जर्मन संसद में महिलाओं की संख्या घटी

विवेक कुमार

जर्मनी के ताजा चुनावी नतीजे इस बात का साफ संकेत देते हैं कि देश एक नई राजनीतिक दिशा खोज रहा है. एक तरफ बुंडेसटाग में महिला सांसदों की संख्या घटी है, तो वहीं लेफ्ट-राइट के बीच दीवार साफ और बड़ी हुई है. चुनाव के दौरान जर्मनी में एक मिशन बहुत चर्चित हुआ जिसे मिशन सिल्बरलॉके नाम दिया गया था. दरअसल, यह बात वामपंथी पार्टी डी लिंके से जुड़ी हुई थी. मिशन था पार्टी के तीन उम्मीदवारों – डीटमार बार्ट्श, ग्रेगोर गाईजी और बोडो रामेलो की जीत सुनिश्चित करना. पार्टी ने इस बारे में कहा कि यह मिशन “यह सुनिश्चित करने में मदद करना चाहता है कि डी लिंके कम से कम तीन प्रत्यक्ष जनादेश प्राप्त करे और दूसरे मतों में 5 प्रतिशत से अधिक हासिल करे.”

इस मिशन पर सवाल उठाया गया कि कभी महिलाओं की बराबरी की बात करने वाली वामपंथी पार्टी तीन पुरुषों की जीत के लिए जोर लगा रही है. फिर भी, बार्ट्श के अलावा पार्टी के दोनों उम्मीदवार जीत गए. लेकिन मिशन की आलोचना पूरे चुनाव पर लागू हुई और महिलाओं के लिए यह चुनाव पहले के मुकाबले अच्छा नहीं रहा.

जर्मनी के हालिया संघीय चुनावों ने देश के राजनीतिक परिदृश्य में गहरी उथल-पुथल मचाई है. जहां बुंडेसटाग (जर्मन संसद) में महिला प्रतिनिधियों की संख्या घटी है, वहीं वामपंथी और दक्षिणपंथी दलों का प्रभाव पहले से कहीं अधिक बढ़ गया है. रविवार, 23 फरवरी को हुए मतदान के बाद सोमवार को जारी हुए नतीजों के मुताबिक जर्मनी अब एक अधिक विभाजित और ध्रुवीकृत राजनीतिक दौर में प्रवेश कर रहा है, जिससे सरकार बनाना और शासन करना कठिन हो सकता है.

महिला सांसदों की संख्या घटी

नई संसद में 204 महिला सांसद होंगी, जो कुल 630 सीटों में से 32.4 फीसदी का प्रतिनिधित्व करती हैं. यह आंकड़ा पिछले चुनाव के 35 फीसदी से कम है. महिला प्रतिनिधित्व में यह गिरावट ऐसे समय में आई है जब जर्मनी में लैंगिक समानता और महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने के प्रयास किए जा रहे हैं.

विशेषज्ञों के अनुसार, इस गिरावट का एक प्रमुख कारण धुरदक्षिणपंथी ‘अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी’ (एएफडी) पार्टी का उभार है, जिसने 20.8 फीसदी वोटों के साथ अपने मत प्रतिशत को पिछले चुनाव से दोगुना कर लिया है. एएफडी की संसदीय टीम में महिला सांसदों की संख्या बेहद कम है, सिर्फ 12 फीसदी. पार्टी की सह-नेता अलीस वाइडेल इस अल्पसंख्यक समूह का हिस्सा हैं.

राजनीतिक विश्लेषक उर्सुला कोस्टर के अनुसार, “एएफडी और सीडीयू/सीएसयू जैसी दक्षिणपंथी पार्टियां महिलाओं को नेतृत्व की भूमिकाओं में बढ़ावा देने में असफल रही हैं. यह लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है.”

सीडीयू/सीएसयू गठबंधन, जिसने 28.5 फीसदी वोटों के साथ चुनाव में पहला स्थान हासिल किया, महिला प्रतिनिधित्व के मामले में थोड़ा ही बेहतर है. इसकी केवल 23 फीसदी सांसद महिलाएं हैं. वहीं, वामपंथी दलों में महिला नेताओं की भागीदारी अधिक है. ग्रीन्स पार्टी की 61 फीसदी सीटें महिलाओं ने जीती हैं, जबकि मिशन सिल्बरलॉके के जरिए तीन पुरुष उम्मीदवारों का प्रचार करने के लिए आलोचना झेलने वाली डी लिंके में यह आंकड़ा 56 फीसदी है. ओलाफ शोल्त्स की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसपीडी) ने 42 फीसदी महिला सांसदों के साथ अपनी स्थिति को थोड़ा मजबूत बनाए रखा है.

