खड़गे एक ऐसे समय कांग्रेस का नेतृत्व संभाल रहे हैं जब पार्टी के समक्ष असंख्य चुनौतियां उपस्थित हैं और राजनीति के प्रांगण में विघटनकारी ताकतों का बोलबाला है.कांग्रेस पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि वह गांधी परिवार का नियंत्रण में है. पार्टी में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव करीब 24 साल बाद हुए. यह दिलचस्प है कि कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़कर, भारत में लगभग सभी पार्टियों के पदाधिकारी नामांकित होते आए हैं. इस पृष्ठभूमि में भारत की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नव निर्वाचित अध्यक्ष के समक्ष चुनौतियों का अंबार है. पार्टी को उन मूल्यों का बचाव करना है जो कांग्रेस के गठन का आधार थे.
हाल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के चुनाव में वरिष्ठ कांग्रेस नेता और राजनीति में लंबा अनुभव रखने वाले मल्लिकार्जुन खड़गे निर्वाचित घोषित किए गए. इस अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित पद पर बैठने वाले वे तीसरे दलित हैं. पार्टी में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव करीब 24 साल बाद हुए. यह दिलचस्प है कि कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़कर, भारत में लगभग सभी पार्टियों के पदाधिकारी नामांकित होते आए हैं. अधिकांश पार्टियों पर विशिष्ट परिवारों का कब्जा रहा है. यद्यपि भाजपा, कांग्रेस के वंशवाद का विरोध करती रही है परंतु भाजपा में राजनैतिक वंशों की कोई कमी नहीं है. भाजपा एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसका नियंत्रण एक दूसरी संस्था – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – के हाथों में है.
कांग्रेस पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि वह गांधी परिवार का नियंत्रण में है. हमें यह याद रखना चाहिए कि सन् 2004 में जब सोनिया गांधी का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया गया था तब अनेक व्यक्तियों और दलों ने इसका जमकर विरोध करते हुए सोनिया के विदेशी मूल का होने का हवाला दिया गया था. सोनिया गांधी उस समय कांग्रेस की सबसे बड़ी नेता थीं, सांसद थीं और प्रधानमंत्री पद की स्वाभाविक दावेदार थीं. यह दिलचस्प है कि जो लोग सोनिया गांधी को विदेशी बताकर प्रधानमंत्री नहीं बनने देना चाहते थे वे ही ऋषि सुनाक के इंग्लैंड का प्रधानमंत्री निर्वाचित होने पर खुशियां मना रहे हैं.
खड़गे एक ऐसे समय कांग्रेस का नेतृत्व संभाल रहे हैं जब पार्टी के समक्ष असंख्य चुनौतियां उपस्थित हैं और राजनीति के प्रांगण में विघटनकारी ताकतों का बोलबाला है. अन्य क्षेत्रों में भी भगवा विचारधारा वालों को प्राथमिकता दी जा रही है. उदाहरण के लिए विश्वविद्यालयों के कुलपतियों और शिक्षकों की भर्ती का आधार उनकी विचारधारा होती है ना कि उनकी शैक्षणिक योग्यता. यह एक ऐसा समय है जब देश में कई तबके तरह-तरह की परेशानियों से घिरे हुए हैं.
वैश्विक स्तर पर भूख, प्रेस की स्वतंत्रता, प्रजातांत्रिक आजादियां, धर्म की स्वतंत्रता आदि के सूचकांकों में भारत की स्थिति गिरती ही जा रही है. आम लोगों की आर्थिक स्थिति तेजी से बिगड़ी है. कीमतें बढ़ रही हैं, बेरोजगारी बढ़ रही है और खेती से जीवनयापन करना मुश्किल होता जा रहा है. कई अंतर्राष्ट्रीय एजेसिंयों ने अल्पसंख्यकों पर बढ़ते अत्याचारों के बारे में चेतावनी दी है. नरसंहारों के अंतर्राष्ट्रीय अध्येता ग्रेगोरी स्टेंटन ने भी कहा है कि भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति चिंताजनक है.
जाहिर है कि इस पृष्ठभूमि में भारत की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के समक्ष चुनौतियों का अंबार है. पार्टी को उन मूल्यों का बचाव करना है जो कांग्रेस के गठन का आधार थे. सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन के पहले देश में कई आधुनिक संस्थाएं अस्तित्व में आ चुकीं थीं. इनमें शामिल थीं बाम्बे एसोसिएशन, मद्रास महाजन सभा, पुणे सार्वजनिक सभा आदि. इन सभाओं के प्रतिनिधियों की 1883 में कलकत्ता में हुई बैठक में इस बात पर जोर दिया गया था कि देश के नागरिकों की राजनैतिक मांगों को अंग्रेजों तक पहुंचाने के लिए एक राजनैतिक मंच की आवश्यकता है. इन मांगों में शामिल थीं देश का औद्योगिकरण, भू-सुधार, आईसीएस परीक्षा केन्द्रों की भारत में भी स्थापना और प्रशासन में भारतीयों की अधिक सहभागिता.
