तीसगढ़ शामिल हुआ करता था । शिवाजी पवार, असलम शेर खां जैसे खिलाडियों के साथ ही छत्तीसगढ़ के एरमन आर. बेस्टियन, लेजली क्लाडियस, विसेंट लकड़ा का नाम भी स्वर्ण विजेता टीम से जुड़ा होना गर्व और मिसाल की बात हुआ करती थी। उस दौर में छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव और जशपुर हॉकी के लिए पूरे देश में जाने जाते रहे। इन दिग्गज खिलाडियों और स्वर्णिम इतिहास के चलते ही बाद के दौर में भी छत्तीसगढ़ से पुरुषों के साथ साथ नीता डूमरे, सबा अंजुम आदि ने भी महिला हॉकी में छत्तीसगढ़ के खिलाड़ियों ने लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज कराई । कुछ नाम छूट भी गए होंगे उसकी माफी….
तब हॉकी के प्रति लोगों का जुड़ाव जुनून की हद तक हुआ करता था। एक लम्बी ऐतिहासिक उपलब्धियों की विरासत और राष्ट्रीय खेल के चलते हॉकी जन जन के बीच लोकप्रियता के चरम पर थी। रायपुर भी इससे अछूता नहीं था। तब रायपुर के ऐथलेटिक क्लब राष्ट्रीय हॉकी टूर्नामेंट में देशभर के सभी अंतर्राष्ट्रीय खिलाडियों भाग लिया करते थे और शहर वालों को तमाम अंतर्राष्ट्रीय खिलाडियों को खेलते देखने का सौभाग्य मिलता था।
मुझे याद है 1975 का विश्वकप जीतने के बाद अशोक,गोविंदा,ज़फर इकबाल की फारवर्ड तिकड़ी एवं कप्तान अजित पाल सिंह और शिवाजी पवार,असलम शेर खां. सुरजीत सिंह, माइकल किंडो जैसे स्टार खिलाडियों के साथ विजेता भारतीय टीम पूरे देश में प्रदर्शन मैच खेलने भ्रमण पर निकली थी। अपने भ्रमण के दौरान यह विजेता टीम रायपुर भी आई थी । कोटा स्टेडियम में मैच देखने मैं तो क्या पूरा शहर उमड़ पड़ा था। तब मैं जुम्मा जुम्मा मिडिल क्लास में ही गया था।
मेरे लिए यह सौभाग्. की बात है कि तब हमारे स्कूल, सैंट पॉल्स स्कूल रायपुर, में अशोक, मेजर ध्यानचंद को विशेष तौर पर आमंत्रित कर उनका सम्मान किया गया था। मेरे जीवन की यह अविस्मरणीय यादों में है जिसे मैं कभी भूल नहीं सकता। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि खेलों में जीत और उस पर भी गरिमामय अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्पर्धाओं में जीत का युवा मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। ये विश्व कप जीत का उत्साह और नशा ही था कि हमारी पीढ़ी के नौसिखियों में हॉकी का जुनून सर चढकर बोलने लगा था। मगर उसके बाद हॉकी के मैदानों को ही एस्ट्रो टर्फ में बदल दिया गया।
मैं आज भी यह मानता हूं, यह मेरी निजी राय ही है, कि एस्ट्रो टर्फ और नियमों में आमूल चूल बदलाव एशियाई दिगगजों भारत, पाकिस्तान, मलेशिया जैसे देशों के साथ अंतर्राष्टीय साजिश के तहत किया गया। इस एस्ट्रो टर्फ के आने के बाद ही हॉकी में सभी एशियाई देशों के प्रदर्शन में लगातार गिरावट आती चली गई । ड्रिबलिंग और छकाने वाली कलात्मक हॉकी अचानक पावर और स्टेमिना गेम में बदल गई। इसके चलते न सिर्फ भारत बल्कि तमाम एशियाई देशों का प्रदर्शन एकदम से गडबड़ा गया और हम अर्श से फर्श पर आ गए । लगातार हार से उपजी हताशा और इस बीच कपिल देव के नेतृत्व में एक दिवसीय क्रिकेट विश्व कप की जीत ने पूरे देश के मानस पटल पर अचानक ही हॉकी की जगह क्रिकेट को बिठा दिया और हमें पता ही नहीं चला।
आज पूरे चार दशक बाद हॉकी प्रेमियों और पूरे देशवासियों में उसी तरह खुशी की लहर दौड़ पड़ी है। उम्मीद है लम्बे अरसे बाद ओलंपिक में मिला कांस्य पदक हमारे युवा और नौनिहालों को एक बार फिर हॉकी की ओर लौटने की प्रेरणा देगा और बहुत जल्द हमारे स्वर्णिम युग की वापसी हो सकेगी।
एक महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय बात, जिसके बिना इस पदक का जश्न अधूरा सा है, वो ये कि आज इस कांस्य के पीछे से झांकती इस स्वर्णिम आभा के पीछे बहुत गरीब राज्य ओड़ीसा और उसके मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के योगदान को याद करना बहुत ज़रूरी है। वे भारतीय हॉकी टीम के बहुत कठिन दौर में संकटमोचक बनकर सामने आए और सिर्फ पुरुष ही नहीं बल्कि महिला हॉकी टीम के स्पॉंसर बने । बिना शोरगुल, खामोशी और धैर्य से उन्होनें हॉकी के लिए जो किया यह कांस्य उसी का फल है जो आगे स्वर्णिम उपलब्धियां लाएगा ऐसी उम्मीद करते हैं। पूरे देश को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए । हर राज्य को उनका अनुसरण करने की ज़रूरत है।
इतने बड़े देश के एक एक राज्य यदि एक एक खेल को गोद ले लें तो आगे आने वाले वर्ष देश के लिए काफी महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं मगर इसके लिए पोस्टरबाजी छोड़कर जूनून, समर्पण और ईमानदारी से सिर्फ और सिर्फ खेल को ही प्राथमिकता देनी होगी।
सही विश्लेषण किया आपने।
उन यादों के बिना आगे के सफर के लिए रास्ते में ताजगी नहीं मिलती है।और बहुत सी समस्याएं हैं।खानपान,अभ्यास स्थल,खेलों का अच्छा समान,भाई भतीजावाद,सरकारी सहयोग और भ्रष्टाचार,समर्पित खिलाड़ी,उनकी आर्थिक समस्या,कोच,और भी बहुत सी कमजोरियों पर इमानदारी से विचार किया जाना चाहिए।पर क्या ऐसा संभव है? शायद नहीं।तो फिर व्यक्तिगत जो भी जितनी मेहनत कर ले।उतना उसको ईनाम.खैर ओलंपिक में विजयी सभी खिलाड़ियों को बधाई। प्रितपाल सिंह अंबिकापुर c g