नेताजी सुभाषचंद्र बोस: तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश – राम पुनियानी

इस साल 8 सितबर 2022 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सुभाषचन्द्र बोस के विचारों और उनकी राजनीति को  तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने का एक और अवसर मिल गया. नेताजी की प्रतिमा का अनावरण करते हुए मोदी ने कहा कि अगर भारत नेताजी द्वारा दिखाए गए रास्ते पर चलता तो देश की कहीं अधिक प्रगति होती. नेताजी को भुला दिया गया था परन्तु अब (मोदी राज में) उनके विचारों को महत्व दिया जा रहा है. मोदी का दावा है कि उनकी सरकार के कामकाज पर नेताजी की नीतियों की छाप है.

सबसे पहले हम आर्थिक प्रगति के बारे में नेताजी की सोच पर चर्चा करेंगे. वे समाजवादी थे और नियोजित विकास को देश की समृद्धि का आधार मानते थे. सन 1938 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित होने के बाद उन्होंने आर्थिक नीतियों को महत्व देना शुरू किया. उन्होंने जवाहरलाल नेहरु को पत्र लिख कर उनसे राष्ट्रीय योजना समिति का अध्यक्ष पद स्वीकार करने का अनुरोध किया. “मुझे आशा है कि आप राष्ट्रीय योजना समिति की अध्यक्षता स्वीकार करेंगे. इस समिति की सफलता के लिए आपको ऐसा करना ही चाहिए”, उन्होंने लिखा. नेहरु ने न केवल अपने इस नजदीकी वैचारिक मित्र के प्रस्ताव को स्वीकार किया वरन इस काम को स्वतंत्र भारत में भी जारी रखा.   

नेहरु ने योजना आयोग का गठन किया जिसने देश के विकास को दिशा दी. सन 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार द्वारा इस आयोग को समाप्त कर दिया गया. इसका स्थान नीति आयोग ने लिया, जिसके लक्ष्य एकदम भिन्न हैं. जहाँ तक आर्थिक नियोजन का प्रश्न है, नेहरु ने नेताजी की सोच को आगे बढ़ाया. इसके विपरीत, मोदी ने योजनाबद्ध विकास की अवधारणा को समाप्त कर दिया, जिसका खामियाजा भारत के लोगों को भुगतना पड़ रहा है. बोस और नेहरु की मान्यता थी कि सार्वजनिक क्षेत्र की हमारे देश की आर्थिक समृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका है. परन्तु इन दिनों सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों और संस्थानों को बेचने का अभियान चल रहा है.

अंग्रेजों के खिलाफ कैसे लड़ा जाए, इस सम्बन्ध में बोस और कांग्रेस के नेतृत्व के एक बड़े हिस्से के बीच मतभेद थे. बोस, ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त’ के सिद्धांत के आधार पर जर्मनी और जापान के साथ गठबंधन के हामी थे परन्तु महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस के नेताओं का एक बड़ा तबका अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करने के पक्ष में था. एक अर्थ में जापान का समर्थन करने का बोस का प्रयास भारत के लिए बड़ी मुसीबत बन सकता था. अगर जर्मनी-जापान द्वितीय विश्वयुद्ध में विजयी होते तो भारत का जापान का गुलाम बनना लगभग सुनिश्चित था.

भारत की समृद्ध सांझी विरासत के अनुरूप, गाँधी, जो कि महानतम हिन्दू थे, सभी धर्मों को बराबर मानते थे. वे सभी धर्मों को भारतीय मानते थे और उनकी नैतिक शिक्षाओं को भारत में भाईचारे की मूल्य की स्थापना की नींव बनाना चाहते थे. नेहरु भी भारत की गंगा-जमुनी तहजीब के झंडाबरदार थे और यही उनकी युगांतकारी रचना ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ का मूल सन्देश था. श्याम बेनेगल द्वारा निर्मित टीवी सीरियल ‘भारत एक खोज’ भी यही रेखांकित करता है. बोस भी भारतीय संस्कृति के बहुवाद को सबसे ज्यादा अहमियत देते थे.

