बंबई उच्च न्यायालय ने सरकार को समाज के जाने माने लोगों की मदद लेने की सलाह दी। मैं बंबई उच्च न्यायालय को कहना चाहता था कि इस समाज में अब कोई ऐसा बचा नहीं। सबकी प्रतिष्ठा रौंद डाली गई है। वरना यह कैसे हुआ कि जो विश्व भर में मान्य हैं, वैसे तीन अर्थशास्त्री, अमर्त्य सेन, रघुराम राजन और अभिजीत बनर्जी एक साथ कुछ बोलें और वह कहा हुआ पानी में पत्थर की तरह डूब जाए, कोई तरंग भी न उठे?
समाज में महाजन की क्या भूमिका है? यह ख़याल आया तब जब कुछ दिन पहले बंबई उच्च न्यायालय की औरंगाबाद पीठ के सामने आए एक मामले की कार्रवाई का ब्योरा पढ़ रहा था। मसला बस वही। कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए उठाए गए क़दम से जो तकलीफ़ साधारण जन, बल्कि श्रमिक वर्ग को हो रही है, उससे उन्हें मुक्ति दिलाने की अपील अदालत के सामने थी।
अदालत ने लोगों को उनके बुनियादी फ़र्ज़ की याद दिलाई कि उन्हें इस कठिन समय में एक दूसरे के बीच और समाज में बंधुत्व को दृढ़ करना चाहिए। लेकिन इसी सुनवाई में उसने सरकार को समाज के जाने माने लोगों की मदद लेने की सलाह भी दी जिससे वे समाज को उसके कर्तव्य के पालन की गम्भीरता का अहसास दिला सकें। ये जाने माने लोग कौन हो सकते हैं? आपने इस बीच देखा होगा कि प्रधानमंत्री की अपील पर अमिताभ बच्चन ताली बजा रहे थे। उनकी तस्वीरें छपीं और सोशल मीडिया के द्वारा चारों तरफ़ फैलायी भी गईं। यह समझ है कि उनसे साधारण जन प्रेरणा ले सकते हैं।
जाने-माने के लिए परिनिष्ठित हिंदी में गण्यमान्य चलता है। यानी वैसे लोग जो समाज में गिने जाने योग्य हैं और जिनकी मान्यता समाज में है। आप इन्हें गिने चुने भी कह सकते हैं। जो गण्यमान्य हैं वही महाजन भी हैं। इनकी मदद सरकार को क्यों लेनी चाहिए जबकि उसके पास हर तरह की ताक़त है? ये जो गण्यमान्य हैं, इनके पास आख़िर कौन-सी शक्ति है? क्यों समाज इन्हें सुने? क्यों यह कहा गया कि उस रास्ते चलना चाहिए जिस रास्ते महाजन गए हैं?पिछले कुछ वक़्त से सेलिब्रिटी ने इन शब्दों की जगह ले ली है। वह जिसे समाज सेलिब्रेट करता है, जिसे सर आँखों पर रखता है। या जिन्हें सत्ता सेलिब्रेट करती है? यह तो तय है कि वे चुने नहीं जाते, धीरे धीरे यह स्थान हासिल कर लेते हैं। क्या इसे ज़रा सरलीकृत करते हुए अभिजन भी कहा जा सकता है?
अभिजन अलग श्रेणी है। हमारे महाजन कभी उसमें आते हैं और कभी वे उससे संघर्ष करते हैं।हर समाज में ऐसे गण्यमान्य लोगों का प्रभाव उनकी संख्या के मुक़ाबले कहीं अधिक होता है। जनतंत्र के पहले भी समाज में ऐसे व्यक्तित्व होते थे। सत्ता को समाज में उनके प्रभाव का पता होता था। प्रायः इस तरह के महाजन का सत्ता से तनावपूर्ण रिश्ता ही होता था। कई बार वे सत्ता के कोपभजन भी बनते थे। मंसूर को यों ही नहीं सूली चढ़ना पड़ा था। सरमद को भी जान देनी पड़ी थी। ऐसे नाम हर समाज में हैं। बल्कि ऐसे नामों से उस समाज के स्वास्थ्य का पता चलता है।
सत्ता से दूरी में प्रतिष्ठा
प्रायः गण्यमान्य जन बुद्धि के व्यापार से सम्बंध रखने वाले ही होते थे। सत्ता इनका उपयोग करना चाहती रही है लेकिन इनकी प्रतिष्ठा सत्ता से दूरी बनाए रखकर ही बनी रहती है। समाज में इनके प्रभाव का एक कारण यह भी होता है। जैसे ही ये सत्ता प्रतिष्ठान में शामिल हुए, इनकी आभा क्षीण हुई। लेकिन फिर यह सब पर लागू नहीं। जिनमें यह ताक़त बची रहती है कि वे सत्ता प्रतिष्ठान में रहकर उसे सच बता सकें, ऐसा सच जो उसे पसंद न हो तो उनकी प्रतिष्ठा समाज में बनी रहती है।
ट्रंप की सत्ता और ब्रैड पिट