पूर्व सांसद और महिला अधिकार कार्यकर्ता मारिया लेहमान का कहना है, “जब महिलाएं सरकार में नहीं होतीं, तो उनके मुद्दे हाशिए पर चले जाते हैं. जर्मनी को अपनी राजनीति में अधिक विविधता लाने की जरुरत है.”

राजनीतिक ध्रुवीकरण बढ़ा

इस चुनाव में न केवल महिला प्रतिनिधित्व घटा है, बल्कि जर्मनी में राजनीतिक ध्रुवीकरण भी बढ़ा है. जहां एएफडी की सफलता ने दक्षिणपंथी राजनीति को मजबूती दी है, वहीं वामपंथी डी लिंके पार्टी ने भी काफी प्रगति की है. पार्टी ने 8.8 फीसदी वोट हासिल किए, जो हाल के वर्षों में उसके लिए सबसे अच्छे नतीजों में से एक है.

विशेष रूप से पूर्वी जर्मनी में इन चरमपंथी पार्टियों को अधिक समर्थन मिला. यहां मतदाता अन्य बड़ी पार्टियों से निराश नजर आए. राजनीतिक विश्लेषक बेन्यामिन होने के अनुसार, “पूर्वी जर्मनी में लोगों का विश्वास पारंपरिक दलों में कमजोर हुआ है. आर्थिक अस्थिरता, कम आय और सामाजिक असमानता के कारण वहां के मतदाता अधिक चरमपंथी विचारधाराओं की ओर आकर्षित हो रहे हैं.” 

वामपंथी डी लिंके ने गरीब और मध्यम वर्ग के लिए कई लोकलुभावन वादे किए थे, जिनमें किराए पर नियंत्रण, टैक्स-फ्री खाना और अमीरों पर अधिक कर लगाने जैसी नीतियां शामिल थीं. यह एजेंडा युवा मतदाताओं को लुभाने में कामयाब रहा. 30 साल से कम उम्र के जर्मनों में 24 फीसदी ने डी लिंके का समर्थन किया, जबकि 21 फीसदी ने एएफडी को वोट दिया. 

सीरिया से आकर जर्मन नागरिक बने 20 वर्षीय ओमार अलकदामानी पहले एसपीडी का समर्थन करते थे, लेकिन इस बार उन्होंने डी लिंके को वोट दिया. उन्होंने कहा, “एसपीडी अब प्रवासियों के हितों की रक्षा नहीं कर रही है. मुझे लगा कि मेरा वोट कहीं और जाना चाहिए.” 

सोशल मीडिया और चुनावी परिणाम

सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने इन चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. विश्लेषकों का मानना है कि डिजिटल प्लेटफॉर्म पर वायरल हो रही बहसों और वीडियो ने कई युवा मतदाताओं को प्रभावित किया. राजनीतिक रणनीतिकार थॉमस ब्रिंकमान के अनुसार, “इस चुनाव में पारंपरिक मीडिया का प्रभाव कम हुआ है. अब चुनावी लड़ाई सोशल मीडिया पर लड़ी जा रही है, और जो पार्टियां इसे बेहतर तरीके से इस्तेमाल कर रही हैं, वे अधिक मतदाता जोड़ने में सफल हो रही हैं.” 

डी लिंके पार्टी की सफलता का एक प्रमुख कारण इसका सोशल मीडिया अभियान था. दिसंबर तक पार्टी का समर्थन सिर्फ 3 फीसदी था, और यह आशंका थी कि वह 5 फीसदी की संसदीय सीमा भी पार नहीं कर पाएगी. लेकिन पार्टी नेता का एक उग्र भाषण वाला वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया, जिसमें उन्होंने प्रवासन विरोधी नीतियों को समर्थन देने के लिए रूढ़िवादी दलों की आलोचना की. इसके बाद, पार्टी को अप्रत्याशित समर्थन मिला. 

राजनीतिक थिंक टैंक ‘यूरोइंटेलिजेंस’ ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, “डी लिंके को मुख्यधारा की मीडिया में बहुत कम जगह दी गई, लेकिन सोशल मीडिया ने उसके लिए काम किया. यह दिखाता है कि जर्मनी में चुनावी प्रक्रिया किस तरह बदल रही है.”

साभार dw news

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