अपनी पुस्तक ‘फ्री इंडिया एंड हर प्रोब्लम्स’ में बोस लिखते हैं, “मुसलमानों के आगमन से एक नई साँझा संस्कृति विकसित हुई. यद्यपि उन्होंने हिन्दुओं के धर्म को स्वीकार नहीं किया तथापि उन्होंने भारत को अपना देश बनाया, उसके सामाजिक जीवन में भाग लेना शुरू किया और वे देश की खुशियों और दुखों में भागीदार बने. दोनों समुदायों के बीच सहयोग से नई कला और संस्कृति का विकास हुआ…”. और “भारतीय मुसलमान देश की स्वाधीनता के लिए प्रयासरत है”. अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए उन्होंने एक ऐसे नए राज्य की परिकल्पना की जिसमें “व्यक्तियों और समूहों की धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता की गारंटी होगी” और “राज्य का कोई धर्म नहीं होगा”.

मोदी की विचारधारा इस्लाम और ईसाई धर्म को विदेशी मानती है और इसी आधार पर इन धर्मों के मानने वालों के खिलाफ नफरत फैलाती है. इसके विपरीत, गाँधी, नेहरु, बोस और स्वाधीनता संग्राम के अन्य नेता यह मानते थे कि धार्मिक विविधता ही हमारी ताकत है.  

बोस इसी सोच के जीते-जागते उदाहरण हैं. उन्होंने अपनी सेना का नाम आज़ाद हिन्द फौज़ रखा. उन्होंने एक हिन्दुस्तानी शब्द चुना, संस्कृत शब्द नहीं. यह भी महात्मा गाँधी की सोच के अनुरूप था. आज़ाद हिन्द फौज़ में रानी झाँसी रेजीमेंट थी, जिसकी कमांडर लक्ष्मी सहगल थीं. फौज़ में शाहनवाज खान और ढिल्लों भी थे, जो अलग-अलग धर्मों से थे. यह सब धर्मनिरपेक्षता के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध बोस द्वारा सोच-समझकर किया गया फैसला था. इसी तरह, बोस ने भारत की जिस निर्वासित सरकार का गठन किया उसका नाम हुकूमत आज़ाद ए हिंद था. उनके विश्वसनीय सहयोगियों में मुहम्मद ज़मान कियानी और शौकत अली शामिल थे. कर्नल सायरिल इस्ट्रेसी भी उनके विश्वस्तों में से थे.

बंधुत्व की इन जड़ों को वर्तमान प्रधानमंत्री अनवरत कमज़ोर कर रहे हैं. सांप्रदायिक एकता को चोट पहुंचाई जा रही है, जिसके नतीजे में लिंचिंग की घटनाएं हो रहीं हैं और मुसलमानों के अलावा ईसाईयों को भी हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है. इन दोनों समुदायों के लोगों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है.

बोस के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष सबसे महत्वपूर्ण था. देश को आज़ाद करने के तरीके के बारे में कांग्रेस के नेतृत्व से उनके मतभेदों के बावजूद, बोस ने ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का समर्थन किया और सावरकर और जिन्ना से इसमें भाग लेने का आव्हान किया. यह अलग बात है कि मोदी के वैचारिक पितामाहों सावरकर और गोलवलकर ने न केवल भारत छोड़ो आन्दोलन का विरोध किया बल्कि अंग्रेजों का समर्थन किया और द्वितीय विश्वयुद्ध लड़ने में उनकी मदद की. जब बोस अंग्रेजों से लड़ने के लिए सेना बना रहे थे उस समय मोदी के गुरु सावरकर अंग्रेजों की मदद कर रहे थे.

सावरकर ने न केवल अंग्रेजों की मदद की वरन उन्होंने देश में बंधुत्व को बढ़ावा देने वाली गाँधी, नेहरु और बोस की विचारधारा का भी विरोध किया. बोस द्वारा भारत की साझा संस्कृति के हिमायत को उतना महत्व नहीं दिया जाता जितना कि दिया जाना चाहिए.

हम एक अजीबोगरीब समय में जी रहे हैं. सत्ताधारी स्वयं की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए ऐसे व्यक्तित्वों का सहारा ले रहे हैं जिनके सिद्धांत और विचार उनकी हरकतों से कतई मेल नहीं खाते. यह कहना कि नेहरु ने बोस की स्मृति को दफ़नाने का प्रयास किया, सफ़ेद झूठ है. नेहरु ने आज़ाद हिंद फौज़ के सेनानियों का मुक़दमा लड़ने के लिए बरसों बाद वकील की भूमिका निभायी. उन्होंने हमारे दूतावास के ज़रिये बोस की पुत्री की हर संभव मदद की. इससे यह स्पष्ट है कि नेहरु अपने महान मित्र और कामरेड का कितना सम्मान करते थे.

 लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007के नेशनल कम्यूनल हार्माेनी एवार्ड से सम्मानित हैं  (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

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