लार्ड ए. ओ. ह्यूम इन विभिन्न संगठनों और उनके नेतृत्व को एकसाथ लाए और राजनीति में भारतीयों की अधिक भागीदारी के लिए प्रयास करने हेतु एक संगठन बनाया. यह संगठन धर्म, जाति और क्षेत्र की संकीर्णताओं से ऊपर था. समय के साथ महिलाएं भी इसमें शामिल हुईं. कांग्रेस में अध्यक्ष का पद बहुत महत्वपूर्ण था और पार्टी के अध्यक्षों में मुस्लिम (मौलाना आजाद), ईसाई (डब्लू. सी. बनर्जी) और पारसी (दादाभाई नैरोजी) शामिल थे. इन सबके संयुक्त प्रयासों से कांग्रेस एक समावेशी मंच बन सकी. पार्टी के शुरूआती वर्षों में लोकमान्य तिलक, एम. जी. रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले आदि ने प्रजातांत्रिक मूल्यों को स्वर दिया और औपनिवेशिक शासकों की तानाशाहीपूर्ण नीतियों के विरूद्ध याचिकाएं प्रस्तुत कीं.
परिदृश्य पर महात्मा गांधी के उभरने के साथ ही जनांदोलन शुरू हुए जिन्होंने लोगों को एक किया. अंततः इन्हीं जनांदोलनों ने अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर किया. महात्मा गांधी का मंत्र था कि आखिरी पंक्ति के आखिरी मनुष्य के हितों का ध्यान रखा जाए. एक तरह से उनका यह सिद्धांत कांग्रेस की नीतियों का पथ प्रदर्शक बन गया. दुर्भाग्यवश वैश्विक हालातों के चलते कांग्रेस सरकारों को ऐसी नीतियां लागू करनी पड़ीं जो निर्धन वर्गों के हितों के अनुरूप नहीं थीं. परंतु फिर भी यूपीए-1 और यूपीए-2 सरकारों की नीतियां काफी हद तक जनोन्मुखी थीं. इन्हीं सरकारों के दौर में सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और स्वास्थ्य का अधिकार जैसे क्रांतिकारी कानून बनाए गए. इस दौर में सामाजिक आंदोलनों और प्रगतिशील ताकतों को सरकार की समाज कल्याण नीतियों को आकार देने का मौका मिला.
पहचान की राजनीति की शुरूआत ने सब कुछ उलट-पलट दिया. सन् 1980 और 1986 के आरक्षण विरोधी दंगे आने वाले समय की चेतावनी थे. मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद सकारात्मक भेदभाव की नीतियों का विरोध, आडवानी की रथयात्रा और उसके बाद बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के रूप में सामने आया. धर्म के आधार पर लोगों को विभाजित किया जाने लगा. गौमांस, गाय, घर वापसी, जनसंख्या संतुलन आदि मुख्य मुद्दे बन गए जिससे हमारी सांझा संस्कृति और परंपराओं पर आधारित बंधुत्व कमजोर हुआ.
हाल में आयोजित कांग्रेस का उदयपुर सम्मेलन एक नई शुरूआत हो सकता है. इस सम्मेलन से यह आशा जागृत होती है कि शायद हमारे देश में बंधुत्व फिर से स्थापित होगा, हमारे संविधान की उद्धेश्यिका में वर्णित मूल्यों को प्रोत्साहित किया जाएगा और प्रशासनिक तंत्र में साम्प्रदायिक तत्वों की घुसपैठ को रोकने के प्रयास होंगे.
जिस समय खड़गे को अध्यक्ष चुना गया है उस समय पार्टी के एक शीर्ष नेता राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा निकाल रहे हैं. यह यात्रा यदि सचमुच लोगों को जोड़ सकी तो इससे गांधी, पटेल, नेहरू, सुभाष और अम्बेडकर के सपनों के भारत के निर्माण में मदद मिलेगी. इस यात्रा में जो मुद्दे उठाए जा रहे हैं वे महत्वपूर्ण हैं. हमें संविधान पर बढ़ते हमलों की ओर भी ध्यान देना होगा और संविधान की समावेशी आत्मा को बचाए रखना होगा.
नए अध्यक्ष को सिद्धांतों के आधार पर विपक्ष की एकता कायम करने पर विचार करना चाहिए. ये सिद्धांत प्रेम, सद्भाव और शांति से जुड़े हो सकते हैं. विपक्षी दलों में एकता कायम करने के लिए ऐसी आर्थिक नीतियों के प्रति प्रतिबद्धता आवश्यक होनी चाहिए जो आम लोगों के जीवन में बेहतरी लाए. हम केवल आशा ही कर सकते हैं कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में खड़गे का चुनाव और राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा, विघटनकारी राजनीति की चक्की में पिस रही भारतीय जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने वाले सिद्ध होंगे. यह विघटनकारी राजनीति केवल उद्योगपतियों और साम्प्रदायिक तत्वों का भला कर रही है.
लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं. (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)