आपने कोरोना वायरस के संक्रमण के संकट पर होने वाली प्रेस कॉन्फ़्रेन्स में अमेरिका के राष्ट्रपति के क़रीब खड़े एक शख़्स को देखा होगा। कोरोना वायरस पर राष्ट्रपति के बयान से बिलकुल अलग और एकाध बार उसे काटता हुआ बयान यह शख़्स देता सुना गया है। ट्रम्प की हिम्मत इसे सबके सामने कुछ कहने की नहीं। ये हैं अमेरिका के संक्रामक रोगों और एलर्जी के राष्ट्रीय संस्थान के प्रमुख डॉक्टर ऐन्थॉनी फ़ॉसी। प्रेस और लोग उनकी बात का इंतज़ार करते हैं। ट्रम्प की अहमकाना राय के मुक़ाबले लोग डॉक्टर फ़ॉसी की राय सुनना चाहते हैं।
लेकिन डॉक्टर ने हाल में मज़ाक़ मज़ाक़ में कहा कि वे चाहते हैं कि अभिनेता ब्रैड पिट लोकप्रिय टी वी कार्यक्रम सैटरडे नाइट लाइव में उनकी भूमिका निभाएँ। पिट अमेरिका में लोकप्रिय हैं। अगर उनके माध्यम से डॉक्टर फ़ॉसी की बात लोगों तक पहुँच सके तो उसका असर होगा। पिट ने ऐसा ही किया। इस प्रसंग में समाज के दो जाने माने लोगों का एक दूसरे की प्रतिष्ठा का आदर देखा जा सकता है।
जो गिने जाने लगते हैं, उन्हें पहले किसी किसी एक दिशा में एकाग्र श्रम का निवेश करना होता है। फिर उनकी राय दूसरे मसलों पर भी सुनी जाती है। हर विशेषज्ञ इस श्रेणी में नहीं पहुँच पाता। संभवतः इस श्रेणी में प्रवेश की उनकी अर्हता जनहित से उनकी प्रतिबद्धता पर टिकी है। दूसरे अपनी मेधा की स्वतंत्रता की रक्षा को लेकर सजगता पर भी।
एक अर्थ में ऐसे लोगों को सार्वजनिक बुद्धिजीवी कहा जा सकता है। भारत की अंग्रेज़ों से आज़ादी के पहले रवींद्रनाथ का नाम सहज ही ध्यान में आता है। उस समय गाँधी अपने आपमें एक सत्ता थे। रवीन्द्रनाथ ने अनेक अवसरों पर सार्वजनिक रूप से उनका प्रतिवाद किया। गाँधी ने न उन्हें नज़रअन्दाज़ किया और न उनकी खिल्ली उड़ाई। उन्होंने उनसे संवाद किया।
ऐसा संवाद स्वास्थ्यकर होता है। लेकिन हर सत्ता इसमें विश्वास नहीं करती। वह तय करना चाहती है कि कौन गण्यमान्य हो। या माना जाए।
आधुनिक समाजों में सोवियत यूनियन का नाम सहज ही ध्यान में आता है जहाँ सत्ता यह तय करती थी। बाक़ी को लांछित करके जनता के सामने अविश्वसनीय बना कर उनकी हत्या की जा सकती थी या उन्हें किनारे धकेल दिया जा सकता था। इस प्रकार वे निष्प्रभावी होकर बस पड़े रहते थे।
अमेरिका ने सिनेटर मक्कार्थी के जमाने में यही देखा। जो भी गण्यमान्य थे, सत्ता ने उन्हें सार्वजनिक तौर पर लांछित किया। वे कम्युनिस्ट कहे गए और अमेरिका विरोधी। चीन में भी पार्टी यह तय करना चाहती है कि कौन मान्य हो। तुर्की में ऐसे लोग जेल में हैं। ईरान में वे ख़तरे में हैं। या उत्तरी कोरिया के राष्ट्र प्रमुख के अलावा हमें किसी का नाम मालूम है?
जब बंबई उच्च न्यायालय की औरंगाबाद पीठ ने गण्यमान्य लोगों की याद की तो मुझे लगा कि हमारे देश में तो ऐसा कोई बचा ही नहीं। जब वह यह कह रही थी तभी सर्वोच्च न्यायालय दो ऐसे गण्यमान्य को जेल भेज रहा था। आनंद तेलतुंबडे और गौतम नवलखा। उनके जैसे कुछ और साल भर से ज़्यादा जेल में हैं।
मैं बंबई उच्च न्यायालय को कहना चाहता था कि इस समाज में अब कोई ऐसा बचा नहीं। सबकी प्रतिष्ठा रौंद डाली गई है। वरना यह कैसे हुआ कि जो विश्व भर में मान्य हैं, वैसे तीन अर्थशास्त्री, अमर्त्य सेन, रघुराम राजन और अभिजीत बनर्जी एक साथ कुछ बोलें और वह कहा हुआ पानी में पत्थर की तरह डूब जाए, कोई तरंग भी न उठे?
इस देश में कोई ऐसा बुद्धिजीवी न रहने दिया गया और न कोई संस्था। क्या कोई विश्वविद्यालय है जिसकी ऐसी मान्यता शेष हो, कोई पत्रकार, कोई वैज्ञानिक? कोई धर्मगुरु? क्या यह समाज किसी स्वतंत्र स्वर की प्रतिष्ठा करने की सलाहियत रखता है? क्या प्रतिष्ठा अब सिर्फ़ सत्ता के प्रतिष्ठान में रह गई है?
अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं । सौ.- सत्यहिन्दी